“रोज़ा” जानते हैं इसके धार्मिक और निहित लाभ रोज़ा है तक़्वे का स्रोत -डॉ एम ए रशीद, नागपुर

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इस्लामी शरीअत में तक़्वा के दो अर्थ बनते हैं, एक डरना और दूसरा बचना। मुख्य उद्देश्य गुनाह से ही बचना है, डर उसकी वजह है, क्योंकि जब दिल में किसी चीज़ का डर होता है, तब ही गुनाह से बचा जाना संभव होता है। इस प्रकार तक़्वा का परिणाम अल्लाह तआला से डरना , और इस डर के कारण सभी प्रकार की बुरी इच्छाओं, पापों और अश्लीलताओं से बचना। तक़्वा (धर्मपरायणता) के विभिन्न स्तर होते हैं। एक तक़्वा (धर्मपरायणता ) यह है कि कुफ़्र (अविश्वास ) और (शिर्क) बहुदेववाद से बचे के लिए है। तक़्वे का दूसरा स्तर नेक कामों को न छोड़ना और निषिद्ध कार्यों को न करना है। इस धर्मपरायणता की पूर्णता के साथ, विश्वास परिपूर्ण बना रहेगा, इसलिए अल्लाह सर्वशक्तिमान ने कहा : “आगाह हो जाओ कि अल्लाह के औलिया पर न कुछ डर है और न वे ग़मगीन होंगे वो ये लोग हैं जो ईमान लाए और तक़्वा करते हैं। उनके लिए ज़िंदगानी दुनिया में भी है और आख़िरत में बशारत है।”
एक अन्य स्थान पर कहा गया कि” बेशक अल्लाह तआला उन लोगों के साथ है जिन्होंने तक़्वा इख़्तेयार किया और वो लोग जो अच्छे काम करते हैं।
“वास्तव में अल्लाह उन लोगों के साथ है जो नेक हैं”।
तक़्वा रोज़ों की दैन है और रोज़ा अल्लाह की बंदगी में इस्लाम का चौथा स्तम्भ माना जाता है। रोज़े का शरीअत में पारिभाषिक नाम ‘सौम’ और ‘सियाम’ हैं । रुकना और ठहरना इसके शाब्दिक अर्थ हैं । इसे सियाम इसलिए कहा जाता है कि इसमें इन्सान सुबह की पौ फटने से लेकर सूरज छिपने तक खाने-पीने और विवाहित जोड़ा संभोग से रुका रहता है।
रोज़े के सिलसिले में व्यापक आदेश और हिदायतें कुरआन और अल्लाह के रसूल मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दी हैं । उनपर नज़र डालने से मालूम होता है कि उसमें बहुत से धार्मिक महत्व और निहित लाभ मौजूद हैं, इनमें से कुछ की हैसियत मौलिक दिखाई देती हैं और कहीं उससे भी आगे बढ़कर विशिष्ट प्रकार की बन जाती हैं। रोज़े को समझने के लिए यह आवश्यक है कि उसके मौलिक और विशिष्ट महत्त्वों , निहित लाभों को अच्छी तरह समझ लिया जाए।
रोज़ा परहेज़गारी , संयम अर्थात तक़्वा का स्रोत – इस्लामी ज़िंदगी में इस तक़्वा का बहुत अधिक महत्त्व है , यही इंसान में ईश-भय का गुण पैदा करता है । रोज़ा इन दोनों का जौहर पैदा करता है। इस सम्बन्ध में कुरआन और हदीस में इस के निर्देश मिलते हैं ।
कुरआन मजीद ने रोज़े के फ़र्ज़ होने की घोषणा करते हुए कहा है कि
“ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर रोज़ा फ़र्ज़ (अनिवार्य) किया गया है, जिस प्रकार कि तुमसे पहले के लोगों पर फ़र्ज़ किया गया था। ताकि तुम्हारे अन्दर तक़वा ( परहेज़गारी ) पैदा हो सके।” (कुरआन, 2:183)
इसी प्रकार नबी (सल्ल.) कहते हैं कि
“रोज़ा (दुनिया में गुनाहों से और आखिरत में दोज़ख़ से बचाने वाली) ढाल है।” (हदीस : मुस्लिम, भाग-1)
“रोज़ा गुनाहों से बचाने वाली ढाल है।” इस वाक्य का अर्थ ठीक वही है जो इस बात की ओर संकेत करता है जिससे कि रोज़ा इन्सान में तक़वे का गुण पैदा करता है। इसी क्रम में आगे और आदेश है कि – “अतः जब तुम में से किसी का रोज़ा हो तो चाहिए कि वह न कोई अश्लीलता की बात करे, न शोर मचाए और अगर कोई उससे गाली-गलौज करने या लड़ने-भिड़ने पर उतर आए तो (उससे भी और अपने जी में भी) कहे कि मैं रोज़े से हूं, मैं रोज़े से हूं।” (हदीस : मुस्लिम, भाग-1)
अभिप्रेत यह कि यद्यपि इंसान के अंदर के दुर्वचन, गाली-गलौज और लड़ाई-झगड़े आदि सभी बुरी हरकतों से बचना एक ईमान वाले के लिए हर हाल में ज़रूरी है, किन्तु जब वह रोज़े से हो तो शान्तिपूर्वक रहने की यह नीति उसके लिए और अधिक आवश्यक हो जाती है।
आम परिस्थितियों में अगर वह इस प्रकार की गलतियों से पूरी तरह बच्चा नहीं रह पाता, तो कम से कम रोज़े की हालत में तो उसे उनके निकट कदापि नहीं जाना चाहिए। पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का यह फ़रमाना वास्तव में इस बात की उद्घोषणा है कि रोज़ा सदाचरण और ईशभव का सर्वमान्य उपाय है और ऐसा उपाय कि जिसकी प्रभाव शक्ति किसी न किसी पहलू से अपने उदाहरण आप है।
इस प्रकार इन स्पष्ट कुरआन की आयतों और हदीसों के प्रमाणों के बाद यद्यपि किसी और दलील की बिलकुल ही जरूरत नहीं, लेकिन दिल के और अधिक इत्मीनान के लिए उचित है कि बुद्धि की दृष्टि से भी इस वास्तविकता का अवलोकन कर लिया जाए और यह समझ लिया जाए कि रोज़े से तक्रवा (ईभय व संयम) क्यों और किसी प्रकार पैदा होता है ?
इस सन्दर्भ में सबसे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि स्वयं यह ‘तक्रवा” क्या चीज़ है? यह जान लेने के बाद ही यह समझा जा सकेगा कि रोज़े से तक़्वा किस तरह पैदा होता है। तक्र्वा अल्लाह की अप्रसन्नता से बचने के उस गहरे एहसास का नाम है, जो व्यक्ति को हर भले काम पर उभारता और हर बुरे काम से रोकता रहता है या इसे यूँ कहिए कि तक्र्वा एक विशिष्ट हृदय-भाव है, जिससे एक विशिष्ट व्यावहारिक आचरण वुजूद में आता है। यह व्यावहारिक आचरण अल्लाह के आज्ञानुपालन और उसकी प्रसन्नता की चाह का आचरण होता है। इस विशिष्ट भाव से जो हृदय परिपूर्ण होता है वह हर वक्त यह देखता रहता है कि मेरा अल्लाह मुझ से नाराज़ न होने पाए। मैं कोई ऐसा बुरा काम न कर जाऊं जिस को वह पसन्द नहीं करता और किसी ऐसे काम के करने से वंचित न रह जाऊं जिसे वह पसन्द करता है।