अल्लाह ईश्वर के अलावा किसी को भी उसका साझीदार नहीं बनाओ (क़ुरआन के अनुसार शिर्क , अल्लाह के साथ किसी को साझा करना ,बहुदेववाद एक ऐसा पाप है जिसे माफ़ नहीं किया जाएगा)मुस्लिम समुदाय के लिए ईमान से जुड़ी मुख्य बातें- डॉ एम ए रशीद,नागपुर

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मुस्लिम समुदाय के लिए शिर्क , एकेश्वरवाद का विलोम शब्द की हैसियत रखता है । यह ईश्वर अल्लाह से द्रोह का संगीन मामला है । इस्लाम में शिर्क एक पाप है जिसे अक्सर मोटे तौर पर”बहुदेववाद ” के रूप में अनुवादित किया जाता है, लेकिन इसका अर्थ है कि ईश्वर अल्लाह के साथ किसी को जोड़ना । इस्लाम अपने अनुनाईयों को सिखाता है कि ईश्वर अल्लाह अपने दिव्य गुणों को किसी के साथ साझा नहीं करता है। तौहीद के इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार ईश्वर अल्लाह के साथ किसी को भी साझेदार बनना अस्वीकार्य है । क़ुरआन में शिर्क , बहुदेववाद एक ऐसा पाप है जिसे माफ़ नहीं किया जाएगा । पवित्र कुरआन 1 : 4 की इस अनमोल पंक्ति से कौन परिचित न होगा ! जिसमें है कि “हम तेरी ही इबादत ( वंदना) करते हैं और तुझ ही से सहायता चाहते हैं।”


फिर यह कि जो व्यक्ति ईश्वर अल्लाह को एक मानता है उसके लिए अनिवार्य है कि वह ईश्वर अल्लाह के अधिकारों में किसी प्रकार से दूसरे को साझी ठहरा कर उसके गुणों का इन्कार और उसके अधिकारों को रद्द न करे । उदाहरणतः जो व्यक्ति ईश्वर अल्लाह को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का ज्ञाता मानता है, वह किसी और को सिफ़ारिशी मानकर उसके ज्ञान का निषेध न करे । जो व्यक्ति ईश्वर अल्लाह को रहमान व रहीम को स्वीकारता है वह क्षमा , बख़्शिश की आस्था रख कर ईश्वर अल्लाह के न्याय के प्रति कुधारण न रखे । तात्पर्य जिस क्षमा की आस्था मुशरिक अर्थात वह व्यक्ति जो ईश्वर अल्लाह को एक नहीं मानता बल्कि उसके गुणों में औरों को भी सम्मिलित करता है, किसी को

अल्लाह का समकक्ष मानने वाला, बहुदेववादी शाब्दिक रूप से – काफ़िर, कब्र उपासक बहुदेववादी अपने बनाए हुए सिफ़ारिशियों ,अनुशंसा करने वालों के सम्बन्ध में रखते हैं और उस से ईश्वर अल्लाह के गुणों में साझीदारी और उसके ज्ञान के अतिरिक्त न्याय का निषेध भी हो जाता है, वह शिर्क और कुफ्र है। कदापि उचित नहीं है कि इस तरह की सिफ़ारिश का अक़ीदा यानी आस्था फ़रिश्तों और नबियों व सदाचारियों के सम्बन्ध में रखा जाए। क़ुरआन मजीद में इस बात को पूर्णतः स्पष्ट कर दिया गया है कि ईश्वर अल्लाह के यहां किसी की नहीं चलेगी । सब उसके सामने बेबस और सिर झुकाए खड़े होंगे और कोई व्यक्ति अल्लाह की अनुमति के बिना उसके हुजूर में ज़ुबान न खोल सकेगा तथा एक शब्द भी हक़ के विरुद्ध न कह सकेगा और कोई सिफारिश ऐसी न होगी जिससे सत्य, असत्य और असत्य, सत्य बन जाए । अतः नबियों, सदाचारियों और फ़रिश्तों की जो सिफ़ारिश साबित है वह इस मुशरिकाना सिफ़ारिश से बिल्कुल भिन्न है।
इस प्रकार जो अल्लाह को बादशाह मानता है, वह उस की बादशाही में किसी दूसरे का आदेश न माने। जो ईश्वर को निर्लिप्त और पाक मानता है वह पवित्रता को उसके पास पहुंचने का साधन बनाए, न कि साझियों और समकक्षों को। जो व्यक्ति अल्लाह अको सलाम अर्थात् सर्वथा सलामती स्वीकार करता है, वह सुख और परितोष उसी से मांगे। जो उसको शान्ति देने वाला मानता है वह उसी की शरण में जाए। जो उसको विश्वासपात्र कहता है, वह उसी पर भरोसा करे और उसी से मदद मांगे। जो उसको प्रभुत्वशाली और उच्चासीन मानता है, वह उसके आगे सबको समान रूप से बेबस और नतमस्तक माने । जो उसको स्वाभिमानी मानता है, अनिवार्य है कि वह किसी अन्य के सामने सजदा करके उसके स्वाभिमान और बड़ाई को उत्तेजित न करे। जो ईश्वर अल्लाह ही को स्रष्टा, अस्तित्व प्रदान करनेवाला और आकृति देने वाला मानता है, अनिवार्य है कि उसके ज्ञान को सर्वव्यापी और उसकी शक्ति को परिपूर्ण स्वीकार करे ।
न्याय मानव की प्रकृति है और यह न्याय मानव को एक ईश्वर अल्लाह की कृतज्ञता और उसकी बन्दगी पर विवश करता है। न्याय के इस विवेक को कुरआन ने “अहदे-फ़ितरत’ अर्थात “स्वाभाविक प्रण” की संज्ञा दी है और प्रत्येक मनुष्य को इस का उत्तरदायी भी बनाया है। वहीं यह प्रमाण सामान्य प्रमाण के रूप बयान हुआ है और उसमें अरब वासी ही नहीं समस्त मानव जाति सम्मलित है। क़ुरआन ने इसी सिद्धांत से कुछ विशेष प्रमाण भी उध्दृत किए हैं जिन का समर्थन मानव-प्रकृति और अरब-मान्यताओं दोनों से होता है। उदाहरण स्वरूप अरब वासी सम्पूर्ण जगत का स्रष्टा और दाता ईश्वर अल्लाह ही को मानते थे, लेकिन प्रभु-पालनहार और अधिपति में दूसरों को भी सम्मानित कर लेते थे और फिर उनका पद इतना बढ़ा देते कि उन को अल्लाह के बराबर ले जा कर बैठा देते बल्कि अल्लाह से भी अधिक बढ़ा देते थे। क़ुरआन ने उन की इस मान्यता और मानव-प्रकृति की न्याय-प्रियता के आधार पर उन से यह प्रश्न किया कि जब तुम अपने लिए पसंद नहीं करते कि अपने गुलामों और दासों को पद और आजीविका में अपने बराबर का साझीदार ठहराओ तो फिर जिन को ईश्वर अल्लाह की सृष्टि और शासित मानते हो, उन को अल्लाह के अधिकारों और ईश्वर के स्वत्वों में क्यों सम्मिलित करते हो ? जब तुम्हारी यह प्रकृति जिस बात को अपने लिए स्वीकार नहीं करती, उसी चीज़ को प्रतापवान अल्लाह तआला के लिए किस तरह स्वीकार कर लेती है! जबकि अल्लाह के प्रति तो यह सब से अधिक अप्रिय होना चाहिए था। इस सिद्धांत को सामने रखकर पवित्र क़ुरआन की निम्नलिखित पंक्तियों पर चिंतन मंथन करना चाहिए। इनमें यह तर्क विभिन्न तरीकों से उल्लिखित हुआ है कि पवित्र क़ुरआन 16: 71-76 के अनुसार “और अल्लाह ने तुम में से कुछ को कुछ पर रोज़ी में बड़ाई दी है तो वे जिन को बड़ाई प्रदान की गई अपनी रोज़ी अपने गुलामों को नहीं दे देते कि आपस में बराबर हो जाएं। क्या वे अल्लाह के अनुग्रह का इन्कार करते हैं? और अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारी जाति से पत्नियां बनाई और तुम्हारी पत्नियों से तुम्हारे लिए बेटे और पोते पैदा किए और तुम को पवित्र चीज़ों की रोज़ी दी तो फिर क्या ये लोग बातिल (असत्य) पर ईमान लाते हैं? और अल्लाह के अनुग्रह का उन्हें इन्कार है। अल्लाह को छोड़ कर ऐसी चीज़ों की बन्दगी , उपासना , वंदना करते हैं जो उन के लिए आसमान व ज़मीन से कण बराबर भी न रोज़ी पर अधिकार रखती हैं और न अधिकार प्राप्त कर सकती हैं। अतः अल्लाह के लिए मिसालें न घड़ो। ईश्वर अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते। अल्लाह मिसाल , उदाहरण बयान करता है, एक गुलाम की – जो किसी चीज़ पर अधिकार नहीं रखता; और दूसरा उस (स्वतंत्र) व्यक्ति की जिस को हमने अच्छी रोज़ी दे रखी है और वह उस में से खुले और छिपे ख़र्च करता है। बताओ, क्या वे दोनों बराबर होंगे? कृतज्ञता है अल्लाह के लिए बल्कि उन में से प्रायः लोग नहीं जानते। अल्लाह एक और मिसाल बयान करता है दो आदमी की । एक गूंगा है, जो किसी चीज़ की सामर्थ्य नहीं रखता और वह अपने स्वामी पर एक बोझ है, जहां उस को भेजता है कोई काम ठिकाने का कर के नहीं देता। दूसरा आदमी वह है जो न्याय का आदेश देता है और वह स्वयं सीधे मार्ग पर है। बताओ, क्या ये दोनों समान होंगे ?”
तर्क का यह आधार पवित्र क़ुरआन की सूरह 53 की पंक्ति क्र 21-22 में इस पंक्ति में पाया जाता है कि “क्या तुम्हारे लिए लड़के हैं और अल्लाह के लिए लड़कियां ? तब तो यह बहुत बेढ़ंगा और अन्यायपूर्ण बंटवारा है।”
जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ि से रिवायत है कि वे कहते हैं कि रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जो व्यक्ति अल्लाह से ऐसी अवस्था में मिले कि वह उस के साथ किसी को साझी न ठहराता हो तो वह नरक में प्रवेश करेगा ( इमाम मुस्लिम द्वारा वर्णित )
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हमें इस हदीस में सूचित कर रहे हैं कि जो कोई ऐसी स्थिति में मर गया कि उसने किसी को अल्लाह के साथ साझीदार नहीं बनाया, न तो प्रभुत्व में, न देवत्व में, न नामों और गुणों में तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा। और जो कोई ऐसी अवस्था में मर जाए कि वह अल्लाह के साथ किसी को साझीदार ठहराता था तो वह नरक , जहन्नुम में प्रवेश करेगा।