जहां तक मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए ख़्वातीन , महिलाओं के जाने का सवाल है यह सिलसिला दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर रज़ि के समय में टूट चुका है। उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।
अब अगर कोई व्यक्ति यह पूछे कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में औरतें मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ती थीं तो आज उन्हें इस की इजाज़त क्यों नहीं है? तो उसका यह जवाब दिया जाएगा कि जब हज़रत उमर ने मस्जिद में औरतों के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था, तो सभी आदर्श साथियों और सहाबियात (आदर्श महिलाओं) ने इसे स्वीकार कर लिया और इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी। उस समय उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा सिद्दीका और अन्य अज़वाजे मुतहरात जीवित थीं। हज़रत अली और अन्य जलीलुल क़द्र आदर्श साथी भी मौजूद थे। जब सभी ने हज़रत उमर के इस फैसले को स्वीकार कर लिया था तो आज कल के इंसानों की क्या औक़ात कि उस क़ानून को तोड़ कर एक नया फ़ित्ना इजाद किया जाए। इस फ़ित्ने को रोकना सभी सच्चे विश्वासियों ( सही उल अ़क़ीदा) मुसलमानों पर अनिवार्य है।
जवाब : एक मुफ़्ती साहब का यह तहरीर मुझे मेरी उस पोस्ट के जवाब में मिली जिसमें मैंने मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश को उचित ठहराते हुए उनके लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध किए जाने की बात कही है। इस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ग़लत बात को भी कितने आत्मविश्वास और साहस के साथ प्रस्तुत किया जाता है? और कितनी निडरता से शरई तौर पर एक जाइज़ काम को फ़ित्ना क़रार दे कर उससे रोकने और वह काम करने वालों के ख़िलाफ़ मोर्चा बनाने की कोशिश की जाती है?
औरतें नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में न जाएं यह हज़रत उमर रज़ि की इच्छा तो हो सकती है, लेकिन किसी आदर्श साथी की इच्छा, जिसे दीन की सनद , प्रमाणपत्र हासिल न हो वाजिबुल इत्तेबा नहीं है। रही यह बात कि हज़रत उमर रज़ि ने ख़्वातीन को मस्जिद में हाज़री पर प्रतिबंध लगा दिया था और उसे सभी आदर्श साथियों और सहाबियात ने क़बूल कर लिया था और इसका पालन किया जाने लगा था, पूर्णतया मिथ्या , झूठी और ग़ैर तहक़ीक़ी
बिना जाँच-पड़ताल, अनुसंधान के विरुद्ध, बात है।
सहाबियात अर्थात आदर्श मुस्लिम महिलाएं अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के समय में बाद में हज़रत अबू बक्र रज़ि के दौरे ख़िलाफ़त के समय में फिर उसके बाद हज़रत उमर रज़ि के दौरे ख़िलाफ़त में भी बराबर मस्जिदे नबवी में जाती रहीं। हज़रत उमर रज़ि इच्छा के बावजूद उन्हें रोक न सके। मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए जाने वाली आदर्श महिलाओं में हज़रत उमर रज़ि की पत्नी हज़रत आ़तिका बिन्त ज़ैद भी थीं । वह नियमित रूप से मस्जिद जाती रहीं । जब हज़रत उमर रज़ि अपनी पत्नी को मस्जिद जाने से नहीं रोक सके तो अन्य महिलाओं पर कैसे प्रतिबंध लगा सकते थे?
वर्णित है कि किसी ने हज़रत आयशा रज़ि से पूछा कि “जब आपके पति को महिलाओं का मस्जिद में जाना पसंद नहीं है तो आप क्यों जाती हैं?” उन्होंने जवाब दिया: “फिर वे मुझे रोकते क्यों नहीं?” उन्होंने कहा, “फिर वे मुझे रोक क्यों नहीं देते?” पूछने वाले ने कहा कि”उन्हें मालूम है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि अल्लाह की बांदियों (यानी महिलाओं) को अल्लाह के घरों (यानी मस्जिदों) में जाने से मत रोको” (बुखारी: 900)। तब उन्होंने फ़रमाया: “जब तक वे मुझे साफ शब्दों में नहीं रोकेंगे मैं मस्जिद जाती रहूंगी”।
ब्यान किया गया है कि हज़रत आ़तिका बराबर मस्जिद जाती रहीं । जिस दिन फ़जर की नमाज़ में हजरत उमर रज़ि पर क़ातिलाना हमला हुआ उस नमाज़ में नमाज़ में भी वे मस्जिदे नबवी में मौजूद थीं ।
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यह बात भी बिल्कुल ग़लत है कि हज़रत उमर रज़ि के हुक्मे इमतियाज़ी के बाद मस्जिदे नबवी में ख़्वातीन की हाज़री मौक़ूफ़ , रोक दी गई थी। ऐतिहासिक तौर पर साबित है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने से आज तक कभी मस्जिदे नबवी में औरतों का नमाज पढ़ने के लिए जाना नहीं रुका । मस्जिदे नबवी ही नहीं मस्जिदे हराम , मस्जिदे अक़्सा, मस्जिदे उमय्या दमिश्क और अन्य ऐतिहासिक मस्जिदों में औरतों का दाखिला कभी ममनू , रुका नहीं ।
बाद के ज़माने में महज़ अंदेशों के आधार पर महिलाओं को मस्जिद में जाने से रोका जाने लगा और ऐसा माहौल बना दिया गया कि मस्जिद जाने की ख़्वाहिश रखने वाली जो महिलाएं वहां जा भी न सकें। होना तो यह चाहिए था कि मस्जिदें इस तरह बनाई जातीं कि जो महिलाएं वहां जाना चाहतीं जा सकतीं । लेकिन अफ़सोस और दुर्भाग्य कि ऐसा नहीं किया गया। अब समय आ गया है कि महिलाओं को उन अधिकारों से वंचित न किया जाए जो शरीयत ने उन्हें दिए हैं और उन्हें अधिकार दिया है कि वे चाहें तो उस से लाभ और फ़ायदा उठा सकती हैं।
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डॉ. मोहम्मद रज़ीउल इस्लाम नदवी – एक परिचय
——- डॉ एम ए रशीद , नागपुर
डॉ. मोहम्मद रज़ीउल इस्लाम नदवी भारत के प्रसिद्ध लेखक और शोधकर्ता हैं । उनका जन्म 27 मई 1964 को बुलबुल नवाज़ , मौजा राजापुर, जिला बहराईच , उत्तर प्रदेश में हुआ था। आपके पिता का नाम मुहम्मद शफी खान है। आपने माध्यमिक शिक्षा सेंट्रल मदरसा रामपुर से प्राप्त की है। 1975 में वे अपनी उच्च शिक्षा के लिए दारुल उलूम नदवतुल उलमा , लखनऊ चले गए और वहां से उन्होंने 1981 में सार्वभौमिकता और 1983 में उत्कृष्टता की योग्यता प्राप्त की । 1989 में अजमल खान मेडिकल कॉलेज , अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से बीयूएमएस किया। 1993 में एम. डी. की उपाधि प्राप्त की।
रज़ीउल इस्लाम नदवी एक चौथाई सदी से लिख रहे हैं। वे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों और वार्ताओं में भाग लेते हैं । उनके विद्वतापूर्ण और शोध लेख तथा अरबी लेखों के गुणवत्तापूर्ण अनुवाद भारत के बाहर की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। अब तक उनकी 50 से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें संकलन और रूपांतरण और अनुवाद शामिल हैं। उनके बहुत से वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।
रज़ीउलइ स्लाम नदवी लंबे समय से (1994 से 2011) तक भारत के एक शोध संस्थान, इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च एंड ऑथरशिप इस्लामी अलीगढ़ से जुड़े रहे हैं। वर्तमान में वे जमाअ़त ए इस्लामी हिंद की आधिकारिक अकादमी के सचिव और भारत के प्रसिद्ध अकादमिक और शोध त्रैमासिक, जर्नल ऑफ इस्लामिक रिसर्च के प्रधान संपादक हैं।