रोज़ों के साथ ही मुस्लिम समुदाय अल्लाह के प्रत्येक आदेशों की पूर्ति के लिए बाध्य है,डॉ एम ए रशीद नागपुर

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रोज़ों के साथ ही मुस्लिम समुदाय अल्लाह के प्रत्येक आदेशों की पूर्ति के लिए बाध्य है
——– डॉ एम ए रशीद नागपुर
रोज़े अनुशासन सिखाते हैं, अनुशासन का आज्ञापालन से गहरा संबंध है। शब्दकोश के अनुसार इस्लाम का अर्थ ही आज्ञापालन होता है। लेकिन दीन धर्म की परिभाषा में इस शब्द का अर्थ अल्लाह सर्वशक्तिमान की आज्ञाकारिता है और ‘मुसलमान’ वह है जो अल्लाह सर्वशक्तिमान के आदेश के अनुसार रहता है। और उनकी आज्ञा का पालन करता है।
ईश्वर (अल्लाह) के आदेश दो प्रकार के होते हैं, एक प्राकृतिक और दूसरा संवैधानिक अर्थात शरियत से संबंधित।
‘प्राकृतिक आदेश’ ऐसे आदेश हैं जिनका अनिवार्य रूप से पालन किया जाता है उनका उल्लंघन करना असंभव है, ईश्वर के आदेशों का पालन करने के लिए ब्रह्मांड में प्रत्येक चीज़ पैदा ही इस तरह की गई है कि वह उन आदेशों के पालन करने हेतु विवश है। और उसे पैदाइशी तौर पर इस बात की स्वतन्त्रता बिलकुल नहीं प्राप्त है कि चाहे तो उनपर अमल करे और चाहे तो न करे।
सूरज को उसके और इस समस्त संसार के स्वामी का आदेश है कि वह एक नियत समय पर उदय हो और एक नियत समय पर अस्त हो जाए।
पृथ्वी से एक निश्चित दूरी पर रहे और उसमें प्रकाश और ऊष्मा संचारित करे।
सूर्य इन आदेशों के अनुपालन के लिए विवश है। उसे यह शक्ति प्राप्त नहीं कि वह उनके अनुपालन से कभी इन्कार कर जाए। इसी प्रकार जीवों को पालने के लिए वायु को आदेश दिया गया कि वह जीवधारियों को जीवित रखे। पानी को आदेश है कि प्यास बुझाए, अग्नि को आदेश है कि जलाए और मनुष्य को आदेश है कि वह मुख से बोले, कानों से सुने और नाक से सूंघे आदि। ये सभी इस बात के लिए बाध्य हैं कि वे आदेशों की पाबन्दी करें। इसके प्रतिकूल कोई अन्य मार्ग उनके वश में नहीं है। इस प्रकार के आदेशों को प्राकृतिक नियम कहते हैं। ‘वैधानिक आदेश’ अल्लाह तआला के उन आदेशों को कहते हैं जिनकी पैरवी पर प्राणी जन्मजात बाध्य नहीं होता, बल्कि उनकी पैरवी स्वतन्त्र रूप से स्वेच्छापूर्वक होती है। लोग इस बात पर स्वतन्त्र होते हैं कि चाहें तो अमल करें, चाहें तो न करें। जैसे कि इंसान को आदेश है कि वह एक ईश्वर की
बन्दगी करे, किन्तु वह ऐसा करने के लिए पैदाइशी तौर पर विवश नहीं है, बल्कि उसे इस बात का अधिकार दिया गया है कि चाहे तो उसी एक अल्लाह/ ईश्वर की बंदगी करे, चाहे तो उसके साथ हज़ारों को ख़ुदा बना ले और चाहे तो सिरे से ख़ुदा और ख़ुदाई से ही इंकार कर बैठे। इन आदेशों को “संवैधानिक आदेश” या ‘शरीअत के नियम’ कहते हैं।
ये दोनों प्रकार के आदेश समान रूप से अल्लाह ही के आदेश हैं। अल्लाह तआला के आज्ञानुपालन ही का नाम इस्लाम है, इसलिए उनमें से प्रत्येक का अनुपालन के अर्थ की दृष्टि से ‘इस्लाम’ ही होगा। जड़-पदार्थों से लेकर इंसानों और फरिश्तों तक सृष्टि में कोई भी ऐसा नहीं है जो अपने स्रष्टा के अधीन न हो और जिसे प्राकृतिक या संवैधानिक किसी प्रकार के आदेश न दिए गए हों । इस्लाम ईश्वर द्वारा रचित किसी एक रचना का नहीं, बल्कि पूरी सृष्टि का धर्म ठहरता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सृष्टि की उन समस्त चीज़ों का धर्म भी ‘इस्लाम’ ही है, जिन्हें इरादे और अधिकार की स्वतन्त्रता से वंचित रखा गया है और जिनको सिर्फ प्राकृतिक आदेश दिए गए हैं। इसी तरह वे इन आदेशों की पूरी-पूरी पाबंदी को अनिवार्य रूप से करते हैं।
कुरआन (3:83) के अनुसार “क्या ये (सत्य का इन्कार करने वाले) अल्लाह के ‘दीन’ (धर्म) से हटकर, किसी और धर्म के इच्छुक हैं? जबकि वे सब के सब उसी के ” आज्ञानुपालक (मुस्लिम) हैं, जो आकाशों में और पृथ्वी पर हैं….”
कुरआन के इन शब्दों में इस बात के प्रमाण हैं कि आकाशों से लेकर पृथ्वी तक सृष्टि की हर एक चीज़ सत्यधर्म के इन्कार करने वाले इंसानों के सिवा अल्लाह की ‘मुस्लिम’ है और हरेक का धर्म ‘इस्लाम’ ही है।
एक और पवित्र क़ुरआन की पंक्ति (17:44) इसी यथार्थ को दूसरे शब्दों में प्रस्तुत कर रही है कि “सातों आसमान और ज़मीन और वे जो उनमें हैं सब के सब अल्लाह की पवित्रता और उच्चता ब्यान कर रहे हैं। इस जगत की कोई वस्तु भी ऐसी नहीं जो उसकी महिमा के साथ उसका गुणगान न कर रही हो, किन्तु तुम उनके गुणगान को समझते नहीं।”
इसी प्रकार पवित्र क़ुरआन की और पंक्ति ( 22:18) इस ओर संकेत करती है कि “क्या तुमने नहीं देखा कि वास्तव में सभी अल्लाह को सज्दा कर रहे हैं, वे जो आकाशों में हैं और वे जो ज़मीन में हैं और सूरज, और चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और चौपाए और बहुत-से इन्सान।”
इससे ज्ञात होता है कि सृष्टि की एक-दो चीज़ नहीं, अपितु आकाश और ज़मीन, चाँद , सूरज, सितारे और ग्रह, यह हवा और पानी, पेड़ पौधे, नदियाँ और पहाड़, पशु और पक्षी, इन्सान और जिन्न – मतलब यह कि कण से लेकर सूरज तक प्रत्येक छोटे-बड़े, जीवधारी, निर्जीव बुद्धिवाले और बुद्धिहीन अल्लाह का ‘गुणगान’ कर रहे हैं और उसी के आगे नतमस्तक हैं। इस महिमागान और गुणगान का और इस सज्दे का कम से कम इतना अर्थ तो स्पष्ट है ही कि सृष्टि की ये चीज़ें उन आदेशों और नियम की पूरी-पूरी पाबंदी करती रहती हैं जो उनके लिए अल्लाह तआला ने नियत किए हुए हैं । इस प्रकार उसके व्यक्तित्व और गुणों की अपनी खामोश ज़बान में गवाही देती रहती है।

कुरआन ने विभिन्न पंक्तियों से यह बात बिलकुल स्पष्ट कर दी है कि सृष्टि की वे सारी चीजें जो अपने संकल्प और स्वेच्छा से कुछ करने का अधिकार नहीं रखतीं उनका धर्म ‘इस्लाम’ ही है, किन्तु उन्हें जो आदेश दिए गए हैं वे चूँकि प्राकृतिक रुप के हैं, इसलिए उनके इस्लाम का आकार-प्रकार भी ‘प्राकृतिक या जन्मजात’ इस्लाम का होगा और उनको ‘प्राकृतिक या जन्मजात मुस्लिम कहा जाएगा। मौलाना सदरुद्दीन इस्लामी ने बहुत ही अच्छे अंदाज़ में इसे प्रस्तुत किया है।