रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों के हैं बेशुमार लाभ -“मोहम्मद सअ़व इस ज़माने में न किसी कैदी को क़ैद में बाकी रखते और न किसी माँगने वाले को खाली हाथ वापस करते”,डॉ एम ए रशीद नागपुर

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रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों के हैं बेशुमार लाभ —-
“मोहम्मद सअ़व इस ज़माने में न किसी कैदी को क़ैद में बाकी रखते और न किसी माँगने वाले को खाली हाथ वापस करते”
—— डॉ एम ए रशीद नागपुर

यह जानकारी सामने आ गई है कि रोज़ा इन्सान को तक़्वा के वास्तविक जौहर से आभूषित कर देता है । जिस इंसान में तक़्वा का नूर पैदा हो गया तो उससे उसी चीज़ की अपेक्षा की जा सकती है जो अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल.) को पसन्द है। यह वे चीज़ें हैं जिनमें ‘दीन’ (धर्म) की समस्त अभीष्ट वस्तुएँ सम्मिलित हैं। बावजूद इसके बेशुमार गुण और कर्म ऐसे हैं जो रोज़े के संबंध में महत्वपूर्ण फलों की हैसियत रखते हैं।


अल्लाह तआला हमारा वास्तविक शासक है रोज़ा इस धारणा को पूरी तरह विश्वास में बदल देता है। सहरी के समय सहर का समय आया उमा क्षितिज पर प्रभात की सफ़ेद धारी दिखाई देने को है। खाने-पीना रोक लिया जाता है।‌ शाम तक हर प्रकार की खान-पान की इच्छाओं को त्याग कर भूखे-प्यासे रहा जाता है। फिर सूरज अस्त हो गया और रोज़ा समाप्त कर कुछ-न-कुछ अनिवार्य रूप से खा पी लिया जाता है। आज्ञा और आज्ञा पालन का , स्वामित्व और दासता का यह ऐसा असाधारण प्रदर्शन है जिसका उदाहरण शरीअत के किसी कर्म में मिलनी कठिन है। इसमें अल्लाह तआला का अबाध शासक होना, मानो आँखा देखी सच्चाई प्रतीत होती है।
रोज़े का बेमिसाल काम यह कि वह समाज में सहानुभूति और करूणा की लहर को दौड़ा देता है। वह मालदारों को लगातार एक माह तक दीनता का व्यवहारिक अनुभव कराता रहता है। वह उन्हें कम-से-कम तीस बार यह महसूस करता कि रोज़ा और भूख किसे कहते हैं और अल्लाह के उन बन्दों उस समय क्या गुज़रती होगी जो उनमें से ग्रस्त हुआ करते हैं? यह व्यावहारिक अनुभव और ऐसा एहसास स्वभाविक रूप से उनके अन्दर इस भावना को उभार देता है कि अपने गरीब और निर्धन भाइयों को उनके हाल पर न छोड़े । इस प्रकार रोज़ों के दौरान उनमें इंसान के प्रति सहानुभूति और अल्लाह के मार्ग में दान दक्षिणा करने की भावना अत्यधिक बढ़ जाती है। हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रमज़ानु मुबारक के महीने को इसी आधार पर “शहरुलू-मुआसात” (सहानुभूति का महीना) कहा है और प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हाल इस ज़माने में यह हुआ करता था कि “न किसी कैदी को क़ैद में बाकी रखते और न किसी माँगने वाले को खाली हाथ वापस करते। हज़रत इब्ने अब्बास (रजि.) के अनुसार “यद्यपि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सबसे बड़े दानशील व्यक्ति थे, किन्तु रमज़ान के महीने में आप (सल्ल.) की दानशीलता असाधारण सीमा तक बढ़ जाती थी।” (हदीस बुखारी, खण्ड-1)
‘सभी इंसान समान हैं’ रोज़ा इस भावना को अत्यन्त मजबूत कर देता है। इस महीने में उम्मत के सारे लोग धनी और निर्धन, राजा और प्रजा, विशिष्ट और जनसामान्य वर्ग विशेष दशा में दिखाई देने लग जाते हैं। सब के सब अल्लाह की बन्दगी में एक ही स्तर पर खड़े दिखाई देते हैं। सभी के चेहरों से एक ही सर्वोच्च शासक के अधीन होने का और एक समान रूप से अधीन होने का प्रदर्शन हो रहा होता है। यह स्थिति अन्दर से ऊंच-नीच के विचार को निकालकर बाहर कर देती है। इस प्रकार पूरे वातावरण पर सामूहिक रूप से वास्तविक समानता का गहरा रंग छा जाता है।
इन रोज़ों के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह सामाजिकता की अनुभूति को भी शक्ति देता है और मुसलमानों को याद दिलाता रहता है कि तुम सब एक ही मिशन के ध्वजावाहक हो, जिसके लिए आदेश है कि एक ही निर्धारित महीने ( रमज़ान) में रोज़े रखे जाएं। निर्देश है कि प्रभातोदय से थोड़ी देर पहले सहरी खाई जाए और सूर्यास्त होते ही इफ़्तार कर लिया जाए। इस प्रकार रोज़ा रखने का स्वरूप ऐसा बन जाता है कि सभी लोग एक ही निश्चित महीने में एक साथ रोज़ा रखते हैं और लगभग एक ही समय में सहरी खाते और एक ही समय पर इफ़्तार करते हैं। किसी समुदाय के लोगों को सामूहिकता वाला और एक अल्लाह की बन्दगी कराने वालायह असाधारण और बहुत कोमल उपाय है कि उनका खाना-पीना तक एक ही समय के साथ एक ही उद्देश्य के अधीन होता है।