मुस्लिम समुदाय को बड़े पैमाने पर ज़कात सेंटर खोलना चाहिए- डॉ एम ए रशीद नागपुर

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जो ज़कात , अदाएगी में अनिवार्य हैसियत रखती हो , उसके इस्तेमाल में रत्ती बराबर भी हेर फेर नहीं होना चाहिए। बहुत से मांगने वाले घर बैठे आ कर ज़कात की मांग करते हैं, बहुत सी परेशानियों का रोना रोते हैं । न ये आप को पहचानते और न आप इनको पहचानते हैं। बस उनकी बातों में आकर ज़कात की अच्छी ख़ासी रक़म दे दी जाती है। ऐसा करना ठीक नहीं। बिना खोज ख़बर किए अनजान लोगों और पेशेवर लोगों को ज़कात नहीं दी जाना चाहिए। ऐसी ज़कात ग़लत हाथों में चली जाती है और ज़रुरतमंद की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पातीं ‌। फिर उसकी क़ुबूलियत का मसला सिर पर सवार बना रहता है। हर एक ज़कात देने वाले को चाहिए कि ज़रूरतमंदों की सूची बना कर रखें और हो सके तो यह सूची धार्मिक संगठनों के हवाले कर दें ताकि वे सही खोज ख़बर कर ज़कात की सामूहिक व्यवस्था को अंजाम दे सकें। इस प्रक्रिया में ज़कात का सही इस्तेमाल होगा , वह ग़लत हाथों में नहीं जा पाएगी।
ऐसी बहुत सी परिस्थितियां ज़कात की आवक , संग्रह को लेकर व्यापक व्यवस्था के लिए हम सब का ध्यान आकर्षित करती है। ऐसी दशा में सोंच समझ रखने वालों को आगे आना चाहिए और निस्वार्थ भाव से इस नेक काम में लगना चाहिए । इस प्रकार मुस्लिम समुदाय को बड़े पैमाने पर ज़कात सेंटर खोलना चाहिए । ऐसे सेटर मोहल्ले की मस्जिदों में शुरू हों तो बहुत अच्छा वरना कुछ मुस्लिम धार्मिक संगठन इस कार्य को बखूबी अंजाम दे रहे हैं। फिर ख़ास बात यह कि ज़कात देने वालों को चाहिए कि इन संगठनों के किसी सदस्यों का इंतजार किए बिना अपनी ज़कात फ़ौरन इन धार्मिक संगठनों के सदस्यों , कार्यालयों के पास जा कर अपनी ज़कात जमा करा देनी चाहिए। वरना वे आप तक पहुंचें और आप आराम कर रहे हों या किसी कारण वश घर से बाहर हों तब इनका भी समय बर्बाद और आपकी ज़कात जमा न हो सकना मसले की बात बनती रहेगी।
हमें यह जानना जरूरी है कि शरीअत ने ज़कात निकालने व खर्च करने के संबंध में विशिष्ट हिदायतें दी हैं। जो सदक़े और दान क़ानून के अंतर्गत नहीं आते , उन्हें तो आप अपने तौर पर जिस तरह चाहें दें और वितरित कर सकते हैं लेकिन क़ानूनी ज़कात के बारे आपको यह आज़ादी हासिल नहीं है। बल्कि जिस तरह नमाज़ को क़ायम करने के लिए इसका जमाअत के साथ अदा किया जाना ज़रूरी है, उसी प्रकार ज़कात की भी एक सामूहिक व्यवस्था स्थापित होना बहुत ज़रूरी है इसलिए कि उसी व्यवस्था के माध्यम से उसे ख़र्च किया जा सकेगा ।
ज़कात के एकत्र करने और वितरित करने की यह एक विशिष्ट व्यवस्था है। कुछ निहित उद्देश्यों और सहूलतों के लिए अपनाई जाती है । इसीलिए ज़कात के लिए ऐसी उच्च सामूहिक व्यवस्था को ज़रूरी ठहराया गया है।
इस्लाम की प्रवृत्ति असाधारण रूप से सामूहिकता और सामाजिकता प्रिय है । उसके अनुयायी एक सुदृढ़ और व्यवस्थित पार्टी के रूप में रहते हैं और जहाँ तक हो सके उनका कोई काम अनुशासन और सामाजिकता से विलग नहीं होता।
दूसरी ओर यह कि ग़रीबों के हित , ‘दीन’ (धर्म) की सुरक्षा और विस्तार के मस्लहतों की सन्तोषजनक रक्षा इसी में हो सकती है,
कहीं मालदारों का यह कर्त्तव्य-बोध कभी ठण्डा न पड़ जाए और उनकी सम्पत्तियों में धर्म और ग़रीबों के हक़ के प्रति वे ग़फ़लत में न आ जाएं। इस ख़तरे का ठीक-ठीक निवारण इसी तरह सम्भव है कि इस हक़ को शरियत की दृष्टि से ज़कात सेंटर बार बार उन्हें ज़कात की सामूहिक अदायगी पर ध्यान दिलाते रहें ।
नमाज़ की इक़ामत चाहती है कि इमामत के लिए मुसलमानों का ख़लीफ़ा या उसका कोई नायब (सहायक) मौजूद हो। ख़ास तौर से जुमा और दोनों ईदों की नमाज़ों की इक़ामत की दशा में। लेकिन ऐसे किसी इमाम के मौजूद न होने का मतलब कभी यह नहीं समझा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में नमाज़ हर व्यक्ति स्वयं ही पढ़ लिया करे बल्कि ज़रूरी समझा गया है कि मुहल्ले और बस्ती के तमाम मुसलमान अपनी एक छोटी-सी और स्थानीय सामूहिक व्यवस्था कायम कर लें ।
मुस्लिम समुदाय मुस्लिम बस्तियों में जिस प्रकार अपनी नमाज़ों के लिए मस्जिदों की , जमाअत की और इमामत की व्यवस्था करती हैं ठीक उसी प्रकार अपनी ज़कातों के लिए भी बैतुल-माल (कोश) स्थापित करना चाहिए और पूरी बस्ती की ज़कातें एकत्र करके उन्हें ज़रूरतमंदों और उसके हक़दारों तक पहुंचाने का प्रबन्ध किया जाना चाहिए । इस प्रकार इस्लाम के इस महत्वपूर्ण स्तम्भ का उद्देश्य पूरा किया जा सकता हो। अगर ऐसा नहू किया गया तो यह एक सामुदायिक ग़लती होगी ।