पवित्र कुरान ही एकमात्र स्रोत है जो हमें सर्वशक्तिमान अल्लाह से सीधा मार्गदर्शन देता है। हमारे अस्तित्व का उद्देश्य क्या है? हमारा अंजाम क्या होगा? अल्लाह से हमारा क्या रिश्ता है? किन सिद्धांतों और नियमों को अपनाकर हम सांसारिक कल्याण , परलोक में निजात यानी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं? इस तरह के कई सवालों में पवित्र कुरआन हमारे मार्गदर्शन का एकमात्र स्रोत है। पवित्र क़ुरआन के अत्यधिक महत्व की बात यह है कि इसके प्रति हमारा दृष्टिकोण सत्य के साधक अर्थात तालिबे हक़ का होना चाहिए। इस मामले में पवित्र कुरआन से हमें बहुमूल्य मार्गदर्शन मिलते हैं । उसमें एक सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उनके छंदों यानी कि आयतों से मुंह न फेरा जाना चाहिए बल्कि इसके साथ स्वीकृति और तस्लीमो रज़ा का दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। व्यक्ति के लिए अपनी भावनाओं , इच्छाओं , पूर्वाग्रहों ,
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सांसारिक प्रेरणाओं और स्वयं की इच्छा के प्रति झुकाव से मग़लूब , अभिभूत होना सामान्य सी बात है, लेकिन वांछित रवैया यह है कि जैसे ही क़ुरआन का ध्यान आए या फिर अल्लाह ने किसी आदेश की ओर इशारा किया हो तो सब कुछ छोड़कर उसकी ओर मुड़ना , पलटन, रुजू होना चाहिए । उसके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। इस बारे में पवित्र कुरआन सुरा ताहा की 124 से 127 पंक्तियों में आदेश करता है कि “और जिस किसी ने मेरी स्मृति से मुँह मोड़ा तो उसका जीवन संकीर्ण होगा और क़ियामत के दिन हम उसे अंधा उठाएँगे। वह कहेगा, ऐ मेरे रब! तूने मुझे अंधा क्यों उठाया, जबकि मैं आँखों वाला था?
वह कहेगा, इसी प्रकार (तू संसार में अंधा रहा था) । तेरे पास मेरी आयतें आई थीं, तो तूने उन्हें भूला दिया था। उसी प्रकार आज तुझे भुलाया जा रहा है।”
यह सोचने की बात है कि जिस मालिक / अल्लाह ने हमें दुनिया में ज़िंदगी बख़्शी है तो हम उस की याद को क्यों कर नज़रअंदाज़ कर सकते हैं । उसकी किताब पवित्र क़ुरआन से क्यों कर ग़ाफ़िल हो सकते हैं! लेकिन मौजूदा स्थितियों में उसकी याद और ग्रंथ से दूर हो कर हमने इस दुनिया के नश्वर जीवन को महत्वपूर्ण समझा है। यदि कोई इसे महत्व देता है तो उसकी आजीविका सीमित और संकीर्ण कर दी जाती है । भले ही उसके पास विलासिता का सामान और धन संपत्ति क्यों न हो । उसका जीवन विलासिता और सुखों से भरपूर तो दिखाई देगा पर उसका दिल और दिमाग सुकून से खाली रहता है। संसार के लोभ, उन्नति की चिन्ता और उसमें कमी के डर से वह हर समय बेचैन रहता है। मौत के डर से धन संपत्ति की चिंता खाई जाती है । अनुभव इस बात की गवाही देते हैं कि कोई भी ईश्वर के कार्यों के बिना या उसके द्वारा इस दुनिया में मन की शांति और वास्तविक संतुष्टि प्राप्त नहीं कर सकता । मजबूर हो कर उसे इस ओर आना ही पड़ता है। सूरा राद की पंक्ति क्र 28 इसी ओर इशारा करती है कि “और उनके दिलों को अल्लाह की चाह से तसल्ली हुआ करती है “।
क़ुरआन से जुड़ने का एक ओर पहलू यह है कि यदि इस पर हमने अपनी आस्था और विश्वास की नींव रख दी तो वह उम्मत का केंद्रीय बिंदु बन जाएगी है और उम्मत बिखरने से बच जाएगी। पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ने इस पुस्तक को अल्लाह की रस्सी के रूप में वर्णित किया है और मुसलमानों को निर्देश दिया है कि वे एक साथ इस रस्सी को मजबूती से पकड़ लें । पवित्र क़ुरआन की सूरा आले इमरान की पंक्ति क्र 1 से 3 में निर्देशित है कि ” और अल्लाह की रस्सी को सब मिलकर मज़बूती से पकड़ और विघटित न हो”।
जब तक हम इसे समझ कर नहीं पड़ेंगे तो उसके इस जैसे अनेक पहलू हमारे सामने नहीं आ पाएंगे । मुस्लिम समुदाय को पवित्र क़ुरआन के इस पहलू को अल्लाह तआला की आज्ञा के रूप में पहचाना जाना चाहिए। इसे एक अनुरोध या एक दलील के रूप में भी माना जाना चाहिए । इस से बढ़कर इस की हैसियत को अनिवार्य आदेश स्वीकार किया जाना चाहिए। मात्र यही आदेश पूरी उम्मत को एक लड़ी में पुरो सकती है और हर प्रकार के मतभेद दूर कर सकती हैं।