मुसलमान वही जो हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शिक्षाओं को स्वीकारे (मुस्लिम समुदाय के लिए कुछ आवश्यक बातें )- डॉ एम ए रशीद, नागपुर

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इस्लाम अपनाने से तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति अपनी जुबान से कह दे कि मैं मुसलमान हूं और अ़रबी भाषा के कुछ अंश बिना सोचे समझे कह दे कि मैं मुसलमान हूं ऐसा कह देने से कोई व्यक्ति मुसलमान नहीं हो सकता । बल्कि मुसलमान हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शिक्षाओं को समझ बूझकर दिल से स्वीकार करने और उस के अनुसार व्यवहार करने वाला होता है । जो उन शिक्षाओं को नहीं अपनाता वह मुसलमान नहीं हो सकता । मुस्लिम समुदाय को हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सभी शिक्षाओं को ज़रूर व्यवहार में लाना चाहिए।


इसलिए इन सभी शिक्षाओं के लिए इस्लाम पहले ज्ञान का नाम है और ज्ञान के बाद व्यवहार का नाम है। एक व्यक्ति ज्ञान के बिना किसी जाति या वर्ग का हो सकता है क्योंकि वह उस जाति में पैदा हुआ है और वह उसी जाति में ही रहेगा। किंतु कोई व्यक्ति शिक्षा के बिना मुसलमान नहीं हो सकता क्योंकि मुसलमान पैदाइश से मुसलमान नहीं हुआ करता , वह ज्ञान से मुसलमान होता है। मुस्लिम समुदाय में प्रत्येक व्यक्ति को यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क्या शिक्षाएं दीं हैं, उन पर ईमान कैसे लाना चाहिए और उन के अनुसार व्यवहार किस प्रकार का होना चाहिए ? उन सभी शिक्षाओं को जान समझ कर ईमान लाने से वह मुसलमान हो सकता है । इस से यह भी स्पष्ट होता है कि अज्ञानता के साथ मुसलमान होना और मुसलमान रहना असंभव है।
किसी मुसलमान का मुसलमान के यहां जन्म लेने से , उस का नाम मुसलमानों जैसा होने से, उसका मुसलमानों की तरह के पहनावे पहनने और स्वयं को मुसलमान कहने से वह मुसलमान नहीं हो सकता। मुसलमान वही जो इस्लाम से भलीभांति परिचित भी हो , सोच समझ कर उस को स्वीकारता भी हो , और वह पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शिक्षाओं को पूरी तरह अपनाता भी हो।
एक नास्तिक और एक आस्तिक अर्थात मुसलमान में अंतर नाम , पहनावे से नहीं बल्कि वास्तव में सही भेद इन दोनों में ज्ञान बोध का होता है। इसलिए नास्तिक वह होता है जिसे यह मालूम ही नहीं कि ईश्वर, अल्लाह से और उसका अल्लाह ईश्वर से क्या संबंध है । नास्तिक को यह भी नहीं ज्ञान होता कि सृष्टि रचयिता के अनुसार सांसारिक जीवन का मार्ग क्या और कैसा है। हम सभी को इस पर चिंतन मंथन करने की आवश्यकता है । यदि एक मुसलमान के बच्चे का भी नास्तिक की तरह की मनोदशा हो तो इस संबंध में हम एक नास्तिक से किन कारणों से उससे भेद करेंगे? इसलिए हमें यह कहने से पहले बहुत अधिक सोचने की आवश्यकता है कि अमुक भी नास्तिक, वह भी नास्तिक और यह मुसलमान , इस्लाम का अनुनाई।
इस्लाम अल्लाह , ईश्वर की सब से बड़ी ईश्वरीय देन और वरदान है जिस पर हम आभार और कृतज्ञता स्पष्ट करते हैं, इस का प्राप्त होना और न होना दोनों बातें ज्ञान पर निर्भर करती हैं। ज्ञान न हो तो यह वरदान व्यक्ति को मिल ही नहीं सकता और अगर थोड़ी-बहुत मिल भी जाए तो अज्ञानता के कारण हर समय यह दुविधा बनी रहेगी कि यह सबसे बड़ा वरदान (ईश्वरीय देन) उसके हाथ से निकल जाएगा और वह अज्ञानता के कारण स्वयं को वह यह समझता रहेगा कि मैं अभी भी मुसलमान हूं , जबकि वह मुसलमान नहीं होगा।
ज्ञान, शिक्षा प्राप्ति के संबंध में मुस्लिम समुदाय के लिए यह बड़े दुःख की बात है कि आजकल उसके पढ़ने में रुचि का स्तर बहुत नीचे जा रहा है और सोचने समझने की प्रवृत्ति जो मानव की सबसे बड़ी विशेषता है लुप्त होती दिख रही है। इस कारण इस्लाम के आदेशों का व्यवहारिक रूप स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा है। आज के समय मुस्लिम समुदाय के लिए इससे बड़ी कोई घटना नहीं हो सकती । जबकि मुस्लिम समुदाय को सर्वप्रथम क़ुरआन के ईश्वरीय संदेश “इक़रा” शब्द (“इक़रा” का अर्थ पढ़ने से है) से परिचित कराया गया था। यह ईश्वरीय संदेश उसे शिक्षा की ओर प्रेरित करता है । इस संगीन हादसे के कारण समुदाय के बीच ऐसे लोग दिखेंगे जो अंधे, बहरे, ज्ञान और बुद्धि से प्रभावित होकर रह गए हैं। जिस समुदाय की ऐसी दशा हो उसका बिगाड़ किस सीमा तक जाएगा और कब रुकेगा यह कहना बड़ा कठिन है।