रमज़ानुल मुबारक पर विशेष”इस्लाम एक परिपूर्ण व्यवस्था”- डॉ एम ए रशीद नागपुर

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रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की दिनचर्या बताती है कि वह एक परिपूर्ण व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है। यह परिपूर्ण व्यवस्था इस्लाम से संबंधित है। जैसे कि अगर यह मान लिया जाए कि इस वक्त रात नहीं है तो इसका अर्थ यह होगा कि इस वक्त ज़रूर दिन ही है। इसलिए जब यह बात स्पष्ट हो गई कि इस्लाम न तो संन्यास (रहवानियत) को सही समझता है और न ही इसका वैयक्तिक जीवन की समस्याओं तक सीमित है । मानवता से सम्बन्धित कोई ऐसी समस्या एवं विषय नहीं जो इसके क्षेत्र से बाहर हो। यह एक ऐसा धर्म है जो हर जगह व्यक्ति के साथ होता है। व्यक्ति जो भी कदम उठाना चाहता है वह इलाम को मार्गदर्शन हेतु अपने सामने मौजूद पाता है । संक्षिप्त रूप में यह कि वह एक ऐसी परिपूर्ण व्यवस्था है जो मानवीय जीवन के आस्था , चिंतन , नैतिकता और व्यवहार सम्बन्धी समस्त पहलुओं को पूरी तरह लिए हुए है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि वायुमण्डल इस भूमि को चारों ओर से अपने आगोश में लिए हुए है। यह एक व्यवस्था का प्रमाण है। इस्लामी व्यवस्था के विविध अंशों की सैद्धांतिक बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि इनमें का हर अंश एक ही केन्द्र से सम्बद्ध है, एक ही सारतत्त्व है जो इन सबके अन्दर दौड़ रहा है। यह ‘केन्द्र’ और ‘सारतत्त्व’ ईमान और धारणाओं पर आधारित हैं, उनमें से विशिष्टता के साथ यह धारणा कि अल्लाह तआला हमारा अकेला पूज्य-प्रभु, असल शासक और वास्तविक विधि-प्रदाता है । वास्तव में यही आधारभूत धारणा वह मूल है जिससे बिलकुल स्वाभाविक शैली में इस्लाम की इस पूरी व्यवस्था और महत्त्व को समझने की ज़रूरत है।
दूसरी बात यह कि इस व्यवस्था की कार्यकुशलता एक ऐसे समाज के अस्तित्व पर निर्भर है जो ‘मुस्लिम’ हो, जिसे अल्लाह और उसके गुणों पर गहरा यक़ीन हो, आख़िरत (परलोक) पर सच्चा ईमान रखता है और अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को दिल से अल्लाह का पैगंबर और आख़िरी नबी स्वीकार करता हो। संक्षेप में यह जो सही अर्थों में इस्लाम का आज्ञानुपालक हो। इसलिए इस व्यवस्था के मूल्य और महत्त्व का अनुमान लगाने के लिए ज़रूरी है कि उसे एक ऐसे ही समाज के साथ सम्बन्ध करके देखा जाए अन्यथा जिस प्रकार एक अच्छे शक्तिशाली बहादुर की कल्पना के बिना किसी अच्छी-से- अच्छे शस्त्र का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता, उसी प्रकार एक अच्छे मुस्लिम समाज की अवधारणा के बिना इस्लामी व्यवस्था के भी व्यावहारिक मूल्य और महत्त्व का सही अनुमान नहीं किया जा सकता।
इस व्यवस्था के विभिन्न हिस्से आपस में सुदृढ़ रूप से जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार कि एक मशीन के विविध पुरज़े परस्पर जुड़े होते हैं। इसलिए दृष्टिकोणीय रूप से समझने के लिए तो उन्हें अलग-अलग ख़ानों में ज़रूर विभाजित किया जाता है किंतु व्यावहारिक रूप में उनका पृथक-पृथक अस्तित्व लगभग असम्भव है। अपनी कार्य क्षमता की दृष्टि से ये समस्त घटक वास्तव में एक एकत्व हैं। इनमें का कोई भी घटक अपना व्यावहारिक गुण उसी वक़्त दिखा सकता है जब यह पूरी व्यवस्था पूर्णरूपेण क्रियाशील हो। इसी प्रकार उसके किसी भी घटक को ठीक-ठीक समझा भी उसी वक़्त जा सकता है, जबकि दूसरे सभी घटक नज़र के सामने हों।