इस्लाम में सेवा एक नैसर्गिक भावना है (इस्लाम में जनसेवा का तक़ाज़ा है कि किसी भी व्यक्ति से भेदभाव न किया जाए तथा समय पड़ने पर उसकी हर संभव सेवा की जाए)- डॉ एम ए रशीद, नागपुर

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पवित्र क़ुरआन में अल्लाह तआ़ला की इबादत को जहां एक ओर इंसान के चरित्र निर्माण का उद्देश्य इबादत बताया गया है, वहीं दूसरी ओर लोगों की सेवा करना भी इबादत का बेहतरीन अमल बताया गया है। इस सेवा को विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है।
इस्लामी शरीयत के अनुसार किसी बंदे का ईश्वर , अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्ति के लिए वैध मामलों में ईश्वर के प्राणियों के सहयोग को सेवा कहा जाता है। मानव-समाज में वास्तविक सुख-शान्ति व समृद्धि जिन बातों पर निर्भर होती है उनमें इन्सान का एक दूसरे के प्रति ‘कर्तव्य व अधिकार’ का महत्त्व सबसे ज़्यादा है। इतना ही महत्त्व इन दोनों में एक संतुलित सम्मिश्रण का भी है। प्रायः होता यह है कि ‘अधिकारों’ की ही बात और अपेक्षा व मांग की जाती है, कर्तव्यों की बात सर्वथा दबी-दबाई रह जाती है। ‘कर्तव्य’ और ‘अधिकार’ में दो पहलुओं से एक गहरा नाता है। एक किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह व वर्ग को, उसके अपेक्षित व यथार्थ अधिकार मिलने का तक़ाज़ा यह भी है कि इनसे सम्बन्धित कोई व्यक्ति या समूह अपने कर्तव्य भी अवश्य पूरा करे। दूसरा यह कि अधिकार-प्राप्ति कर्तव्य परायणता की शर्त से बंधी हुई है।
विश्व भर में मानव अधिकारों का हनन हो रहा है। इसकी प्रतिक्रिया में अनेकानेक मानव-अधिकार आन्दोलन चल रहे हैं। असंख्य संगठन इस क्षेत्र में कार्यरत हैं। साथ ही साथ यह भी एक कटु सत्य है कि इन विश्व व्यापक प्रयलों और आन्दोलनों के ही अनुपात में मानव-अधिकारों का हनन प्रभावित हो कर क़ाबू से बाहर होता जा रहा है। इस त्रासदी का मूल कारण जानने की यदि गंभीर कोशिश की गई होती तो मालूम होता कि अधिकारों के साथ कर्तव्यों की चर्चा और इस दिशा में यथार्थ प्रयत्न न होना ही इस त्रासदी की असल वजह है।
इस्लाम का दावा है कि वह सम्पूर्ण मानव जाति और समस्त समाज के सारे मामलों में भरपूर रहनुमाई करता है । इसमें बहुत से, सिद्धान्त हैं और निश्चित नियम भी । वह नैतिक व भौतिक हर स्तर पर समस्याओं का निवारण करता और जटिलताओं को सुलझाता है। उसका यह दावा कि वह अपने पास मात्र दार्शनिकता ही नहीं रखता, बल्कि व्यावहारिक स्थलों में अपने साथ मज़बूत दलील व सबूत की शक्ति भी रखता है। मानव अधिकार व कर्तव्य का एक सन्तुलित प्रावधान इस्लाम की बेमिसाल विशेषता है। मुस्लिम समाज की बहुत-सी त्रुटियों, कमज़ोरियों और कोताहियों के बावजूद, उसपर इस्लाम की इस विशेषता का रंग सदा ही छाया रहा है। इतिहास भी इसका साक्षी रहा है और वर्तमान युग में समाजों का तुलनात्मक व निष्पक्ष अवलोकन भी इस बात की गवाही देता है।
इसी तारतम्य में इस्लाम ने जिन विषयों को विशेष महत्त्व दिया है और जिनका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है उनमें ‘जनसेवा’ का एक विषय भी है। उसने जनसेवा पर महत्त्व स्पष्ट किया, उसकी प्रेरणा दी, सेवा की साधारण कल्पना से ही परिचित नहीं कराया बल्कि यह भी बताया कि वे कौन लोग हैं जिनकी सेवा की जानी चाहिए और वे जो हमारे सद्व्यवहार के हक़दार हैं। उसने बताया कि सभी मुसलमान एक समुदाय हैं। उन्हें एक-दूसरे के दुख-सुख में सम्मिलित होना चाहिए, किन्तु उन्हें इस वास्तविकता को भी नहीं भूलना चाहिए कि वे समस्त मानवजाति की भलाई और कल्याण के लिए उत्तरदायी हैं। इस उत्तरदायित्व का तक़ाज़ा है कि किसी भी व्यक्ति से भेदभाव न किया जाए तथा समय पड़ने पर उसकी हर संभव सेवा की जाए। उसने छोटी-बड़ी हर प्रकार की सेवाओं की प्रेरणा दी है ताकि हर व्यक्ति सरलतापूर्वक उनमें अपनी भूमिका निभा सके। इसके साथ कल्याणकारी सेवाओं का महत्त्व उजागर किया गया है। सेवा की भावना जब ग़लत दिशा अपना लेती है तो बड़ा असंतुलन एवं खराबियां उत्पन्न हो जाती हैं।
ईश्वर, अल्लाह की असंख्य सृष्टियों में इंसान उसकी सर्वोत्कृष्ट और श्रेष्ठ सृष्टि है। जब किसी इंसान के घर बच्चे का जन्म होता है तो पूरे घर में प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है, खुशी मनाई जाने लगती हैं, दूर एवं पास के मित्रों की ओर से बधाई सन्देश आने लगते हैं, मां-बाप तथा निकट सम्बन्धी लोग अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार उसकी सेवा में लग जाते हैं। बेजुबान, विवश एवं लाचार बच्चे की भूख-प्यास का ध्यान रखा जाता है, उसके दुख-दर्द को समझने तथा उसको दूर करने का उपाय किया जाता है, दवा-इलाज की आवश्यकता पड़ने पर अपनी हैसियत से पहुंच , दवा , इलाज तुरन्त किया जाता है। उसे साफ़-सुथरा रखने तथा उसकी गन्दगी को दूर करने में कुछ भी अप्रसन्नता एवं घृणा का आभास नहीं होता। थोड़ा बड़ा होने पर उसकी चंचलता, शरारत, शोर और कोलाहल को सहर्ष सहन किया जाता है। कुछ और बड़ा होने पर उसकी शिक्षा-दीक्षा और उन्नति की चिन्ता होती है। प्रयत्न किया जाता है कि उम्र के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएं भी पूरी होती रहें, उसका उचित विकास हो, खूब फले-फूले और भविष्य में सफल जीवन व्यतीत करने के योग्य हो जाए। इन बातों में यदि कोई कमी हो जाए तो उसके चाहने वालों को खेद और दुख होता है।
यही बच्चा यदि किसी धनवान, शासक, पूंजीपति अथवा ज़मींदार का हो तो उसकी सेवा भी उसी स्तर की होती है। उसकी आवश्यकताएं तथा मांगें बड़ी सतर्कता के साथ पूरी की जाती हैं। उसकी साधारण-सी तकलीफ़ पर भी मां-बाप, स्वजन तथा निकटतम सम्बन्धियों के अतिरिक्त सेवकों तथा दाइयों की टीम की टीम गतिशील हो जाती है तथा उसे चैन एवं आराम पहुंचाने का हर संभव प्रयल होने लगता है।
इस सेवा, त्याग और कुरबानी के पीछे यह भावना काम कर रही होती है कि बच्चा हमारा है, हमारा सम्बन्धी और हमारे परिवार का व्यक्ति है। उसके पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा विकास में सहायता करना हमारा कर्तव्य है। यह एक निरी नैसर्गिक मनोवृत्ति है जो इन्सान के अन्तःकरण से उभरती है। प्रकृति इसके द्वारा मानव-जाति की वंश-परम्परा को चालू रखने की व्यवस्था करती है। इसी कारण दुनिया ने इन्सान की इस पवित्र भावना की सदैव प्रशंसा की है। इस भावना का कमज़ोर होना इंसानी नस्ल के लिए बड़ा हानिकारक है। ईश्वर अल्लाह न करे यदि यह भावना लुप्त या विनष्ट हो जाए तो संसार की बहार लुट जाएगी और हर ओर पतझड़ की उदासी छा जाएगी ।