पैग़म्बर के आदर्श साथियों द्वारा किए गए पुण्य कामों से मुस्लिम समुदाय को प्रेणना लेनी चाहिए (इन्सानों की सेवा और उनकी भलाई का हर प्रयत्न इस्लाम की दृष्टि में इबादत है)- डॉ एम ए रशीद,नागपुर

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“मृष्टि अल्लाह का परिवार है और वह व्यक्ति अल्लाह को अधिक प्रिय है जो उसके परिवार के लिए लाभदायक है।” यह मुस्लिम ग्रंथ की बहुत ही मूल्यवान हदीस है जिसमें पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अल्लाह के अपने सेवकों के प्रति प्यार की अभिव्यक्ति को प्रस्तुत किया है। यह अभिव्यक्ति किसी इंसान का इंसान के साथ स्नेही संबंध और सहयोग को दर्शाती है , जो जन सेवा के अंतर्गत आती है । इससे आगे इस्लाम ने जन सेवा को स्रष्टा की सेवा बताया है। “मृष्टि अल्लाह का परिवार है और वह व्यक्ति अल्लाह को अधिक प्रिय जितना जो उसके परिवार के लिए अधिक लाभप्रद हो।” अल्लाह अपने सेवकों से इतना प्यार करता है कि वह उन्हें अपना परिवार कहता है। अल्लाह के बन्दों की सहायता करना वास्तव में अल्लाह की सहायता करना है, उनके काम आना अल्लाह के काम आना है। यदि आपके सामने अल्लाह का कोई बन्दा हाथ फैलाए और आप उसका हाथ खाली लौटा दें तो मानो आपने अल्लाह के हाथ को खाली लौटा दिया। कोई बीमार आपकी सहायता का मोहताज हो और आपने उसकी सहायता से इन्कार किया तो मानो अल्लाह की सहायता से इन्कार कर दिया। अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए आवश्यक है कि उसके बन्दों को प्रसन्न किया जाए और उन्हें राहत पहुंचाई जाए। आसमान वाला अपनी रहमतें उसी समय उतारता है जब धरती वालों पर दया एवं सहानुभूति का व्यवहार किया जाता है। सहीह मुस्लिम हदीस ग्रंथ के अनुसार हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बड़े ही प्रभावकारी ढंग से यह बयान किया है कि “क्रियामत के दिन अल्लाह तआ़ला इन्सान से कहेगा, ऐ आदम के बेटे ! मैं बीमार पड़ा रहा परन्तु तू मेरा हाल पूछने नहीं आया। इन्सान घबरा कर कहेगा : ऐ मेरे रब ! तू तो सारे जगत का रब है, तू बीमार कब था और मैं तेरा हाल कैसे पूछता ? तब अल्लाह तआला फ़रमाएगा : क्या तू न जानता था कि मेरा फलां बन्दा बीमार था, परन्तु तू उसका हाल पूछने नहीं गया। यदि तू उसके पास जाता तो वहां मुझे पाता। फिर अल्लाह तआ़ला फ़रमाएगा : ऐ आदम के बेटे ! मैंने तुझसे खाना मांगा परन्तु तूने मुझे खाना नहीं दिया। इन्सान कहेगा ऐ सारे जहान के रब ! तू कब भूखा था और मैं तुझे खाना कैसे खिलाता ? अल्लाह फ़रमाएगा : क्या तुझे याद नहीं कि मेरे फलां बन्दे ने तुझ से खाना मांगा था, परन्तु तूने उसे खाना नहीं खिलाया। यदि तू उसकी मांग पूरी करता तो आज यहां उसका अच्छा बदला पाता। इसी प्रकार अल्लाह तआ़ला फ़रमाएगा: ऐ आदम के बेटे ! मैंने तुझ से पानी मांगा, परन्तु तूने मुझे पानी नहीं पिलाया। इन्सान कहेगा : ऐ दोनों जहान के रब ! तू कब प्यासा था और मैं तुझे पानी कैसे पिलाता ? अल्लाह फ़रमाएगा : मेरे फलां बन्दे ने तुझ से पानी मांगा था, परन्तु तूने उस की प्यास बुझाने से इन्कार कर दिया था। यदि तूने उस की प्यास बुझाई होती तो आज यहां उसका अच्छा फल पाता ।”
जनसेवा की श्रेष्ठता तथा महत्व के लिए यह बात बहुत पर्याप्त है कि वह स्रष्टा की सेवा है और इसकी उपेक्षा करना स्रष्टा की सेवा से लापरवाही बरतने के समान है।
इस्लाम इंसान में यह भावना पैदा करता है कि वह इस प्रकार जीवन बिताए कि उस व्यक्तित्व से भलाई के स्रोत फूटें, उसकी शारीरिक और मानसिक योग्यताएं तथा आर्थिक साधन अन्य लोगों के काम आएं।‌ अपनी पहुंच भर वह उनकी भौतिक और नैतिक सहायता करे, वह घर से उपद्रव और बिगाड मचाता हुआ न निकले, बल्कि इन्सानों के शुभचिन्तक और भलाई चाहने वाले के रूप में सामने आए। वह जहां बैंठे शान्ति एवं सुख का सन्देश फैलाता रहे, दूसरों की कठिनाइयों को दूर करे और उनके धार्मिक एवं नैतिक सुधार की कोशिश में लगा रहे ।
इस तरह के तहत एक दिन मजलिस में पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने आदर्श साथियों से सवाल पूछा। उन्होंने पूछा कि “आज किसने जनाज़े (अंतिम संस्कार) में उपस्थिति दर्ज कराई? सैय्यदना अबू बक्र रज़ि ने कहा कि मैंने। आप सअ़व ने कहा कि आज किसने भूखे को खाना खिलाया? सैयदना अबू बक्र रज़ि ने कहा कि मैंने । उन्होंने फिर पूछा कि आज किसने अल्लाह की ख़ुशी के लिए रोज़ा रखा? सैय्यदना अबू बक्र रज़ि ने कहा कि मैंने । आपने एक बार फिर पूछा कि आज कौन मरीज़ (रोगी) से मिलने गया? सैयदना अबू बक्र रज़ि ने कहा कि मैंने । पैग़ंबर ने कहा कि जिस व्यक्ति में ये 4 चीजें सम्मिलित हो जाएं वह स्वर्गवासी है।
पैग़ंम्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कितने ही हसीन अंदाज़ से हम लोगों को किए गए सेवाओं के कामों की महानता से अवगत कराया । पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदर्श साथी इस तरह के अनगिनत नेक और पुण्य कामों को अंजाम देने के लिये एक-दूसरे से आगे बढ़ने में बहुत उत्सुक रहते थे । यह हदीस हम मुस्लिम समुदाय के लिए प्रेणना की स्रोत है , इसलिए कि हम भी आदर्श साथियों द्वारा किए गए पुण्य कामों की ओर आकर्षित हो सकें!
इसके साथ ही इस्लाम ने जन सेवा के साथ ही व्यक्ति को समाज की भौतिक और नैतिक सेवाओं पर भी उभारा है । वह उसके अन्दर उसकी भावना पैदा करता है, इसका अनुमान निम्नलिखित हदीसों से लगाया जा सकता है कि बुखारी और मुस्लिम ग्रंथों के अनुसार हज़रत अबू सईद (रजि०) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने करमाया कि “रास्तों में बैठने से परहेज़ करो।” सहाबा ने अर्ज़ किया कि “इसके बिना तो हमारा काम ही नहीं चलता, यह हमारी बैठकें हैं, इनमें हम बातचीत करते हैं।” आप (सअ़व) ने फ़रमाया कि “यदि तुम बैठना ज़रूरी ही समझते हो तो रास्ते का हक़ अदा करो।” सहाबा ने पूछा कि “रास्ते का हक़ क्या है?” आप (सअ़व) ने फ़रमाया कि “नज़रें नीची रखना, दूसरों को कष्ट देने से बचना, सलाम का जवाब देना, नेकी का आदेश करना और बुराई से रोकना।”
हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत में हदीस के अन्त में शब्द ‘इरशादुस्सबील’ अधिक है, जिसका अर्थ ‘रास्ता दिखाना’ (अर्थात् पूछने वाले को रास्ता बताना) है।
एक रिवायत में है कि “यदि रास्ते में बैठो तो फ़रियाद करने वाले की फ़रियाद सुनो और भटकने वाले को रास्ता बताओ।”
यह हदीस बताती है कि एक मोमिन मुसलमान पर समाज की ओर से जो ज़िम्मेदारियां लागू होती हैं उसका रास्ते और बाज़ार में, सभाओं और महफ़िलों में, हर स्थान पर ध्यान रखना चाहिए। वह स्त्रियों के सतीत्व और शील का रक्षक है। अतः किसी मर्द को किसी औरत पर बुरी नज़र डालने की अनुमति नहीं है। वह दूसरों के कष्ट दूर करने के लिए पैदा हुआ है, उसके व्यक्तित्व से किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए। जैसे आने-जाने में रुकावट डालना, गन्दगी फैलाना, रास्ता चलने वालों से उलझना और गाली-गलौज करना आदि। मार्ग में कष्ट देने के जो भी तरीक़े हो सकते हैं उन सबसे उसका दामन पाक साफ होना चाहिए। यदि कोई उसको अमन और सलामती की दुआ दे (अर्थात सलाम करे) तो उसे तुरन्त उसका उत्तर देना चाहिए, ताकि वह उसकी ओर से इत्मीनान महसूस करे। वह जहां भी बैठे मारूफ यानी नेकी पर लोगों को उभारे और बुराई से रोके। इससे समाज में नेकियों को बढ़ावा मिलेगा और वह बुराइयों से सुरक्षित रहेगा। जब कोई व्यक्ति कोई ग़लत क़दम उठाने का इरादा करेगा तो उसे महसूस होगा कि समाज में उसका प्रतिकार करने और पकड़ने की शक्ति मौजूद है। रास्ते का यह भी हक़ है कि इन्सान गाली-गलौज और कड़वी बात का प्रदर्शन न करे, बल्कि उस की बातचीत के ढंग में शिष्टाचार और पवित्रता पाई जाए और वह प्रत्येक से मधुर शब्द बोले। इस से बाज़ार के बहुत-से झगड़े और हंगामे समाप्त हो सकते हैं।
इस प्रकार इस्लाम ने प्रेरणा भी दी और ताकीद भी की कि समाज का जो व्यक्ति भी किसी के दुख-दर्द में काम आ सकता है, अवश्य काम आए। कोई व्यक्ति भूखा-प्यासा और कपड़ों का मोहताज है तो उसे भोजन, पानी और कपड़े उपलब्ध कराए, वह बेघर है तो उसके लिए मकान का प्रबन्ध करे, वह बीमार है तो उसका उपचार और सेवा सुश्रा करे और अगर वह बेरोज़गार है तो उसे रोज़गार से लगाए। वह अज्ञान और अशिक्षित है तो उसे ज्ञान और शिक्षा से सुसज्जित करे, वह पीड़ित और मज़लूम है तो दूसरों के अत्याचारों से उसकी रक्षा करे । इस भावना को निखारने और संवारने के लिए इस्लाम ने अत्याचार व अन्याय की निन्दा की है । उसकी बुराई स्पष्ट करते हुए इस बात पर बल दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी की कमज़ोरी, दुर्बलता, दरिद्रता और अज्ञानता का लाभ उठाकर उसका शोषण न करे, बल्कि उसे लाभ पहुंचाने और उसके दोष और कमी को दूर करने की कोशिश करे । उसे किसी कष्ट में ग्रस्त देखकर प्रसन्न न हो, बल्कि उसके कष्ट को अपना कष्ट समझे और जिन कष्टों में वह ग्रस्त है उनसे मुक्ति दिलाने में उस की हर संभव सहायता करे। इस प्रकार इस्लाम एक ऐसा समाज उपलब्ध करता है जिसमें अत्याचार के विरुद्ध तीव्र घृणा पाई जाती है और हर ओर न्याय एवं उपकार की भावना का बोलबाला दिखाई देता है।