क़ुरआन” रोज़ों के तक़्वे से क्या लेनदेन करना चाहता है – डॉ एम ए रशीद नागपुर

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क़ुरआन की इच्छा है कि रोज़ों के साथ क़ुरआन का पठन अधिक से अधिक सोंच समझ कर किया जाए । जिस का पहला रमज़ान है उसे चाहिए कि बड़े इत्मीनान के साथ रोज़े रखे , सोंच समझ कर पवित्र क़ुरआन का पठन करे । इसके साथ रोज़ों के आदेशों की पूर्ति भी तन मन से करते रहे । ऐसा करने से उसमे तक़्वे के गुण पैदा होने लगेंगे। यह गुण पूरे साल बने रहना चाहिए। फिर जब दूसरा , तीसरा रमज़ानुल मुबारक का महिना आए तो उसमें मौजूद तक़्वा और मज़बूत होने लगता है। उस पर तक़्वे का ठप्पा लग जाता है। वह सदाचारी और आदर्श इंसान बन जाता है। उदाहरण स्वरुप यदि जब कभी इस इंसान का चलते में किसी को उसका पैर क्या लग गया हो वह उससे बिना माफ़ी तलाफ़ी वहां से हट नहीं सकता, धोके से किसी को उसकी लाठी लग गई हो तो वह ख़ुद कितना ही अमीर क्यों न हो उस इंसान से वह अपना बदला लेने को ज़रुर कहेगा। जब क़ुरआन इस तरह के इंसान तैयार करना चाहता हो और समाज में ऐसे तक़्वे वालों का हुजूम हो तो ये लोग हर बेबस लाचार इंसानों की सेवा में रात दिन हाज़िर रहेंगे और इंसानियत को मरने नहीं देंगे। क़ुरआन का यह लेनदेन इंसान को जब अल्लाह अपना महबूब बंदा बना लेता है तत्पश्चात ये अनोखे गुण तक़्वा वाले इंसानों में दिखाई देने लगते हैं ।


इस लिए बार बार कहा जाता है कि रोज़े में दिखावा नहीं होना चाहिए । तहेदिल से रोज़े रखे जाने चाहिए। यह बात कि रोज़े में दिखावा क्यों नहीं हो सकता ? राज़ की बात नहीं है, बल्कि आसानी से समझ में आ जाने वाली सच्चाई है। सभी जानते हैं कि रोज़ा एक ऐसी इबादत है जो सर्वथा निषेधात्मक है। यानी उसका आविर्भाव कुछ कर्म या क्रियाओं के करने से नहीं होता (जैसा कि नमाज़ और ज़कात और हज का हाल है) बल्कि कुछ कामों के न करने से वह वुजूद में आता है। ज़ाहिर बात है कि इस तरह की इबादत दूसरों के न देखने में आ सकती हों , न सुनने में। जब किसी इबादत का हाल यह हो कि उसे कोई न देख सकता हो, न सुन सकता हो तो उसमें दिखावे की कोई सम्भावना उत्पन्न ही नहीं हो सकती । इसलिए इस्लाम के सारे अरकान (स्तंभों) में यह विशिष्टता केवल इस ‘रोज़े’ ही को प्राप्त है और तो और दिखावे का कोई छिपा हुआ ख़तरनाक शैतान उस पर धोखे से भी अचानक भी आक्रमण नहीं कर सकता।
ज़ाहिर में रोज़े की यही विशिष्ट स्थिति थी जिसके आधार पर क़ुरआन मजीद ने फ़रमाया है “लअ़ल्लकुम तत्तकून” (ताकि तुम्हारे अन्दर तक़्वा पैदा हो सके) । इसे केवल रोज़े के हुक्म के साथ ही फ़रमाया गया है। किसी और इबादतों के हुक्म के साथ इन शब्दों को नहीं दोहराया गया। यद्यपि यह अपनी जगह मानी हुई सच्चाई है कि इन्सान में नेकी का जौहर और तक़्वा का नूर हर इबादत पैदा करती है। फिर सम्भवतः रोज़े की यही विशिष्ट हैसियत है जिसकी वजह से अल्लाह ने खास इसी एक इबादत को ‘अपना’ या ‘अपने लिए’ फ़रमाया है और प्रतिफल व सवाब (पुण्य) के तराज़ू में भी इसे सबसे अधिक भारी ठहराया है।
हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि “इन्सान के प्रत्येक सुकर्मों का प्रतिफल दस गुने से लेकर सात सौ गुने तक मिलेगा”। अल्लाह तआला फ़रमाता है कि रोज़ा इससे भिन्न है “क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही उसका (जितना चाहूँगा) बदला दूंगा । आख़िर इन्सान अपनी काम वासनाओं और अपने खाने-पीने को मेरी ही खातिर तो रोके रहता है।” “रोज़ा मेरे लिए है।”
यह वास्तव में इसी सच्चाई की एक मनभावन अभिव्यक्ति है कि रोज़े में दिखावा नहीं हुआ करता। अगर रोज़े का उद्देश्य यह है कि इन्सान में ईशभय (तक़्वा) का गुण पैदा हो जैसा कि मालूम हुआ तो इसका अर्थ यह है कि यही ईशभय रोज़े की असल कसौटी भी है। रोज़े की परिभाषा और उसका कानूनी अस्तित्व यही है कि इंसान खाने-पीने और यौन सम्पर्क से दूर रहे, तो उन समस्त बातों से दूर रहा जाए जो अल्लाह को नाराज़ करने वाली हों। अगर एक इंसान रोज़ा रखकर अपनी इन तीन इच्छाओं को नियंत्रित नहीं करता, बल्कि अपनी सारी इच्छाओं को अल्लाह के आदेशों के नियंत्रण में दे देता है, तो वह वास्तविक अर्थों में रोज़ेदार है। लेकिन अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसका रोज़ा रोज़ा नहीं, बल्कि केवल फ़ाक़ा (भूखे रहना जैसा) है। क्योंकि खाने-पीने और यौन सम्बन्धों से बचना ही असल रोज़ा नहीं है। अगर कोई व्यक्ति इस ज़ाहिरी और क़ानूनी सीमा ही तक जाकर रुका रहा तो उसका मामला इसके सिवा और कुछ नहीं कि वह रोज़े के घर के चारों ओर घूमकर वापस चला आया, उसमें प्रवेश किया ही नहीं। हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम स्पष्ट रूप से फ़रमाते हैं कि “कितने ही रोज़ेदार ऐसे हैं जिनके पल्ले अपने रोज़े से प्यास के सिवा और कुछ नहीं पड़ता।”
ये तथाकथित रोज़ेदार किस प्रकार के लोग होते हैं ? बुखारी हदीस ग्रंथ में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के एक-दूसरे कथन से यह स्पष्ट होता है कि “जिस किसी ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और झूठ पर अमल करना न छोड़ा वह जान ले कि अल्लाह को इस बात की कोई ज़रूरत न थी कि वह व्यक्ति बस अपना खाना-पीना छोड़ दे।
उल्लेखित तीन मांगों पर रोक लगाने का उद्देश्य वास्तव में उसकी समस्त इच्छाओं को केवल मन को नियंत्रण प्राप्त कर लेने से है। इसलिए अगर कोई व्यक्ति इस अभ्यास और प्रशिक्षण के द्वारा अपने मन को लगाम न लगा सका और रोज़े की हालत में भी उसकी शरारतें जारी रहीं तो यह इस बात का प्रमाण होगा कि उसने रोज़े के उद्देश्यों को समझा ही नहीं और अगर समझा तो उसे अपनाया ही नहीं, और जब उसने रोज़े के उद्देश्य को समझा या अपनाया नहीं तो कोई सन्देह नहीं कि वह रोज़ा रखकर भी बेरोज़ेदार रहा और हक़ीक़त के एतिबार से उसमें और एक बेरोज़ादार इंसान में कोई फ़र्क़ न होगा।