रमज़ानुल मुबारक में सदक़ा ख़ैरात करने वालों में हो जाती है बढ़ोत्तरी “दिखावे का सदक़ा शिर्क की तरह” डॉ एम ए रशीद नागपुर

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रमज़ानुल मुबारक के दिनों में ज़कात , सदक़ा, ख़ैरात करने वालों की संख्या में इज़ाफ़ा हो जाता है । ज़कात में जो भी चीज़ दी जाए वह अच्छे क़िस्म की हो। रद्दी और ख़राब चीज़ों को इस उद्देश्य के लिए छांटा गया तो यह ज़कात देना न होगा, बल्कि ज़कात का मात्र बोझ उतारना जैसा होगा । उसके प्रति पवित्र क़ुरआन 2:267 में फ़रमाया कि “और (अपने) उस (माल) में से ख़राब चीज़ का ही इरादा न किया करो (ख़ुदा की राह में) ख़र्च करने के लिए।”
फिर यह कि ज़कात लेने वाले पर कोई एहसान न रखा जाए, न उसका दिल दुखाया जाए, न उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई जाए। यदि इस समय ऐसी कोई भी बात हुई तो पूरा का पूरा बेकार हो जाएगा । फिर यह कि रमज़ानुल मुबारक में सदक़ा ख़ैरात करने वालों में बढ़ोत्तरी हो जाती है। लेकिन इस समय ध्यान रखने योग्य बातें हैं, जैसे कि पवित्र कुरआन का 2:264 में फ़रमान है कि “ऐ ईमान
वालो! अपने ‘सदके’ एहसान जताकर और दिल दुखाकर नष्ट न कर दिया करो, उस व्यक्ति की तरह जो अपना धन लोगों को दिखाने के ‘लिए खर्च किया करता है।”
हदीस में आता है कि क़ियामत के दिन तीन आदमी जहन्नम में सबसे पहले जाएंगे। उनमें से एक वह होगा जिसने दुनिया में इसलिए बहुत दान-पुण्य किया होगा कि लोग उसे बड़ा दानशील और दीन-दुखियों पर बड़ा अनुग्रह करने वाला कहें। एक और हदीस में इससे भी अधिक भयावह बात कही गई है कि “जिसने दिखावे के लिए सदक़ा दिया, उसने शिर्क किया।”
ये वे विशिष्ट हिदायतें हैं जिन पर अमल करने के बाद ही ज़कात दिल की पवित्रता और हृदय विकास का साधन बन सकती है। इसमें बड़े पैमाने पर उच्च नैतिक आदेश छुपे हुए हैं । इसमें
सामान्य दान-पुण्य और इस्लामी
ज़कात में बहुत अधिक अन्तर दिखाई देता है। इन परामर्श को देखकर प्रत्येक दानशील इंसान यह महसूस कर सकता है कि ज़कात देते समय मन की स्थिति पर बहुत अधिक सूक्ष्म दृष्टि रखने की आवश्यकता है। यह ऐसी इबादत (उपासना) है जो मन की अनगिनत आपदाओं से घिरी हुई है। इस पर हर ओर से जान लेवा हमलों का ख़तरा बराबर लगा रहता है। यही कारण है कि इस विषय में अल्लाह के सत्यनिष्ठ बन्दों का हाल कुरआन मजीद के 76:8-9 में यह उल्लेख मिलता है कि “…ये लोग अपना खाना मोहताजों, अनाथों और कैदियों को खिलाते हैं, यद्यपि वह (खाना) स्वयं उन्हें अपने लिए प्रिय होता है (और उनसे अपने इस कर्म के द्वारा मूक भाषा में या फिर मुखर रूप से कहते हैं कि ) हम तुम्हें मात्र अल्लाह की प्रसन्नता हेतु खिलाते हैं। तुमसे किसी प्रतिदान या कृतज्ञता के इच्छुक नहीं हैं। “
इसी प्रकार एक अन्य जगह पवित्र क़ुरआन के 23:60 में कहा गया कि
“और ये लोग (अल्लाह की राह में) जो कुछ देते हैं इस दशा में देते हैं कि उनके दिल डरे हुए होते हैं, इस ख़्याल से कि उन्हें अपने रब के पास पलट कर जाना है।
तात्पर्य यह कि किसी गर्व के प्रदर्शन या किसी बड़ाई या किसी दिखावे की भावना या किसी कृतज्ञता की चाह या किसी के दिल दुखाने का क्या सवाल ! ज़कात देते समय मोमिन का दिल तो उल्टा इस आशंका से कांप रहा होता है कि कहीं अन्दर ही अन्दर शैतान कोई शरारत न कर रहा हो। कहीं ऐसा न हो कि कल जब मैं अपने पालनकर्ता के समक्ष उपस्थित होऊं तो पता चले कि मेरा यह देना और खाना खिलाना व्यर्थ हो चुका है। दूसरी ओर इन दान दक्षिणा में विशुद्ध माल ही खर्च किया जाना चाहिए। इस संबंध में हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस प्रकार फ़रमाते हैं कि “लोगो ! अल्लाह पवित्र है और वह मात्र पवित्र धन ही का सदक़ा (दान) स्वीकार करता है।”