ज़कात – इस्लाम का अनिवार्य तीसरा स्तम्भ”नमाज़ और ज़कात यही दो चीजें ‘दीन’ की वास्तविक व्यावहारिक बुनियादें”- डॉ एम ए रशीद नागपुर

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‘ज़कात’ इस्लाम का तीसरा स्तम्भ है। शरीअत में किसी कर्म को वह महत्त्व प्राप्त नहीं जो नमाज़ को प्राप्त है। इसलिए यह तो किसी प्रकार नहीं कहा जा सकता कि ज़कात भी इस्लाम धर्म में ठीक वैसे ही हैसियत रखती है जैसे कि नमाज़ की है। किन्तु इसके बारे में कुरआन व हदीस के अन्दर जो कुछ कहा गया है उसपर नज़र डालने से उसके महत्व को समझा जा सकता है।
कुरआन मजीद में अधिकतर स्थानों पर ईमान के बाद मात्र दो सत्कर्मों का उल्लेख मिलता है जिसमें पहला नमाज़ है दूसरा ज़कात। पवित्र क़ुरआन की पंक्ति 2:277 के अनुसार “निसंदेह वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए, नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी उनके लिए उनके पालनकर्ता के पास प्रतिदान होगा।”
अल्लाह तआला की निगाह में नमाज़ और ज़कात यही दो चीजें ‘दीन’ की वास्तविक व्यावहारिक बुनियादें हैं। जिसने इन दोनों अनिवार्य कर्मों (फ़ज़ों) का अच्छी तरह निर्वाह कर लिया उसने मानो पूरे धर्म पर चलने की पक्की जमानत और व्यावहारिक साक्ष्य जुटा दिया। अब उससे इस बात की वस्तुतः कोई आशंका शेष नहीं रह जाती कि वह शरीअत के दूसरे आदेशों की उपेक्षा करेगा।
‘नमाज़ और ज़कात’ की वास्तविकताओं और उद्देश्यों पर नजर डालने से धर्म के आदेशों का आधारभूत विभाजन मिलता है जो दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के वे आदेश हैं जिनका सम्बन्ध अल्लाह तआला के अधिकारों से है और दूसरे प्रकार के आदेश वे हैं जिनका सम्बन्ध बन्दों के अधिकारों से है। इस तरह ‘दीन’ का अनुपालन वास्तव में इस बात का नाम है कि मनुष्य अल्लाह तआला के और उसके बन्दों के अधिकारों अर्थात दोनों के उत्तरदायित्वों को पूरा करने वाला हो जाए। नमाज़ अल्लाह के और ज़कात बन्दों के अधिकारों को पूरी तरह अदा करने और तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है है। मस्जिद में पूरी चेतनापूर्वक नमाज़ का हक़ अदा करने के बाद मस्जिद से बाहर अल्लाह के अधिकारों को भूल नहीं जाना चाहिए।
अल्लाह के प्रति प्रेम हर प्रेम पर प्रभावी होना चाहिए और सांसारिक चाहत में आखिरत की चाहत को प्रधानता प्राप्त होना चाहिए । नमाज़ और ज़कात इन्सान को ऐसा ही ईशपरायण और आख़िरत पसन्द बनाने के सबसे अधिक प्रभावकारी उपाय हैं। नमाज़ इन्सान को अल्लाह और आख़िरत की ओर से जाती है, तो ज़कात उसे दुनिया की तरफ़ लुढ़क जाने से बचाती है। मानो अल्लाह तआला की प्रसन्नता और आख़िरत की सफलता का मार्ग अगर कड़ी चढ़ाई का मार्ग है तो ये दोनों चीजें उस रास्ते पर सफ़र करने वाली इन्सानी अमल की गाड़ी के दो इंजन हैं। नमाज़ का इंजन उसे आगे से खींचता है और ज़कात का इंजन उसे पीछे से धकेलता है। इस तरह यह गाड़ी अपनी मंजिल की ओर बराबर बढ़ती रहती है। जब वस्तुस्थिति यह है तो इन दोनों बीज़ों को यह हक मिलना ही चाहिए कि ये धर्म की असल अमली बुनियादें हरा दी जाएं।
किसी का मुसलमान होना ज़कात अदा किए बगैर विश्वसनीय नहीं माना जा सकता और मुसलमान की भी जान-माल उसी समय तक सम्माननीय है जब तक कि वह नमाज़ ही की तरह ज़कात भी अदा करता रहे। अगर कोई व्यक्ति नमाज़ के आदेश पर तो अमल करता है, किन्तु ज़कात के आदेश का अनुपालन नहीं करता और इस तरह दोनों की हैसियतों में अन्तर करता है, तो अनिवार्य है कि उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाए जैसा नमाज़ न हनेवाले के साथ किया जाता है।
इस संबंध में कुरआन मजीद की दो आयतें बहुत महत्वपूर्ण हैं।
पवित्र कुरआन में 41:6,7 में बताया गया है कि “….. तबाही है उन अनेकेश्वरवादियों के लिए जो ज़कात नहीं देते और वे आख़िरत (परलोक) के इन्कार पर तुले हुए हैं।”
पवित्र कुरआन में 7:156 में बताया गया है कि “….अतः मैं अपनी दयालुता उन लोगों के लिए लिख दूँगा जो मेरा डर रखते हैं और ज़कात देते हैं और जिनका हमारी आयतों पर ईमान है।”
पहली पंक्ति में ज़कात न देने को शिर्क (बहुदेववाद) और आख़िरत के इन्कार का लक्षण ठहराया गया है, उसी प्रकार दूसरी पंक्ति में ज़कात देने को तक़्वा ( अल्लाह का डर) और ईमान का साक्ष्य ठहराया गया है। इस प्रकार ये दोनों पंक्तियां एक ही तथ्य को प्रकट कर ही हैं और बता रही हैं कि ज़कात भी ईमान का एक अनिवार्य प्रतीक है।