इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार सुविधा-प्राप्त लोगों को सुविधा से वंचित लोगों की सेवा करना चाहिए (किसी अभागे के अप्राकृतिक कदम से संपन्न लोगो को सृष्टि रचयिता की पकड़ का सामना करना पड़ सकता है )-डॉ एम ए रशीद,नागपुर

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इस्लाम धर्म ने मानव जाति की सेवा को सर्वोत्तम नैतिकता और सबसे बड़ी इबादत घोषित किया है। इनके बीच एक अंतर यह कि यदि ईश्वर , अल्लाह चाहता तो सभी को सुख-सुविधाओं के साथ अपार धन दौलत , हृष्ट-पुष्ट और स्वास्थ्य प्रदान करता । लेकिन संसार में कुछ ऐसे लोग बसाए गए जिन्हें हर प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त हैं और बहुत से लोग ऐसे भी जो सुख सुविधाओं से वंचित भी हैं। सृष्टि रचयिता के इन दोनों को एक जैसे गुणों से नहीं नवाज़ा । वरना इंसान को जिस उद्देश्य के ख़ातिर पैदा किया गया है वह और परीक्षा का उद्देश्य भी ख़त्म हो गया होता। इसलिए सुख सुविधाओं से वंचित लोगों की सेवा और सहायता करना सुख सुविधा प्राप्त लोगों को ठहराया गया है जिन को अल्लाह ने अपनी कृपा से नवाज़ा है ताकि इंसानों के बीच आपसी स्नेह और प्यार के रिश्ते कायम हो सकें और सहायता करने वालों को भी अल्लाह की ख़ुशी और गुनाहों की माफ़ी मिल सके ।
पवित्र क़ुरआन सुख सुविधा प्राप्त लोगों से मांग करता है कि वे बेबस , सुविधा से वंचित लोगों की सहायता करें । उन्हें हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराएं और उनके जीवन को सुखमय बनाने में उनकी सहायता करें । अल्लाह ने जिस व्यक्ति को देखने के लिए आंख, सुनने के लिए कान , बोलने के लिए ज़ुबान, दौड़-धूप तथा परिश्रम करने के लिए शक्तिशाली हाथ व बाजू, सोचने-समझने के लिए हृदय एवं मस्तिष्क और ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए सुख-सामग्री प्रदान की है, उसका अनिवार्य कर्तव्य है कि जो व्यक्ति लाचार है, जिसको जीवन-साधन प्राप्त न हो और जो जीवन की दौड़-धूप में भाग लेने योग्य न हो उसे असहाय न छोड़ दे कि वह भीख मांगे या आत्महत्या करने के लिए बाध्य हो जाए, बल्कि उसके जीवित रहने का उपयुक्त साधन और उसके सुख एवं चैन की सामग्री उपलब्ध कराए। चूंकि इन्सान को जो कुछ मिलता है वह अल्लाह ही की ओर से मिलता है। इसलिए अल्लाह का आभारी बन कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना चाहिए। इसे प्रकट करने का एक बेहतरीन तरीका यह भी हो सकता है कि उसके बन्दों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाए और जो सेवा के पात्र है उनकी सेवा की जाए। योग्य लोगों की मदद करने का दूसरा तरीका यह भी हो सकता है कि ज़रूरतमंद किसी बेरोज़गार के लिए स्थायी रोजगार प्रदान करने में उसकी मदद की जाए । क्योंकि इस्लाम में भीख मांगना और सवाल पूछना सख़्त वर्जित है और यह पेशेवराना प्रथा पैगंबर साहब को नापसंद थी। दुर्भाग्य से आज मुस्लिम समाज में लोगों ने बड़े पैमाने पर भीख मांगने और सवाल करने को एक पेशे के रूप में अपना लिया है । इसे सभी स्तरों पर हतोत्साहित किया जाना चाहिए और सच्चे हकदारों (सफ़ेदपोश लोगों) को बिना मांगे उनका अधिकार मिलना चाहिए। रमज़ानुल मुबारक में इन पेशेवराना भिखारियों का झुंड का झुंड ज़कात की रक़म हासिल करने में लग जाता है। ऐसे लोगों को ज़कात की रक़म देने से बचना चाहिए। इससे एक ओर हक़दारों को उनका हक़ नहीं मिल पाएगा और दूसरी ओर बिना तहक़ीकात के ज़कात की रक़म ग़लत हाथों में चली जाएगी। सवाल ज़कात की अदाएगी का खड़ा हो जाएगा।
यह सही है कि अल्लाह की प्रदान की हुई प्रत्येक नेमत में उसके बन्दों का हक़ ज़रूर है और उस हक़ को अदा किए बिना उसका आभार प्रकट नहीं हो सकता । अल्लाह की नेमतों को प्राप्त करने के बाद यदि किसी के अन्दर उसकी सृष्टि की सेवा की भावना उत्पन्न न हो तो इसका अर्थ यह निकल कर सामने आता है कि उसका हृदय उन नेमतों के एहसास ही से खाली है। दूसरा यह कि यदि विपत्ति और तंगी में किसी अभागे ने कोई अप्राकृतिक कदम उठाया या भुखमरी का शिकार हुआ तो संपन्न लोगों पर प्राकृतिक आपदा और सृष्टि रचयिता की पकड़ का सामना करना पड़ सकता है।
पवित्र क़ुरआन ने ( 90: 8-20) ने उपरोक्त संबंध में एहसास के अभाव पर कड़ी प्रताड़ना की है और उसके कुपरिणाम से अवगत कराते हुए कहा है कि “क्या हमने उसे दो आंखें और एक ज़ुबान और दो होंठ नहीं दिए और उसको (सत्य और असत्य के) दोनों मार्ग नहीं दिखाए ? लेकिन वह घाटी पर नहीं चढ़ा। तुम जानते हो यह घाटी क्या है? गर्दन का छुड़ाना (गुलाम आज़ाद कराना) या भूख के दिन खाना खिलाना, किसी क़रीबी यतीम (अनाथ) को या दुर्दशाग्रस्त मोहताज को। फिर वह उन लोगों में सम्मिलित हुआ जो ईमान लाए, जिन्होंने एक दूसरे को सब्र की ताकीद की और (इन्सानों के साथ) दया करने की ताकीद की। यही लोग हैं जो (क़ियामत के दिन अल्लाह के) दाईं ओर होंगे। और जिन्होंने हमारी ‘आयतों’ का इन्कार किया वे बाईं ओर वाले हैं। वे चारों ओर से (नरक) की आग में बन्द कर दिए जाएंगे।”
ईश्वर, अल्लाह तआ़ला ने इन्सान पर असंख्य उपकार किए हैं। उपरोक्त आयतों में से कुछ ख़ास उपकारों का उल्लेख है। कहा गया है कि अल्लाह तआ़ला ने उन आंख-कान और हृदय एवं मस्तिष्क की अनुपम शक्तियां इसलिए प्रदान की हैं कि उसे एक दुर्गम घाटी से गुज़रना है, वह है गुलामों को स्वतंत्र करना और यतीमों तथा मोहताजों की सहायता करना। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि वह ईमान वालों में सम्मिलित हो जाए जो व्यवहारिक रूप से उस घाटी को तय कर रहे हैं, जिनके जीवन अल्लाह के मार्ग में सब्र और दृढ़ता के प्रमाण उपलब्ध करा रहे हैं और जो उसकी नसीहत भी कर रहे हैं । उनका व्यवहार, पीड़ितों, अधीनों, भूखों और प्यासों के साथ प्रेम एवं सहानुभूति का है और जो इस सहानुभूति की ताकीद दूसरों को करते हैं और उसका प्रचार करते हैं। यह मार्ग जन्नत (स्वर्ग) का है। इसका विरोध करने वाले जहन्नम (नरक) की ओर बढ़ रहे हैं। वे उसी में पहुंचेंगे फिर उसके द्वार इस प्रकार बंद कर दिए जाने कि वे कभी उससे निकल न सकेंगे।