ख़ुत्बा और अ़रबी ज़ुबान की अहमियत मुस्लिम समुदाय के लिए जुमे के आदाब और आचार,डॉ एम ए रशीद ,नागपुर

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जुमे की अहमियत इमाम द्वारा दिए जाने वाले ख़ुत्बे के साथ जुड़ी हुई है। यह ख़ुत्बा अ़रबी ज़ुबान में ख़ुत्बा ए ऊला और ख़ुत्बा ए सानी जैसे दो रूपों में दिया जाता है। पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और ख़ुल्फ़ाए रशीदीन के बाद पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदर्श साथियों ने इस रीत को अपने देशों में भी क़ायम रखा और जहां उनके व्यापारिक संबंध थे वहां भी इस रीत को चलन में लाया । यह भी क़ाबिले ज़िक्र है कि वे अ़रबी ज़ुबान के अलावा दूसरी ज़ुबानों के जानकार और माहिर भी थे। ताबईन तथा तबा ताबईन के समय भी ख़ुत्बे अ़रबी भाषा में ही दिए जाते रहे। मुहद्दीसीन, मुजतहिदीन, फ़ुक़हाए मुतक़द्दिमिन और मुताख़िरिन से यह साबित नहीं है कि जुमे या ईद के ख़ुत्बों को उन्होंने किसी अन्य ज़ुबानों में दिए हों या उसे देने के निर्देश दिए हों । इसीलिए फ़ुक़हाए किराम अर्थात इस्लामी न्यायविदों ने जुमे और ईदों पर अ़रबी के अलावा अन्य भाषाओं में ख़त्बा देने को मकरुह तहरीमी कहा है।अन्य विवरणों से यह ज्ञात होता है कि ख़ुत्बा अ़रबी भाषा में ही दिया जाना चाहिए , इसके विपरीत इसे किसी अन्य भाषा में देना जायज़ भी नहीं है और वह सुन्नत के विरुद्ध भी है।


मौजूदा समय में मस्जिदों के इमाम साहेबान को सलाम कि उन्होंने अ़रबी ज़ुबान में ख़ुत्बे देकर उस रीत को आज तक जारी रखा है , लेकिन अफ़सोस और दुर्भाग्य कि मुस्लिम समुदाय ने अपनी मातृभाषा के साथ साथ अ़रबी ज़ुबान न सीख कर इस ज़िम्मेदारी को अदा नहीं किया।
अ़रबी ज़ुबान में ख़ुत्बे के अलावा उसकी अहमियत के बहुत से पहलू हैं। वाज़ेह रहे कि यह ज़ुबान मज़हबी हैसियत और अहमियत की जुबान रखती है। इसलिए वह इस्लाम की ज़ुबान है , कुरआने मजीद की ज़ुबान है और पैग़ंबरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ुबान भी है। जो लोग उर्दू लिखते बोलते उनकी भी यह ज़रूरत की ज़ुबान है। उर्दू ज़ुबान में सबसे ज्यादा अ़रबी और फ़ारसी के शब्द हैं और अच्छी उर्दू के लिए इन ज़ुबानों के ज्ञान की ज़रूरत पड़ती है। इसके साथ साथ मौजूदा दौर में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापारिक उद्देश्यों के लिए तथा हज को जाने वालों के लिए यह अ़रबी ज़ुबान अपनी बड़ी अहमियत रखती है।
असल ऐतिबार से देखा जाए तो पवित्र क़ुरआन की ज़ुबान अ़रबी ही है। प्यारे नबी रहमतुललिल आलमीन हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ुबान भी अ़रबी ज़ुबान थी। उनके कहे हुए स्वर्णिम कथन जिन्हें हदीस मुबारक कहा जाता है असल में वे भी अ़रबी ज़ुबान में हैं। पवित्र क़ुरआन, हदीस के अलावा बहुत से अ़रबी भाषी ग्रंथों के विश्व की अन्य भाषाओं में अनुवाद ज़रुर किया गया है। इसी तरह हम अपनी इबादतों पर नज़र डालें तो हमारी तमाम इबादतें अरबी ज़ुबान में हैं । सुबह के उठने से लेकर सलातो नमाज़ हो कि सलाम कलाम , तिलावते क़ुरआन हो कि दुआएं सभी अ़रबी जबान में हैं।
इस्लामी अदब की ज़ुबान भी अ़रबी है। मुसलमानों ने अरबी ज़ुबान में कुरआन मजीद , हदीस मुबारक की अनमोल व्याख्याएं लिखी हैं ।
यह पहलू भी विचारणीय है कि विश्व समुदाय में बसने वाले मुसलमान किसी न किसी तौर पर अ़रबी ज़ुबान के साथ जुड़े हुए हैं । दुनिया में कोई ऐसा मुसलमान नहीं होगा जिसकी ज़ुबान पर अ़रबी न हो और उसे उसकी ज़रूरत न पड़ती हो और उससे उसका वास्ता न पड़़ता हो ।
हमारे देश भारत के संबंध सभी अ़रब देशों से बहुत घनिष्ठ हैं । व्यावसायिक क्षेत्र में भी हमारा देश उनसे निर्यात और आयात भी करता है। इसलिए हमारा देश अ़रबी ज़ुबान से परिचित हैं । अ़रबी ज़ुबान सीखने के लिए गुगल के अनुसार नागपुर सहित देश के विभिन्न शहरों में इसे सिखाया भी जाता है। इससे व्यवसायिक तालमेल विकास का रुप धारण किए हुए दिखाई देता है।
जहां तक इस्लामी शिक्षाओं की बात है इसके लिए अ़रबी ज़ुबान का सीखना वह एक इबादत का दर्जा रखती है और यह बाईसे अज्र अमल भी है । इसलिए मुसलमानों के लिये यह मुकद्दस और मकबूल ज़ुबान मानी जाती है ।
अल्लाह तआ़ला ने कुरआने मजीद में फ़रमाया है कि “हमने क़ुरआन मजीद को अ़रबी ज़ुबान में नाज़िल किया ताकि तुम इसको समझ सको”। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “अ़रब से तीन वजह से मोहब्बत करो मैं अ़रबी हूं अल्लाह का कलाम अ़रबी है और जन्नत वालों की ज़ुबान अ़रबी है”।
दूसरी ओर युनाइटेड नेशन दुनिया का सबसे बड़ा सामुदायिक मंच है ।यूनाइटेड नेशन की जो 6 ज़ुबानें स्वीकृत भाषाओं का दर्जा रखती हैं , वैश्विक हैसियत में यूनाइटेड नेशन की कार्यालयीन 6 ज़ुबानों में से एक अ़रबी ज़ुबान भी है । यहां बता दें कि अ़रबी जुबान के साथ-साथ अंग्रेजी, स्पेनिश, चाइनीज, फ्रेंच और रशियन ज़ुबानें यूनाइटेड नेशन की 6 स्वीकृत भाषाएं है ।
जैसे कि ऊपर बताया गया कि अ़रबी जुबान मे दुनिया की जुबानों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ा है। अंग्रेज़ी , स्पेनिश फ्रेंच इन बड़ी जुबानों पर अ़रबी के सकारात्मक प्रभाव पड़े हैं। अनेषणों के आधार पर ओवेषणकर्ताओं ने बताया है कि किस प्रकार अ़रबी का दूसरी भाषाओं पर प्रभाव पड़ा है ! जैसे कि उदाहरण के रूप में अंग्रेज़ी ज़ुबान का अल्फाबेट शब्द अ़रबी ज़ुबान के शब्द अल्फाबाई से लिया गया है। काफी का शब्द अ़रबी के कहवा से , कैमरे का शब्द कुमरा से (कुमरा अर्थ जिस कमरे में एक मुस्लिम वैज्ञानिक ने आंख के संदर्भ से खोज की थी), कपास का शब्द क़ुतन से लिया गया है ।
22 अरब देशों की सरकारी ज़ुबान अ़रबी है , उनमें सऊदी अ़रब , संयुक्त अ़रब अमीरात , क़तर , मिश्र, जार्डन, ट्यूनेशिया , लेबनान जैसे देश शामिल हैं.। इनमें से मिडिल ईस्ट के बहुत से देश अपने व्यवसाय के चलते नौकरी औ रोज़गार के केंद्र समझे जाते हैं।
इस्लाम के नाते मुस्लिम समुदाय को अ़रबी जुबान से बहुत अधिक परिचित होना चाहिए । इतना कि जितना वे अपनी मातृभाषा से संबंध रखते हैं। ऐसा इसलिए कि अ़रबी ज़ुबान मज़हब की ज़ुबान है। मातृ भाषा अर्थात मादरी ज़ुबान तो जाने बगैर हर काम चल सकता है लेकिन मज़हब की ज़ुबान जाने बगैर उसका दीन सही नहीं रह सकता है !
मुस्लिम समुदाय को जितनी अहमियत अ़रबी ज़ुबान को देना चाहिए थी उन्होंने उसे नहीं दी और भारतीय मुसलमान अजमी अर्थात अरबी ज़ुबान न जानने वालों के दर्जे में आ गए । इस प्रकार अजमी लोग अरबी से अपरिचित, न जानने वाले , अनभिज्ञ हो कर रह गए। अब आम मुस्लिमों को उर्दू भाषा के अलावा अ़रबी ज़ुबान को अपनी बोल चाल की भाषा बना लेना चाहिए । इससे उनकी एक ओर व्यवसायिक, रोज़गार की समस्याएं दूर हो सकेंगी तो दूसरी ओर ख़ुत्बों की अहमियत को समझ कर अपने धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करने में वे आगे बढ़ सकेंगे तथा तीसरा यह कि नमाज़ के अंदर अल्लाह से दुआ मांगने पर क़ादिर भी हो सकेंगे ।