संसार के विभिन्न धर्मों ने प्रयत्न किया है कि मानव को जीवनभर वही प्रेम मिले जो उसे इस संसार में आते समय मिलता है । कभी ऐसा न हो कि इस प्रेम को किसी प्रकार के हितों का संघर्ष नष्ट न कर दे।
संसार में आने के बाद बच्चे के प्रति भावनाओं के साथ भावुक सम्बन्धों का मुख्य कारण यही होता है कि वह निर्दोष और सहज स्वभाव के होते हैं। उसका हृदय उन समस्त दूषित भावनाओं से पवित्र होता है जो मानव के बीच दूरी पैदा करती हैं और द्वेष, शत्रुता तथा बिगाड़ का कारण भी बनती हैं। उसका किसी वस्तु पर दावा नहीं होता, उसे किसी से शिकायत या दुश्मनी नहीं होती, वह छल-कपट नहीं रखता, वह किसी चीज़ का स्वामी नहीं होता कि किसी को कुछ दे सके, परन्तु वह प्यार और मुहब्बत दे सकता है, देता है; मुस्कान बिखेर सकता है, बिखेरता है। फिर उससे कोई क्यों न मुहब्बत करे और उससे बैर क्यों रखे ?
समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है। बच्चा भी दिन और रात, महीने और वर्ष तय करता हुआ, बड़ा होता, पलता-बढ़ता हुआ विवेक अवस्था पर आ जाता है, अब उसके विवेक एवं बुद्धि में दृढ़ता आ जाती है और उसके अन्दर अपने व्यक्तित्व का एहसास उभरने लगता है तथा उसमें स्वतंत्र चिन्तन और स्वतंत्रता का दौर शुरू हो जाता है। वह किसी के विचारों का पाबन्द नहीं होता। इस विषय में उसके अपने निकटतम सम्बन्धियों तक से मतभेद शुरू हो जाते हैं। उसकी अपनी भावनाएं होती हैं जिनमें वह किसी भी प्रकार की रुकावट एवं हस्तक्षेप को सहन नहीं करता। वह दूसरों की इच्छाओं का पाबन्द नहीं होता। उसकी अपनी व्यक्तिगत इच्छाएं होती है जो उसे अपने साथ लेकर चलती हैं। उसके अन्दर अपने अधिकारों का एहसास बड़ी तीव्रता से जाग उठता है जिन्हें वह छोड़ने को तैयार नहीं होता। वह अपने हितों की रक्षा हर मूल्य पर करना चाहता है। वह कुछ आगे बढ़ता है , इसी दौरान कभी वह धीरे-धीरे स्वार्थ एवं लोभ का शिकार हो जाता है। इस आग को बुझाने के लिए उसे ग़लत तरीक़े और अवैध उपाय भी अपनाने पड़ते हैं। सत्यनिष्ठा की सम्पत्ति उससे छिन जाती है, फिर उसके कार्य-कलाप निस्स्वार्थ नहीं होते। वह अपने हितों को सामने रखकर अन्य लोगों से सम्पर्क साधता और व्यवहार करता है। उसकी दोस्ती तथा दुश्मनी उसके अधीन होकर रह जाती है। अन्य लोग भी उसे हितों के गुलाम ही की हैसियत से देखते हैं और अपना विरोधी एवं प्रतिद्वंद्वी समझने लगते हैं। इस प्रकार प्रेम, सहानुभूति, सेवा, त्याग और कुरबानी का वातावरण धीरे-धीरे बदलता चला जाता है। कभी-कभी तो भावनाओं का पूरा संसार अस्त-व्यस्त होकर रह जाता है। निकटतम सम्बन्धियों, सगे भाइयों, यहां तक कि माता पिता और संतान के झगड़े एवं उनसे शत्रुता उत्पन्न हो जाती है। मित्रता का स्थान शत्रुता, त्याग का स्थान प्रतिशोध तथा सेवा का स्थान पीड़ा ले लेती है। जो बच्चा प्रेम के फूल बिखेर रहा था वही, बड़ा होकर घृणा की आग बरसाने लगता है तथा जो लोग उसे सीने से लगाए रहते थे, अब उन्हें उसका साथ भी अप्रिय लगने लगता है।
इन्सान के अन्दर अवश्य ही सेवा की भावना मौजूद रहती है परन्तु अपना स्वार्थ, वैयक्तिक एवं सामुदायिक हित और वासनात्मक इच्छाएं उसके इस भावना पर प्रभावी हो जाती हैं । फिर इन्सान को अपने ही जैसे इन्सानों के साथ अत्याचार एवं अन्याय का व्यवहार करने में कुछ भी संकोच नहीं होता। कभी-कभी तो वह हिंसक आचार एवं पशुता के स्तर पर उतर आता है। लेकिन इस्लाम के निकट शुद्ध और सच्चे मन से अल्लाह की इबादत और उससे सम्बन्ध स्थापित करके इंसान इन कमज़ोरियों को नियंत्रित कर सकता है। इसलिए कि मानव-सेवा का सम्बन्ध अल्लाह की इबादत से जुड़ा हुआ है। जिस हृदय में ईश्वर अल्लाह का प्रेम प्रवाहित होता है वह उसके बन्दों के प्रेम से खाली नहीं रह सकता। इस प्रकार जब कोई निर्बल एवं निस्सहाय होता है तो उसकी सेवा की जाती है और वह जब शक्तिशाली हो जाता है तो वह दूसरों की सेवा करने लगता है। इसी तरह जब कोई लाचार एवं अधिकारहीन हो तो उसे सहारा दिया जाए और जब उसके हाथ में अधिकार एवं सत्ता आए तो वह दूसरों का सहारा बन जाए। अर्थात इस जन सेवा में ताकतवरों को कमज़ोरों पर दया दिखाना, अमीरों को गरीबों की मदद करना , पीड़ितों और ज़रूरतमंदों की पुकार सुनना और गरीबों का दर्द बांटना इसके ही अंतर्गत आता है। इस परिप्रेक्ष्य में ईश्वर अल्लाह से इन्सान का सम्बन्ध जितना मज़बूत होगा, बन्दों से भी उसका सम्बन्ध उतना ही मज़बूत होगा ।
इस सम्बन्ध को लेकर इस्लाम ने बेमिसाल भूमिका निभाई है । वह सेवा की भावना से ईश्वर के सम्बन्ध को सुदृढ़ करता है । कुरआन मजीद जब इन्सानों के अधिकार, उनकी सेवा और उनके साथ सद्व्यवहार का वर्णन करता है तो उसके आगे-पीछे अल्लाह की इबादत, उसकी पकड़ का भय या नमाज़ का वर्णन अवश्य करता है। यह इस वास्तविकता का स्पष्टीकरण है कि अल्लाह तआ़ला की इबादत और उससे सम्बन्ध इन्सान के अन्दर अन्य इन्सानों के अधिकार पहचानने और उनकी सेवा करने की भावना को पैदा करता है। इस बारे में कमज़ोर और शिथिलता के कारण इन अधिकारों को पूरा करने में कोताही और लापरवाही अवश्य ही खड़ी होगी। जो व्यक्ति अल्लाह तआला को और उसके रात-दिन के उपकारों को भूल बैठे, वह बड़ी सरलता से बन्दों के उपकारों को भुला सकता है। उसके द्वारा उनके अधिकारों का हनन कुछ भी आश्चर्य की बात न होगी।
क़ुरआन मजीद ने पूरे मानव इतिहास का अनुभव प्रस्तुत किया है कि जो लोग अल्लाह का डर रखते हैं, जो वास्तव में उसकी इबादत करने वाले (उपासक) होते हैं, इन्सानों के साथ उनका व्यवहार भी सहानुभूतिपूर्ण एवं हित-चिन्तन का होता है। वे किसी के अधिकार का हनन नहीं करते, किसी पर अत्याचार नहीं करते तथा अन्याय एवं जुल्म से उनका दामन पाक होता है, बल्कि बिगाड़ की दशा में सुधारवादी भुमिका निभाते हैं। वे किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा बाहरी दबाव के बिना ही मानव-सेवा करते हैं। उनके सामने कोई सांसारिक हित और लोभ नहीं होता, वे उसे ख्याति अर्जित करने एवं नाम कमाने का साधन नहीं बनाते और इस बहाने से लोगों को अपने से निकट करना और उनपर अपना शासन एवं अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना नहीं चाहते, बल्कि उसे एक कर्तव्य समझकर ही उसका पालन करते हैं। वे केवल अल्लाह की प्रसन्नता के इच्छुक होते हैं और उसी से बदले की आकांक्षा करते हैं। उनके शत्रु भी उनकी शिष्टता, संस्कार, नैतिकता, सहानुभूति तथा शुभचिन्तक होने की गवाही देने पर विवश होते हैं। इसके विपरीत जब भी इन्सान अल्लाह के भय से लापरवाह हुआ तो इन्सान के साथ उसका व्यवहार ग़लत हो जाता है, वह न्याय एवं संतुलन से हट जाता है, वह अत्याचार एवं जुल्म की राह अपना लेता है और दूसरों के अधिकारों का हनन करने लगता है। तात्पर्य यह कि हर वह अत्याचार किया जाता है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती ।