इंसान का समाज से गहरा सम्बन्ध होता है और वह समाज का एक अंग बन जाता है। सामाजिक दायित्वों में मानवीय नैतिकताओं की विशेष भूमिकाएं होती हैं। नैतिकता की सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण धारणा वही है जिसमें मानव के व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण का रहस्य निहित हो, जिससे कठिनाइयों सरल हो जाती हों, समस्याओं का अन्त हो जाता हो। परिणाम स्वरूप इंसान का मन-मस्तिष्क को शान्ति और आनन्द प्राप्त हो जाता । धरती पर के अत्याचार और उपद्रव समाप्त हो जाते हैं।
अत्याचार और उपद्रव वर्तमान समय की एक मौलिक समस्या वयक्तिक एवं सामूहिक नैतिक संकट है। आज नैतिकता का ठोस एवं सुद्ध आधार मौजूद नहीं रहा । समाज में इस नैतिकता को एक निरर्थक वस्तु समझ लिया गया है। भौतिकवाद इतना प्रभावी हो चुका है कि मानव में न नैतिक जीवन गुज़ारने की भावना पायी जाती है और न ऐसे प्रेरक तत्व ही मौजूद हैं, जो इन्सान को नैतिक मूल्यों की पैरवी पर तत्पर कर सकें। दूसरी ओर सामाजिक परिस्थितियां भी इतनी विकृत हो चुकी हैं कि नैतिक मूल्यों पर चलना दूभर होता जा रहा है। आज का समाज इनके हनन को आसान बना रहा है और तो और इसके लिए अनुकूल वातावरण भी उपलब्ध हो रहा है।
किसी व्यवस्था के पीछे अपेक्षित नैतिक मूल्य विद्यमान होना चाहिए । इस के अंतर्गत अगर पूँजीवादी व्यवस्था पर नजर डालें तो इसके बारे में विभिन्न विद्वानों ने एक विशिष्ट प्रकार के नैतिक मूल्यों को पूँजीवाद के विकास का जिम्मेदार घोषित किया है। जैसे वित्तीय नीति, कर नीति और सम्पत्ति के सीमांकन की नीति। आप कितनी ही अच्छी योजनाएं बना लीजिए, मगर वे सफल नहीं हो सकतीं, जब तक कि उसके पीछे अपेक्षित नैतिक मूल्य विद्यमान न हों।आज आर्थिक प्रगति एवं जीवन स्तर की उच्चता जिन गुणों पर निर्भर है, उनमें सबसे महत्वपूर्ण धन लोलुपता एवं स्वार्थ है। इनमें और उन नैतिक गुणों में जो आम इन्सानियत को जिन्दगी की नेमतों से भर सकते हैं, विरोधाभास पाया जाता है। इसलिए इन दोनों प्रकार के गुणों के बीच संतुलन एवं सामंजस्य स्थापित करना जरूरी है। मगर अफ़सोस हैं कि समाज में धन लोलुपता और उच्च जीवन स्तर की चाहत प्रबल होती जा रही है और इसके मुकाबले में त्याग की भावना जैसे नैतिक गुण विलुप्त होते जा रहे हैं।
अर्थ-तंत्र के अलावा सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की प्रगति भी नैतिक मूल्यों पर निर्भर है। उदाहरणतः मानव वेग पारस्परिक संबंधों की बुनियाद जब तक आपसी प्रेम एवं सहयोग पर आधारित न हो तो हर प्रगति प्रकोप बन जाती है और सुधार का हर क़दम उपद्रव का कारण बना जाता है। पारिवारिक जीवन सुधार के लिए जो क़दम भी महज़ कठोर क़ानून के रूप में उठाया जाता है, वह न्याय के बजाय स्वयं में जुल्म का बहाना बन जाता है।
औरत सदियों से कमजोर रही है। उसे वे साधन भी उपलब्ध नहीं रहे जो पुरुषों को प्राप्त रहे हैं। इसलिए वह अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए सिर्फ हाथ-पैर मार रही है, लेकिन उन तक पहुंचना उसके लिए बहुत दुष्कर रहा।
स्त्री-पुरुष की समानता तमाम दावों के बावजूद भारतीय महिला आज भी कमजोर और मजलूम है। उसके अधिकारों की प्रदत्तता का कार्य उसी वक्त परिणामजनक हो सकता है, जब एक ऐसा नैतिक वातावरण उत्पन्न किया जाए, जिसमें उसे पुरुषों का अधीन न समझा जाए, जो प्रेम एवं परस्पर सहयोग की भावना को बढ़ावा दे।
क़ुरआन की शिक्षाओं में वैचारिक एवं व्यवहारिक व्यवस्था है। वह विशुद्ध आध्यात्मिक जीवन, यहाँ तक कि इबादतों को भी नैतिकता से जोड़ती है। बल्कि ज़्यादा सही बात यह है कि इसके निकट ईश प्रसन्नता का मार्ग भी नैतिक मूल्यों की निष्ठापूर्ण पैरवी से होकर गुजरता है। वह चरित्र एवं आचरण को मोमिन की जिंदगी में केन्द्रीय हैसियत देती है। वह संसार – त्याग के बजाय सामाजिक जीवन के निर्माण और सुधार को सत्य-धर्म (इस्लाम) का उद्देश्य घोषित करती है। उसने ईशदूत हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के सद्गुण जिस तरह बयान किये हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण है। कुरआन में है कि
“बेशक तुम नैतिकता के उच्च स्तर पर हो।” (कुरआन, 68/4)। एक दूसरी जगह कहा गया है कि”ऐ पैग़म्बर! यह ख़ुदा की बड़ी रहमत है कि तुम उनके लिए बहुत नर्म मिजाज हो। अगर कहीं तुम सख्त मिजाज और संगदिल होते तो ये सब तुम्हारे आसपास से छंट जाते। अतः उन्हें क्षमा कर दो और उनके हक में क्षमा की दुआ करो और दीन के काम में उनसे राय-मशविरा करो और जब अन्म (दृढ़ संकल्प) कर लो तो ख़ुदा पर भरोसा रखो। ख़ुदा को वे लोग पसंद हैं, जो उसके भरोसे पर काम करते हैं।” (कुरआन, 3/159)
सामाजिक नैतिकता को विभिन्न रूपों में धार्मिक जीवन की पहचान एवं इबादत का एक मक़सद बताया गया है। इसे मोमिनों की विशिष्टता बताकर कुरआन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ख़ुदा ने सत्य-धर्म (इस्लाम) को अवतरित किया है, ताकि इसकी शिक्षाओं की पैरवी करके एक ओर इबादत का हक अदा किया जा सके और दूसरी ओर इन्सान के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सुधारा जा सके। कुछ जगहों पर तो इन्सानों के बीच सत्य-न्याय की स्थापना और सद्व्यवहार को इस धर्म को अवतरित करने का उद्देश्य घोषित किया गया। कुरआन हुक्म में है कि “अनाथ (यतीम) पर सख़्ती न करो और साइल (माँगने वाले) को न झिड़को।”(कुरआन, 93/9)
“अल्लाह की बन्दगी करो और उसके साथ किसी को साझी न बनाओ। और अच्छा व्यवहार करो, माता-पिता के साथ, नातेदारों, अनाथों और मोहताजों के साथ, नातेदार पड़ोसियों के साथ और अपरिचित पड़ोसियों के साथ और साथ रहनेवाले व्यक्ति के साथ और मुसाफ़िर के साथ और उनके साथ भी जो तुम्हारे कब्जे में हो अल्लाह ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता जो इतराता और डींगे मारता हो ।” ( क़ुरआन, 4:36)
यह लेख”वर्तमान नैतिक संकट और इस्लाम , नैतिकता का महत्व और आवश्यकता” से संकलित किया गया है।