जुमे की अज़ान से लेकर उसकी नमाज़ तक में ग़फ़लत बरतना ठीक नहीं है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो ख़तीब की बात सुनने वक़्त से पहले ही मस्जिद पहुंच जाते हैं। इत्मीनान से उसकी पूरी बात सुनते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो नमाज़ की आख़री रकाअ़त में शामिल होते हैं। वक्त पर न पहुंच सकने की सूरत में उन का यह अमल धीरे धीरे सुस्ती का शिकार हो जाता है और वह उन्हें आख़री रकाअ़त में ले आता है। वक्त पर हाज़िर रहने के लिए
अबू दाऊद हदीस ग्रंथ में रिवायत है कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जुमे में समय पर हाज़िर रहो और इमाम के करीब रहो क्योंकि इंसान दूर होते होते जन्नत (स्वर्ग) में प्रवेश कर के भी पीछे ही रह जाता है”।
मस्जिद में समय पर पहुंचने कर नमाज़ , ज़िक्र व अज़कार और तिलावते कुरआन जैसी इबादतों और इताअ़त में लगे रहना चाहिए। यहां तक कि इमाम और ख़तीब अपनी जगह पर आ जाएं। जब इमाम अपना पैग़ाम और ख़ुत्बा देने लगे तो उसे ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। इसके बाद नमाज़े जुमा हो तो इमाम के साथ बहुत ही ख़ुशू और ख़ुज़ू के साथ अदा करना चाहिए।
“ख़ुशू और ख़ुज़ू का मतलब यह कि हर चीज़ का एक बाहरी स्वरूप और एक आंतरिक वास्तविकता होती है। स़लाह यानी कि नमाज़ भी एक बाहरी स्वरूप रखती है और उसमें एक आंतरिक वास्तविकता भी होती है। क़ुरआन और सुन्नत की भाषा में नमाज़ की इस आंतरिक वास्तविकता का नाम ख़ुशू और ख़ुज़ू ( विनम्रता ) है।
स़लाह यानी कि नमाज़ में ख़ुशू और ख़ुज़ू (नम्रता) उस स्थिति को संदर्भित करती है जिसमें हृदय भय और शोक़े इलाही में तड़प रहा होता है , उसमें अल्लाह के अलावा कुछ भी नहीं रहता है । उसके अंग शांत होते हैं, शरीर काबा की ओर और हृदय रब्बे काबा की ओर निर्देशित होता है।
अल्लाह तआ़ला का सुरह ज़मर की 23 वीं पंक्ति में इरशाद है कि “अल्लाह ने बेहतरीन कलाम उतारा है। एक ऐसी किताब आपस में मिलती-जुलती, बार-बार दोहराई हुई, इससे उन लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं जो अपने रब से डरने वाले हैं। फिर उनके बदन और उनके दिल नर्म होकर अल्लाह की याद की तरफ़ मुतवज्जह हो जाते हैं। यह अल्लाह की हिदायत है, इससे वह हिदायत देता है जिसे वह चाहता है। और जिसे अल्लाह गुमराह कर दे तो उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं।
मोमिन की पहचान सिर्फ नमाज़ी होना ही नहीं है, बल्कि नमाज़ में इसी ख़ुशू और ख़ुज़ू (विनम्रता ) का इख़्तियार करना भी ज़रूरी है, क्योंकि विनम्रता ही नमाज़ का मूल है और इसके बिना इक़ामाते सलाह की कल्पना और तसव्वुर भी संभव नहीं है। यदि नमाज़ में नम्रता न हो तो यह उस के समान होगी जैसे किसी की आंखें तो हों परन्तु वे देखती न हों और कान तो हों परन्तु वे सुनता न हो । इसलिए नमाज़ की भावना (रुह ) यह है कि शुरू से अंत तक नम्रता भी बनी रहे और दिल उपस्थित भी रहे, क्योंकि नमाज़ का मुख्य उद्देश्य दिल को अल्लाह तआला के ख़ौफ़ के साथ केंद्रित रखने और श्रद्धा (ताज़ीम) की स्थिति बनाए रखने से है। अल्लाह तआला ने पवित्र क़ुरआन की सूरह त़ाहा की 14 वीं पंक्ति में कहा है कि “निस्संदेह मैं ही अल्लाह हूं। मेरे सिवा कोई पूज्य-प्रभु नहीं। अतः तू मेरी बन्दग़ी कर और मेरी याद के लिए आपका नमाज़ क़ायम कर” ।
अबू दाऊद हदीस ग्रंथ में बताया गया है कि हज़रत मुतरिफ़ अपने वालिद साहब से रिवायत करते हैं कि “मैंने अल्लाह के दूत को देखा कि आप सअव नमाज़ अदा फ़रमा रहे थे और आप सअव के सीना अक़दस से रोने की आवाज इस तरह आ रही थी जैसे चक्की चलने की आवाज़ होती है”।
नमाज़ के बाद ज़िक्र व अज़कार करना चाहिए। फिर मस्जिद में चार रकात नफ़्ल नमाज़ पढ़ना या घर पर दो रकअत नमाज़ पढ़ना मसनून है। और इन रकअतों को घर पर पढ़ना पैगंबर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रोशनी में बेहतर है। इसलिए जो कोई शुद्ध इरादे के साथ ऐसा करता है तो वह इस मुबारक दिन की फ़ज़ीलत और सबसे दयालु (अल्लाह) के इनाम पाने का हकदार है। जैसा कि अल्लाह के दूत हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया कि “जो कोई अच्छी तरह से वुज़ू कर के शुक्रवार (जुमा) के लिए मस्जिद में आए और फिर ख़ुत्बा सुने और ख़ामोश रहे तो उसके अगले शुक्रवार तक के पाप माफ कर दिए जाते है साथ ही तीन और दिनों के भी”।(मुस्लिम)
हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाह अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जब तुमने अपने बग़ल वाले साथी से चुप रहो कहा तो तुम ने असंगत , बेतुकी बात कही ” और इमाम अहमद ने हज़रत अली रज़ियल्लाह अन्हु से रिवायत किया कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जिसने इमाम के ख़ुत्बे के दौरान अपने साथी से चुप रहो कहा तो उसने ग़लत किया उसका जुमा नहीं”।
इससे तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति अच्छी तरह से ग़ुस्ल करता है और अव्वल वक्त में पैदल चल कर मस्जिद जाता है, सवारी का इस्तेमाल नहीं करता और अगली सफ़ में इमाम के क़रीब बैठने की कोशिश करता है , ख़ुत्बा बड़े ध्यान से सुनता है और इस दौरान कोई बेहूदा काम नहीं करता, किसी से कुछ कहता नहीं, मस्जिद की चटाई , दरी से खेलता नहीं और न ही अपनी दाढ़ी से और न ही अपने कपड़ों के दामन से खेलता है तो आप स अ़ व ने फ़रमाया कि उसके हर एक कदम पर अल्लाह तआ़ला पूरे एक साल नमाज़ पढ़ने और पूरे एक साल नफ़िल रोज़े रखने का सवाब अता फ़रमाता है। अगर किसी शख्स के मकान से मस्जिद का फ़ासला एक हज़ार क़दम हो तो वह इन अहकाम की पाबंदी के साथ मस्जिद जाता हो तो अल्लाह तआ़ला एक हजार साल नमाज़ पढ़ने और हज़ार साल नफ़िल रोज़े रखने का सवाब अता फ़रमाते हैं ।
जुमे की नमाज़ के लिए अक्सर लोग दूर दराज़ से बड़ी (जामा) मस्जिद में आया करते हैं। पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आज से तक़रीबन 1450 साल पहले ही इन मस्जिदों में पैदल चल कर आने की हिदायत दी थी । उस वक़्त लोगों के पास सवारी के लिए वाहन तो नहीं लेकिन ऊंट और घोड़े ज़रुर थे । अगर लोग ऊंट और घोड़ों पर बैठकर मस्जिद में आते तो पार्किंग व्यवस्था ज़रुर खड़ी हो जाती थी। उन्होंने लोगों को पैदल चल कर आने का हुक्म दिया और हर क़दम पर सवाब भी बताया। प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दूरदर्शिता से आज के समय मस्जिदों में उपजी पार्किंग व्यवस्था को उनके बताए महत्वपूर्ण नुस्ख़े के अनुसार सौ प्रतिशत दूर किया जा सकता है तब जबकि लोग मस्जिद पैदल चल कर आएं ! मस्जिदों की पार्किंग व्यवस्था स्वत: ही नियंत्रित ही जाएगी। मस्जिदें लोगों द्वारा बेतरतीब ढंग से वाहनों को खड़ा करने जैसी समस्याओं से भी मुक्त हो जाएंगी।
अल्लाह के दूत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जुमा को छोड़ने से बड़ी सख्ती के साथ मना किया। इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में वर्णन किया है कि अल्लाह के दूत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “लोगों को जुमा को छोड़ने से बचना चाहिए नहीं तो फिर अल्लाह उनके दिलों पर मुहर लगा देगा और फिर वे सभी ग़ाफ़िलों ( लापरवाह) में से हो जाएंगे”।