इस्लाम की आर्थिक व्यवस्था रमज़ानुल मुबारक पर विशेष ब्याज लेना और ब्याज देना बिलकुल हराम है …और हराम ही नहीं बल्कि फ़ौजदारी अपराध है ( पवित्र कुरआन) डॉ एम ए रशीद नागपुर

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इस्लाम को जानने वाले लोग यह भी जानते हैं कि उनकी निगाह में इंसान का असल हित उनके परलोक का हित है। उन्हें आख़िरत के लिए ही जीना और उसी के लिए मरना है। फिर मुस्लिम की पहचान ही यह है कि दुनिया पर आख़िरत को प्राथमिकता दे और उसी को अपना वास्तविक ध्यान-केन्द्र बनाए रखे। अलावा इस के उसे किसी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए और न ही इसका मतलब कभी भी यह लेना चाहिए कि इस्लाम संसार की उन बातों को सिरे से कोई महत्त्व ही नहीं देता जो मानव के भौतिक जीवन के लिए अपेक्षित होती और हो सकती हैं। ‘मोमिन ‘ और ‘मुस्लिम’ केवल आत्मा का नाम नहीं है, बल्कि आत्मा और शरीर दोनों के संग्रह का नाम है और एक मुसलमान को इस संसार में अपना फ़र्ज़ पूरा को करने, अपने मिशन को लक्ष्य तक पहुँचाने और अपने पालनहार की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए जो कुछ करना है, उसके लिए शरीर और शारीरिक शक्तियाँ भी ज़रूरत की चीज़ें हैं, उनका इस्तेमाल भी ज़रूरी है। ऐसी स्थिति में वह जीवन-सामग्री भी क्यों आवश्यक न होगी जिसपर शरीर और शारीरिक शक्तियों का अस्तित्व निर्भर है । इसे इंसान की आजीविका एवं जीवन निर्वाह का साधन कहा जाता है। यही कारण है कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि “फ़र्ज़ इबादतों के बाद हलाल (वैध) रोज़ी कमाना भी फ़र्ज़ है ।‌ (बैहक़ी)
इसी तरह कुरआन मजीद में जीवन-सामग्री को जगह-जगह ‘अल्लाह का माल’, ‘पाकीज़ा चीज़ें’, ‘अल्लाह की नेमतें’ और ‘अल्लाह का फ़ज़ल’ कहा गया है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका स्वयं प्राप्त करने की प्रेरणा का उपदेश बुखारी, भाग-1के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका अर्जित करने की कोशिश को एक वैधानिक उत्तरदायित्व समझना चाहिए और किसी पर बनने के बजाय अपनी आजीविका स्वयं अपना पसीना बहाकर हासिल करनी चाहिए। भीख मांगकर अपनी आजीविका चलाना अत्यन्त घृणित कार्य है और जो व्यक्ति भी किसी उचित विवशता के बिना दूसरों के सामने हाथ फैलाता है, वह हराम (अवैध) कमाता और हराम खाता है।
कमाने और ख़र्च करने की अपेक्षित स्वतंत्रता और उन पर आवश्यक प्रतिबन्ध की सीमा में आजीविका प्राप्त करने के समस्त वैध संसाधन हर व्यक्ति के लिए समान रूप से खुले रहेंगे। आर्थिक क्षेत्र में संघर्ष एवं प्रयास करने का सभी को समान अधिकार प्राप्त होगा। यहां एकाधिकार नाम की कोई चीज़ न होगी। व्यापार, दस्तकारी, नौकरी मतलब यह कि आजीविका प्राप्त करने कोई वैध साधन किसी व्यक्ति के लिए निषेध न होगा। हर व्यक्ति अपनी और अपनी रुचि के मुताबिक़ आजीविका – साधन अपनाने में पूर्णतः आज़ाद होगा, क्योंकि इस धरती पर आजीविका के जितने भी साधन हैं , उन सबको अल्लाह ने अपने समस्त बन्दों के लिए ही पैदा किया है, (पवित्र कुरआन 2:20) ।
धन से अतिरिक्त धन निरंकुशता से प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि उन पर कुछ सख़्त नैतिक और क़ानूनी पाबंदियाँ लागू हैं । इस संबंध में मामला करने में दो टूक सच्चाई और ईमानदारी अनिवार्य है। ग्राहक को धोखा देना और उससे अपनी चीज़ का दोष छिपाकर बेच देना, बड़ा भारी गुनाह है। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का फ़रमान है कि “जिसने धोखा दिया वह मेरे लोगों में से नहीं।” ( तिर्मिज़ी, भाग-1 )
अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए झूठी कसमें खाना बड़े गुनाह की बात है। हदीस में आता है कि ऐसा व्यक्ति क़ियामत के दिन अल्लाह तआला की कृपादृष्टि से वंचित रहेगा। (मुस्लिम, भाग-1)
ब्याज का कारोबार, चाहे वह किसी भी रूप में हो, हर स्थिति में मना है। ब्याज लेना और ब्याज देना बिलकुल हराम है (पवित्र कुरआन 2:275) और हराम ही नहीं बल्कि ऐसा फ़ौजदारी अपराध है जिसकी स्थिति इस्लाम से बग़ावत और इस्लामी राज्य के विरुद्ध युद्ध की उद्घोषणा की-सी है। ( पवित्र कुरआन, 2:279)
कोई ऐसा साझे का कारोबार नहीं किया जा सकता, जिसमें एक पक्ष का लाभ तो सुनिश्चित हो, लेकिन दूसरे का अनिश्चित और संदिग्ध हो। इस प्रकार के समस्त कारोबार के मामले ब्याज के कारोबार ही की परिभाषा में आते हैं।
जुआ को हराम और एक अपवित्र कर्म बताया गया है। इससे दूर रहना चाहिए। कुरआन में है कि “ये शराब और जुआ और देवस्थान और पांसे तो गंदे शैतानी काम हैं, अत: तुम इनसे दूर रहो।” (पवित्र कुरआन 5:90)
कारोबार में कोई ऐसा तरीक़ा नहीं अपनाया जा सकता जिससे किसी व्यक्ति या समाज को नुक़सान पहुंचता हो। उदाहरणतः भाव बढ़ाने के लिए आवश्यक जीवन-सामग्री को रोके रखना सख्त मना है। ऐसे व्यापारियों पर लानत व फिटकार लगाई गई है (इब्ने माजा)।
इसी प्रकार मण्डी में आनेवाले व्यापारिक सामान को आगे बढ़कर रास्ते ही में खरीद लेना जाइज़ नहीं है (मुस्लिम, भाग-1)।
किसी शहरी को इस बात की अनुमति नहीं कि वह किसी देहाती का, जो मण्डी में अपना सामान बेचने लाया हो, वकील या ऐजेंट बन जाए और उसका सामान अधिक दामों में बेचने के लिए अपने पास रख ले ( बुखारी, भाग-2)।
व्यवसाय में कोई ऐसा तरीक़ा नहीं अपनाया जा सकता, जिससे दूसरे व्यक्ति या समाज को नुक़सान पहुंचता हो। इसके अंतर्गत भाव बढ़ाने के लिए आवश्यक जीवन सामग्रियों को रोके रखना सख़्त मना है। ऐसे व्यापारियों पर लानत व फिटकार लगाई गई है (इब्ने माजा)। इसी प्रकार मण्डी में आने वाले व्यापारिक सामान को आगे बढ़कर रास्ते ही में ख़रीद लेना जाइज़ नहीं है (हदीस मुस्लिम, भाग -1 ) । और किसी शहरी को इस बात की अनुमति नहीं कि वह किसी देहाती का जो मण्डी में अपना सामान बेचने लाया हो, वकील या ऐजेंट बन जाए और उसका सामान अधिक दामों में बेचने के लिए अपने पास रख ले ( बुख़ारी, भाग-2)।
मोहताजों की सहायता करने के बारे में धनवानों को इस्लाम नैतिक उपदेश सिखाता है। उसके अनुसार धनवानों को आजीविका और धन प्राप्त करने की स्वतंत्रता यद्यपि सभी लोगों को समान रूप से प्राप्त है लेकिन चूंकि पैदाइशी तौर पर समस्त व्यक्तियों को समान रूप से मानसिक और शारीरिक शक्तियां प्राप्त नहीं है बल्कि उनमें बड़ा भारी अन्तर होता है। फिर परिस्थितियां और संयोग भी सबका समान रूप से साथ नहीं दिया करते। ऐसी भी आशाएं नहीं की जा सकतीं कि सभी लोगों के आर्थिक प्रयासों के परिणाम समान और बेहतर ही होंगे। ऐसा देखने में आता है कि समाज के कुछ लोग लाखों के स्वामी बन गए होते हैं तो कुछ को दो वक्त की रोटी भी जुटा पाना असंभव होता है । यद्यपि हर व्यक्ति के लिए जीवन की आवश्यक सामग्रियां, आर्थिक आवश्यकताएं केवल सांसारिक आवश्यकताएं ही नहीं, धार्मिक आवश्यकता भी हैं। दूसरी ओर समस्त मानवजाति की हैसियत इस्लाम यह निश्चित करता है कि वह पूरी की पूरी अल्लाह का ‘परिवार’ है ( बैहक़ी) । अगर हम अपने परिवार को नंगा भूखा देखना पसन्द नहीं करते तो यह कैसे सम्भव है कि अति करुणामय एवं कृपाशील अल्लाह अपने ‘परिवार’ को नंगा भूखा देखना पसन्द करेगा। इन कारणों से इस्लाम पूरा ज़ोर देकर कहता है कि आर्थिक प्रयासों में असफल रह जानेवाले लोगों की ज़रूरतें वे लोग पूरी करें जो इस संघर्ष में सफल हैं । क्योंकि इस संसार में जीवन-यापन का जो सामान अल्लाह तआला ने उतारा है, वह इसके समस्त निवासियों के लिए उतारा है। इसलिए अगर अपनी वित्तीय दौड़-धूप के बाद भी किसी कारण से कुछ लोग अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा कर सकने में सफल नहीं हो पाते और कुछ अपनी ज़रूरत से अधिक कमा लेते हैं तो उनकी यह अधिक कमाई वास्तव में उनकी अपनी ज़रूरत की और अपने अधिकार की चीज़ नहीं होती बल्कि यह वास्तव में दूसरों का हक़ होता है, जो अल्लाह तआला की मर्ज़ी की हिकमत और मस्लहत के अधीन उनके पास पहुंच गया है। मानो उसकी हैसियत एक अमानत की-सी होती है जिसके वे अमीन (अमानतदार) होते हैं। उन अमानतदारों का अनिवार्य कर्त्तव्य होता है कि असल हक़दारों को उनका हक़ और उनकी अमानत पहुंचा दें। ईमान वालों लक्षण बयान करते हुए क़ुरआन मजीद 51:19 में श स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ” …. उनके मालों में मांगने वालों और निर्धनों का हक़ होता है”।
इस्लामी दृष्टि से धनवान होना एक बड़ी परीक्षा ही नहीं है, बल्कि एक खतरनाक उत्पात (फ़ितना) है और सामान्य रूप से यह अति घृणित दुष्परिणाम ही का कारण बनता रहता है। दुष्परिणामों से केवल वही लोग बच सकते हैं जो अपनी दौलत को अल्लाह के मोहताज बन्दों पर और दूसरे धार्मिक कामों में बेझिझक ख़र्च करते रहते हैं। प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक बार फ़रमाया कि “काबा के रब की क़सम ! यही लोग सबसे ज़्यादा घाटे में रहेंगे।” पूछा गया, “ये कौन लोग हैं?” फ़रमाया, “ये दौलत के भण्डार रखने वाले हैं, इनमें से केवल वही लोग इस बुरे अंजाम से सुरक्षित रहेंगे जो अपनी दौलत अल्लाह की राह में बराबर और निरन्तर देते रहते हैं, यद्यपि ऐसे लोग अधिक नहीं होते।” ( बुख़ारी)