जमाअ़त के बिना इस्लाम नहीं” — मज्लिसे उल्माए तहरीक , महाराष्ट्र के अध्यक्ष मोहम्मद नसीर इस्लाही का विचार (मुस्लिम समुदाय के लिए आदाब और आचार )– डॉ एम ए रशीद , नागपुर

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“जमाअ़त के बिना इस्लाम नहीं” — मज्लिसे उल्माए तहरीक , महाराष्ट्र के अध्यक्ष मोहम्मद नसीर इस्लाही का विचार (मुस्लिम समुदाय के लिए आदाब और आचार )– डॉ एम ए रशीद , नागपुर

“जमाअ़त अर्थात संगठन के बिना इस्लाम नहीं” इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए मोहम्मद नसीर इस्लाही ने कहा कि अल्लाह का लाख लाख शुक्र और अहसान है कि उसने हमें अपनी सबसे क़ीमती नेयमत ” इस्लाम” से बुलंद, प्रतिष्ठित फ़रमाया है।
मोहम्मद नसीर इस्लाही ने फ़ज़ीलत को मदरसा अल इस्लाह , सरायमीर, आज़मगढ़ से तथा बी ए , बी एड , डिप्लोमा इन कंप्यूटर एप्लीकेशन, फंक्शनल अरबिक की शैक्षाणिक योग्यताओं को प्राप्त कर वे वर्तमान में मज्लिसे उल्मा , तहरीके इस्लामी महाराष्ट्र के अध्यक्ष तथा त्रैमासिक सूतुल उल्मा के प्रधान संपादकहैं । विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके 30 से अधिक आलेख प्रकाशित हो चुके हैं।


उपरोक्त संबंध से उन्होंने आगे कहा कि नेयमत जितना बड़ी होगी उसका तक़ाज़ा और उसके बदले में रखी गई मांगें और दायित्व भी उतने ही बड़े होंगे। मुसलमान के रूप में हम पर जो ज़िम्मेदारियां आती हैं वह केवल इतनी नहीं हैं कि हम अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों और आख़िरत के दिन पर ईमान ले आएं। वे जिम्मेदारियां सिर्फ़ इतनी भी नहीं हैं कि हम सलाह (नमाज़) पढ़ लें, साल में एक महीना के रोज़े रख लें , अगर हैसियत और ख़र्च कर सकने की क्षमता है तो ज़िंदगी में एक बार हज अदा लें और अगर साहिबे निसाब यानी आर्थिक स्थिति से संपन्न और सुदृढ़ हैं तो हर साल ज़कात निकाल दें । ये ज़िम्मेदारियां सिर्फ इतनी ही नहीं हैं कि हम निकाह – शादी, तलाक़, विरासत आदि के मामले में इस्लाम के निर्देशों का पालन कर लें बल्कि इन सबके अलावा हमारे ऊपर एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी भी आती है कि हम इस धरती पर ज़ुबान से कहने के एतबार से अमल के तौर पर (कार्यान्वित कर के) उस इस्लाम के गवाह बन कर खड़े हों जिसे अल्लाह ने हमें दिया है। हम स्वयं भी किसी घट बढ़ के बिना , पूरी तरह से इस्लाम का पालन करें और पूरे धर्म को दुनिया के सामने पेश करें। इस ज़िम्मेदारी के लिए पवित्र क़ुरआन में कहीं शहादत का अध्याय है, कहीं अच्छे कार्यों का आदेश देना और बुराई से रोकना, कहीं अक़ामते दीन , कहीं दीन की अभिव्यक्ति जैसी शब्दावली की गई हैं। क़ुरआन में हमें एक मुस्तक़िल उम्मत बनाने का उद्देश्य भी यही बताया है।
सूरह आले इमरान की पंक्ति क्र 110 में अल्लाह तआ़ला का इरशाद है कि “(ऐ मुस्लमानों) तुम वह बेहतरीन उम्मत हो जिसे लोगों के लिये बरपा किया गया है” , यहां उम्मते मुस्लिमा (मुस्लिम समुदाय) का उद्देश्य बयान किया जा रहा है। यानि यह पूरी उम्मते मुस्लिमा इस उद्देश्य के लिये बनायी गयी थी। यह दूसरी बात है कि उम्मते मुस्लिमा अपना मक़सदे हयात भूल गयी हो । ऐसी स्थिति में उम्मत में से जो भी जाग जायें वह दूसरों को जगा कर “उम्मत के अन्दर एक उम्मत” बनायें । इसी प्रकार हम सूरह बक़रह की पंक्ति 143 में उम्मते मुस्लिमा के फ़र्ज़े मंसबी को देखते हैं जिसमें अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया है कि “और इसी प्रकार हमने तुम्हें सबसे बेहतर उम्मत (समुदाय) बनाया; ताकि तुम लोगों पर गवाही देने वाले बनो और रसूल तुम पर गवाही देने वाला बनें”। यानी मुस्लिम समुदाय को ऐसी बेहतरीन उम्मत होना चाहिए जिससे लोगों को सही , सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन मिलता रहे और लोगों को जहन्नुम , नरक की आग से बचाने की कोशिश होती रहे ।
इस संबंध में उन्होंने आगे कहा कि यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी है जो हम मुसलमानों को इस धरती पर निभानी है। इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। व्यक्तिगत प्रयासों से इस ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हुआ जा सकता है। व्यक्तिगत प्रयास से न अच्छाई और न ही बुराई का आदेश देने के कर्तव्यों को पूरा किया जा सकता है और न ही अच्छी उम्मत और मध्य उम्मत की ज़िम्मेदारी पूरी हो सकती है , न ही धर्म की पुकार, धर्म की स्थापना और इस्लाम की शहादत का वह उद्देश्य पूरा हो सकता है जिसके लिए हमें इस धरती पर बरपा किया गया है । लेकिन हम एक जमाअ़त (संगठन) के रूप में इन महान ज़िम्मेदारियों को पूरा कर सकते हैं। जमाअ़त के बिना नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात जैसी इबादतें पूरी नहीं हो सकतीं। यही कारण है कि इस्लाम में सामूहिकता यानी जमाअ़त को अत्यधिक महत्व दिया गया है और एक जमाअ़त के रूप में रहने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। हज़रत उमर रज़ि का बयान इस्लाम में सामूहिकता यानी जमाअ़त की सर्वोत्तम व्याख्या है।
अल्लाह ने क़ुरआन में आदेशित किया है कि ” तुम सब के सब अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और विभाजित हो कर न रहो।” “अलग अलग (विभाजित हो कर) न रहो का अर्थ एकजुट हो कर रहने से है। यह अलग अलग न रहना और एकजुट हो कर रहने का अर्थ है कि अल्लाह के दूत हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस प्रकार समझाया है कि “जमाअ़त को मज़बूती से पकड़ो और अराजकता यानी इंतेशार से बचो”। पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक अन्य हदीस में फ़रमाया कि “मैं तुम्हें पांच बातों का आदेश देता हूं कि 1) सामुदायिक जीवन अर्थात जमाअ़ती ज़िंदगी का , 2) सुनना यानी अमीर की बात सुनने का , 3) आज्ञाकारिता यानी अमीर का आज्ञापालन करना , 4) हिजरत का , 5) संघर्ष का। फिर ऐसा ही नहीं कि “जमाअ़त” के दामन मज़बूती से पकड़ने और जमाअ़ती (संगठित) जीवन जीने के लिए यह एक अनिवार्य आदेश है, बल्कि यह एक ऐसा अनिवार्य आदेश है जिसके उल्लंघन करने पर न आस्था , ईमान की भलाई है और न ही इस्लाम से रिश्ता बरकरार रह सकता है। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया है कि “जो शख़्स जमाअ़त से बित्ति (बालिश्त) भर भी अलग हुआ तो उसने इस्लाम की परिधि यानी हल्क़ा को अपने गले से उतार फेंका”। (तिर्मिज़ी)
जिस प्रकार मुस्लमानों का जमाअत से अपना नाता तोड़ लेना ईमान, आस्था के विरुद्ध है, उसी प्रकार संगठन से नाता न रखना भी धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक ख़तरनाक है। एक हदीस में अल्लाह के दूत हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जो व्यक्ति इस दशा में मर जाए कि उसकी गरदन में ईमामुल मुस्लिम की बैत का पट्टा न हो तो उसकी मृत्यु अज्ञानता , जाहिलियत की मृत्यु होगी” (मुस्लिम) । अगर हम पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की इन हदीसों पर चिंतन मंथन करें तो हमें इस्लाम में सामूहिकता , इज्तिमाईयत के महत्व का अच्छे से अंदाज़ा हो जाएगा।
उन्होंने आगे बताया कि इस्लाम अपने अनुनाईयों को सामूहिकता और सामूहिक जीवन जैसे शब्द को किसी न किसी प्रकार की सामूहिक व्यवस्था के साथ जीवन व्यतीत करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि से रिवायत है कि पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “ऐसे तीन लोगों के लिए जो रेगिस्तान में हैं जाइज़ सिर्फ यह बात है कि वे अपने में से किसी एक को अपना अमीर (अध्यक्ष ) बना लें” (अबू दाऊद)। पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस धन्य कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि किसी स्थान पर तीन मुसलमान भी हों तो यह आवश्यक है कि उनमें से एक उनका अमीर हो और बाक़ी दो उस के अधीनस्थ और मामूर हों । भले ही वे किसी सुनसान जगह पर या जंगल में क्यों न हों। सामूहिकता के बिना उनका जीवन इस्लामी नहीं होगा ।
हज़रत अबू सईद ख़ुदरी रज़ि कहते हैं कि पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जब तीन आदमी यात्रा पर निकले तो चाहिए कि उनमें से किसी को अपना अमीर बना लें” (अबू दाऊद) । यानी किसी मुसलमान के लिए मुनासिब नहीं है कि यात्रा जैसा अस्थायी समय भी किसी प्रबंध , नज़्म के बिना गुज़रे।
हज़रत अबू सालबा जशानी रज़ि कहते हैं कि लोगों की आदत थी कि वे यात्रा के दौरान कहीं डेरा डालते तो इधर उधर फैल जाते और अपनी अपनी पसंद के अनुसार ठहरने के लिए जगह चुन लेते। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक बार यह देखा तो डांट डपट यानी सर-ज़निश करते हुए फ़रमाया “आप लोगों का इस तरह विभिन्न घाटियों और मैदानों में तितर-बितर हो जाना केवल शैतान की वजह से है” (अबू दाऊद) । इस हदीस से पता चलता है कि किसी सामूहिक प्रबंध के बिना पूरी यात्रा कर डालना और उसके दौरान कुछ घंटों के लिए कोई पड़ाव अगर अपने तौर पर कर लिया जाए और इतनी देर की ज़िंदगी भी सामूहिकता के बिना व्यतीत हो तो यह शैतान का अनुसरण करना होगा।
उन्होंने एक घटना पर प्रकाश डालते हुए कहा कि एक आदर्श साथी रज़ि किसी घाटी से गुज़र रहे थे, वहां उन्हें मीठे पानी का एक झरना दिखाई दिया, जिसने उन्हें अपना प्रिय बना लिया। उनके दिल ने कहा ऐ काश मैं यहीं आकर बस जाता। उन्होंने अपनी इच्छा पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से व्यक्त की और अनुमति मांगी। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया “ऐसा मत करो क्योंकि अल्लाह की राह में आपका खड़ा रहना घर के अंदर पढ़ी जाने वाली आपकी सत्तर नमाज़ों से बेहतर है” (तिर्मिज़ी)। यह हदीस इस तथ्य का प्रतिबिंब है कि इज्तिमाई ज़िंदगी को छोड़कर एकांत और तंहाई का जीवन जीने में चाहे जो भी धार्मिक और सांसारिक लाभ दिखाई देते हों लेकिन इस्लाम अपने अनुनाईयों को उधर जाने और इज्तिमाईयत से कट कर रहने की इजाज़त नहीं देता।
विचार करें कि यात्रा से संबंधित ये धार्मिक निर्देश इस्लामी व्यवस्था में इस्लाम के महत्व को कहां से कहां पहुंचा देते हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इस्लामी जीवन की सामूहिक आवश्यकताएं केवल ख़िलाफ़त व्यवस्था का पालन करने से ही समाप्त नहीं होतीं, बल्कि इस परिधि से बाहर साधारण जीवन को भी अपनी पकड़ में लिए हुए हैं। इसका मतलब यह है कि इस्लाम के समीप सामूहिकता , इज्तिमाईयत का महत्व बहुत अधिक ही नहीं बल्कि बहुत ज़्यादा व्यापक भी है। यहां तक कि इंसान का सामान्य जीवन का कोई अंश भी इसकी सीमा से बाहर नहीं हैं।
सामूहिक जीवन , इज्तिमाईयत ज़िंदगी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि सामूहिक को अल्लाह की ओर से सहायता, समर्थन मिलता है। पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जमाअ़त (संगठन ) पर अल्लाह का हाथ होता है” (तिर्मिज़ी)। सामूहिकता का एक और महत्वपूर्ण लाभ यह है कि सामूहिकता के प्रति प्रतिबद्धता शैतान से सुरक्षा का एक साधन है। पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ” जमाअत से चिमटे रहो क्योंकि भेड़िया उसी बकरी को खा पाता है जो दूर निकल जाती है” (अबू दाऊद) । एक अन्य हदीस में अल्लाह के दूत हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ” उद्विग्नता, तित्र बित्तर होने यानी इंतिशार से बचो क्योंकि शैतान अकेले व्यक्ति के साथ होता है। जबकि वह दो से बहुत दूर होता है” (तिर्मिज़ी, किताबुल-फ़ितन) ।
इस व्याख्या के बाद उन्होंने कहा कि एक और महत्वपूर्ण बात यह भी कहना चाहता हूं कि इस्लामी सामूहिकता में संगठन की आज्ञापालनता और आदेश के पालन को भी आस्था , ईमान का आवश्यक लक्षण बताया गया है। इस्लाम में अमीर की अवज्ञा को अल्लाह और उसके दूत (पैगंबर) की अवज्ञा माना जाता है और असहाबे अम्र की अवज्ञा को अल्लाह और उसके दूत (पैगंबर) की अवज्ञा बताया गया है। स्पष्ट है कि यदि सामूहिकता यानी इज्तिमाईयत होगी तो उसका कोई अमीर (अध्यक्ष) भी होगा और यदि अमीर होगा तो उसका आज्ञा का पालन किया जायेगा वरना सामूहिकता से कोई लाभ नहीं होगा। इसीलिए हज़रत उमर फ़ारुक़ रज़ि ने फ़रमाया कि “इस्लाम सामूहिकता के बिना नहीं और सामूहिकता अमीर (अध्यक्ष) के बिना नहीं है।”
मज्लिसे उल्माए तहरीक के राज्य अध्यक्ष मोहम्मद नसीर इस्लाही ने अंत में कहा कि अब तक जो बातें आपके समक्ष प्रस्तुत की गई हैं वे उस अद्वितीय सामूहिकता , आदर्श समुदाय से संबंधित हैं जब सभी मुसलमानों की एक ही जमाअ़त हो जिसे इस्लामी व्यवस्था “अल-जमाअ़:” कहते हैं। लेकिन जब यह “अल-जमाअ़” अस्तित्व में न हो और मुसलमान एक संगठित और अनुशासित समूह न हो कर सिर्फ़ लोगों का समूह बन गए हों तो उस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए , यह हमारे लिए आज सबसे महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु है। हमारे लिए यह आज का सबसे अहम सवाल है। ऐसे में हमारी सबसे पहली ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उस जमाअ़त के साथ जुड़ जाएं जिसका आह्वान, अक़ीदा , उद्देश्य, जमाअ़ती प्रणाली और कार्यप्रणाली पूरी तरह से इस्लामी हो अर्थात जो जमाअ़त वही काम करने उठी हो जो क़ुरआन और हदीस के मुताबिक मुस्लिम समुदाय (उम्माह) का असल काम है। हमें उठ खड़े होकर एक आदर्श इस्लामी समुदाय की स्थापना के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए ताकि कल के दिन हम अपने रब के सामने प्रतिष्ठित, सम्मानित, तेजस्वी, कांतिवान , सफलता की श्रेणी में खड़े हो सकें। हमें यह याद रखना चाहिए कि सामुदायिक जीवन इस्लाम की प्रकृति, धार्मिक जीवन और अल्लाह और उसके रसूल की मांग है ।