ज़कात क्यों और किस लिए?”ज़कात की अदायगी में भ्रष्ट ( हराम) माल का कोई भी अंश नहीं होना चाहिए”,डॉ एम ए रशीद नागपुर

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इस्लाम धर्म में ज़कात के स्थान पर कुरआन और हदीसों ने बहुत अच्छी तरह व्याख्या की है। उन से स्पष्ट रूप से तो दिखाई देता है कि ज़कात के बिना धर्म की इमारत किसी भी तरह नहीं बन सकती। इसलिए ज़कात को अनिवार्य ठहराया गया और उसे इस्लाम का स्तंभ बना दिया गया । अतः इस्लाम को मानने वालों में जहां ईमान होगा वे ज़रूर ज़कात की अदायगी अनिवार्य रूप से करेंगे।
ज़कात किन उद्देश्यों के लिए अनिवार्य (फ़र्ज़) की गई है इस संबंध पवित्र क़ुरआन मजीद और हदीसों पर अध्ययन करने से पता चलता है कि ज़कात के तीन उद्देश्य हैं, एक प्राथमिक और व्यक्तिगत तथा माध्यमिक और सामाजिक।
ज़कात का प्राथमिक और व्यक्तिगत उद्देश्य जिसका सम्बन्ध पूरी – तरह से व्यक्ति के अपने व्यक्तित्व से होता है। ज़कात देने वाले का दिल और मन सांसारिक लोभ-लालच से मुक्त हो जाता है। वह इससे मुक्त होकर भलाई और संयम के कामों के लिए तैयार हो जाता है ।
पवित्र क़ुरआन के 92:17-18 में बताया गया है कि “..उसे जहन्नम दूर रखा जाएगा वह व्यक्ति जो अल्लाह से बहुत डरने वाला है, जो अपना माल दूसरों को देता है (केवल) पवित्र होने के लिए।”
पवित्र क़ुरआन (9:103) में हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ज़कात के संबंध में संबंधित करते हुए कहा कि “तुम उनके माल में से दान लेकर उन्हें शुद्ध करो और उसके द्वारा उन (की आत्मा) को विकसित करो और उनके लिए दुआ करो। निस्संदेह तुम्हारी दुआ उनके लिए सर्वथा परितोष है। अल्लाह सब कुछ सुनता, जानता है।”
इन आयतों से मालूम हुआ कि सदका , ख़ैरात और ज़कात का मूल उद्देश्य हृदय की सफ़ाई और आत्मा का विकसित करना है। प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि दुनिया की मुहब्बत ही वह चीज़ है जो ईशोपासना की असल दुश्मन है। यह इन्सान को अल्लाह और आखिरत से बेपरवाह बनाकर रख देती है। हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी फ़रमाया है कि “दुनिया की मुहब्बत हर बुराई की जड़ है।”
इस मुहब्बत का सम्बन्ध यद्यपि संसार की बहुत-सी चीज़ों से होता है, किन्तु उनमें सबसे अधिक ख़तरनाक मुहब्बत धन-संपत्ति की होती है। अतएव हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने माल (धन-संपत्ति) ही को अपने अनुयायियों के लिए सबसे बड़ा फ़ितना ठहराया है। आपने कहा है कि “मेरी उम्मत का फ़ितना माल है।”
इसलिए अगर एक धनवान मोमिन धन-संपत्ति की मुहब्बत की पकड़ से अपने को बचा ले तो दूसरा उसके लिए बहुत-सी चीज़ों की मुहब्बत से मुक्त होने के मार्ग अपने आप खुल जाते हैं इस प्रकार इस एक फंदे से मुक्ति पाना वास्तव में दूसरे बहुत-से फंदों से मुक्त हो जाना है। सांसारिक फंदों से हृदय का मुक्त हो जाना ही उसका पवित्र हो जाना है। ज़कात चूंकि मानव हृदय को ऐसी ही मुक्ति प्रदान करती है, इसलिए तथ्य यह है कि वह दिलों को पवित्र करती है। सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाने के बाद इन्सान अल्लाह की प्रसन्नता और परलोक की सफलता की ओर तीव्र गति से बढ़ता और भलाइयों की ओर प्रवृत्त हो जाता है, इसलिए ज़कात का प्रभाव दिलों को पवित्र करने के निषेधात्मक कर्म ही तक सीमित नहीं रह जाता बल्कि स्वीकारात्मक रूप से उनके व्यक्तित्व के विकास और उच्च उठान तक जा पहुंचता है और उनकी भलाई की शक्ति को गतिशील कर दिया करता है। ये समस्त मनोवैज्ञानिक तथ्य है जो उपरोक्त दोनों पंक्तियों की तह में पाए जाते हैं।
जकात का यही मूलोद्देश्य और आशय है जिसके कारण शरीअत ने इस कर्म को ‘ज़कात’ का नाम दिया है। ‘ज़कात’ का शाब्दिक अर्थ पवित्रता और बढ़ोत्तरी होने के हैं। मानो अपनी कमाई का एक भाग मोहताज और मंद लोगों को केवल अल्लाह की ख़ुशी के लिए दे देना ‘जकात’ कहलाता है । इससे मन में पवित्रता आती है और उसका उत्तम विकास होता है। इस समय ध्यान रखना चाहिए कि ज़कात का यह मौलिक उद्देश्य केवल इतनी सी बात से प्राप्त नहीं हो सकता कि बस अपनी संपत्ति का एक भाग निकालकर किसी ग़रीब को दे दिया जाए। यह उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकता है जब इस ‘देने’ के पीछे इस मूलोद्देश्य को प्राप्त कर लेने की पूरी नीयत और व्यावहारिक आयोजन किया जाए ।
ज़कात देते समय सबसे महत्त्वपूर्ण और मौलिक बात तो यह है कि केवल अल्लाह की प्रसन्नता की चाह ही उसका प्रेरक हो, किसी और प्रेरणा और उद्देश्य का इसमें कोई दख़ल न हो। पवित्र क़ुरआन (2:272) के अनुसार “तुम अपनी दौलत सिर्फ़ अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए खर्च करते हो। “
पवित्र कुरआन ने सच्चे और आदर्श मुसलमानों की पहचान बताते समय जगह-जगह इस बात को दोहराया है कि वह ज़कात और सदके सिर्फ़ अल्लाह की प्रसन्नता के लिए देते हैं। यही कारण है कि ज़कात को ‘अल्लाह की राह में खर्च करना” भी कहा गया है।
मुख्य बात यह है कि जो ज़कात अदा की जाए वह स्वयं विशुद्ध (हलाल) कमाई में से हो , उसमें भ्रष्ट (हराम) माल का कोई भी अंश नहीं होना चाहिए । जैसे कि पवित्र क़ुरआन 2:267 के अनुसार “ऐ ईमान वालो ! अपनी पाक (विशुद्ध ) कमाई में से ख़र्च करो।”