तक़्वा शस्त्र” मनमानी करने पर लगाम लगाता है -डॉ एम ए रशीद नागपुर

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तक़्वे का संबंध सिर्फ रोज़ों की क़ुबूलियत और उनके ख़त्म होने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसका प्रभाव दीन , दुनिया के हर एक सीमाओं पर दिखाई देना चाहिए। दुनिया के नाते अगर किसी चीज़ की चोरी करने से मना किया गया है, घूस – ब्याज आदि के लेनदेन से मना किया गया है, झूठ और धोका देने से मना किया गया है , पोलिस स्टेशन में किसी झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने का मामला हो या फिर कोई अदालती मामला हो या फिर कोई पारस्परिक मामला वहां साक्ष्य को छुपाने के लिए मना किया गया है । यह तक़्वा शस्त्र हर कहीं लागू होगा और उस इंसान को जिसने दिखावटी रोज़े नहीं रखे हैं उसे हर कहीं तक़्वे का प्रदर्शन करना ही पड़ेगा, परिणाम चाहे उस के विरुद्ध क्यों न हो जाए । उसी तरह दीन के मामलों में जहां नमाज़ों का मामला हो जिन्हें छोड़ने के लिए मना किया गया है , ज़कात और विरासत की अदायगी का आदेश दिया गया है, अधिकारों की अदायगी का मामला हो , हर कहीं यह तक़्वा शस्त्र प्रभावी रहेगा , यहां कहीं भी मनमानी की इजाज़त नहीं है”

तक़्वा के संबंध में जब इंसान आगे बढ़ने लगता है तो अल्लाह की अप्रसन्नता से बचने और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने की यह इच्छा और कोशिश इंसान में व्यावहारत: पूरी हो सकती है। स्पष्ट रूप में इच्छा और कोशिश उसी समय पूरी हो सकती है जब इंसान अपने आपको नियंत्रित रखे , अपने मन को मनमानी करने से पूरी तरह रोके रखे । मानो 'तक़वा' का मक़ाम पा लेने का एक मात्र मार्ग यह है कि इंसान अपने मन को लगाम लगाए और अपनी इच्छाओं में उसे स्वतन्त्र न छोड़े ।

जैसा कि कुरआन मजीद की इस आयत (कुरआन 79:40-41) से स्पष्टतः मालूम होता है कि “रहा वह व्यक्ति जिसने अपने दिल में यह भय रखा कि उसे अपने (प्रभु) के सामने खड़ा होना है और उसने अपने मन को बुरी इच्छाओं की पैरवी से रोका, तो निश्चय ही उसका जन्नत ही ठिकाना होगी।
अब रोज़े को देखिए कि वह क्या चीज़ है जिससे इंसान को जहां रुकने का कहा गया है वहां रुक जाता है । इस तरह से रोज़े के मौलिक वैधानिक अस्तित्व तीन बातों पर निर्भर करते हैं है – पौ फटने से सूरज डूबने तक कुछ न खाया जाए, कुछ न पिया जाए और मन की इन अर्थात यह कि खाने, पीने और यौन सम्पर्क इच्छाओं को पूरा करने से पूरी तरह रुका रहा जाए।
इन तीनों चीज़ों को मन की सभी इच्छाओं में जो महत्त्व प्राप्त है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि मन की सभी इच्छाएँ इन्हीं के अन्दर सिमटकर आ गई हैं। मन की किसी ऐसी इच्छा का नाम नहीं लिया जा सकता जो इतनी व्यापक और प्रबल हो, जितने की ये हैं। एक तो स्वयं इनमें ऐसी बड़ी शक्ति है कि वे इन्सान को सरलता से अपने बस में कर लेती हैं। दूसरे वे इच्छाएँ ही नहीं, बल्कि इंसान की स्वाभाविक ज़रूरतें भी हैं। इन्हीं पर इंसान का अस्तित्व भी निर्भर करता । इन्ही से मानवजाति बाकी है। उसे जीवित रहने के लिए खाने-पीने और अपनी नस्ल का क्रम जारी रखने के लिए यौन-सम्बन्ध की हर हाल में आवश्यकता है। इन चीज़ों की यह दोहरी हैसियत इनकी शक्ति और प्रभाव को भी अत्यन्त प्रबल बना देती है , उनका मुक़ाबिला कठिन से कठिल जाता है। रोज़े में इन्हीं तीन सबसे प्रबल इच्छाओं पर रोक लगा दी जाती है , जो निरन्तर एक महीने तक प्रतिदिन बारह-बारह और चौदह-चौदह घंटे तक इंसान अपने मन की इन इच्छाओं पर ताला डाले रहता है। प्यास की तेज़ी से उसके हलक़ में काटे पड़े होते हैं, मुँह से आवाज़ तक अच्छी तरह नहीं निकल पाती, ठण्डा पानी पास रखा रहता है, मन बेक़ाबू होकर उसे होटों से लगा लेना चाहता है किंतु रोज़े से निर्मित “तक़्वा शस्त्र” उसे ऐसा नहीं करने देता और वह बेबस हो कर रह जाता है।
तक़्वे का संबंध सिर्फ रोज़ों की क़ुबूलियत और उनके ख़त्म होने तक ही सीमित नहीं है बल्कि उसका प्रभाव दीन , दुनिया के हर एक सीमाओं पर दिखाई देना चाहिए। दुनिया के नाते अगर किसी चीज़ की चोरी करने से मना किया गया है, घूस – ब्याज आदि के लेनदेन से मना किया गया है, झूठ और धोका देने से मना किया गया है , पोलिस स्टेशन में किसी झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने का मामला हो या फिर कोई अदालती मामला हो या फिर कोई पारस्परिक मामला वहां साक्ष्य को छुपाने के लिए मना किया गया है । यह तक़्वा शस्त्र हर कहीं लागू होगा और उस इंसान को जिसने दिखावटी रोज़े नहीं रखे हैं उसे हर कहीं तक़्वे का प्रदर्शन करना ही पड़ेगा, परिणाम चाहे उस के विरुद्ध क्यों न हो जाए । उसी तरह दीन के मामलों में जहां नमाज़ों का मामला हो जिन्हें छोड़ने के लिए मना किया गया है , ज़कात और विरासत की अदायगी का आदेश दिया गया है, अधिकारों की अदायगी का मामला हो , हर कहीं यह तक़्वा शस्त्र प्रभावी रहेगा , यहां कहीं भी मनमानी की इजाज़त नहीं है।
मनमानी रोकने के लिए लगातार तीस दिनों का यह प्रशिक्षण इन्सान में धैर्य और स्थिरता की ऐसी कुछ शक्ति पैदा कर देता है जो व्यक्ति अपनी इन सबसे अधिक प्रबल और आतुर इच्छाओं को भी एक लम्बी अवधि तक दबाए रखने का अभ्यस्त हो जाता है, उससे आशा यही रखी जाएगी कि वह अपनी दूसरी इच्छाओं को और अधिक सरलता और कामयाबी के साथ अपने वश में रख सकेगा। यह एक ऐसी स्पष्ट वास्तविकता है जिसके मानने से इन्कार नहीं किया जा सकता और इस वास्तविकता को मान लेना वस्तुतः इस बात को मान लेना है कि रोज़ा इन्सान के अन्दर अपने मन को और उसकी समस्त इच्छाओं को नियंत्रित करने की पूरी शक्ति पैदा कर देता है । ऐसी शक्ति जिसको पाकर वह धर्म की पैरवी और अल्लाह के आदेशों के अनुपालन में मन की बुरी इच्छाओं और शैतान के समस्त अवरोधों से खूबी के साथ निपट सकता है। अर्थात् वह सही अर्थों में एक ईशपरायण और संयमी मानव बन जाता है।
इसके अतिरिक्त एक कारण और भी है जिससे रोज़े तक़वा (संयम) का असाधारण साधन सिद्ध होते हैं। इसकी ओर स्वयं हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इन शब्दों में स्पष्टत: संकेत किया है कि “रोजे में दिखावा नहीं हुआ करता।” (फ़तहुल बारी, भाग-4, पृ. 91 )

किसी इबादत में दिखावे का न होना इस बात की सबसे बड़ी ज़मानत है कि वह बन्दे को ख़ुदा के क़रीब करनेवाली है और यह कि ऐसी इबादत से अधिक ईशपरायणता का विश्वसनीय स्रोत और कोई नहीं हो सकता। ग़लत न होगा अगर उसे तक़वा की सबसे अधिक शक्तिदायक खुराक कहा जाए। ख़ुदा के रसूल (सल्ल.) के अनुसार जब रोज़े का यह एक स्थाई गुण है कि उसमें दिखावा नहीं हो सकता तो उसके तक़्वा का अत्यन्त प्रभावशाली साधन होने में क्या सन्देह किया जा सकता है ? अगर वे इबादतें जिनमें दिखावे की सम्भावना होती रहती है, उनके द्वारा भी इनूसान तक़्वा की दौलत से मालामाल हो सकता हो तो कोई सन्देह नहीं कि इस इबादत (रोज़ा) के द्वारा ऐसा ज़रुर ही होगा जो दिखावे के रोग से पवित्र ही रहती है।