ज़कात – ग़रीबों का भरण- पोषण का मार्ग प्रशस्त करती है- डॉ एम ए रशीद नागपुर

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ज़कात के बहुत से लाभ हैं । उन पर नज़र डालने से मालूम होता है कि वह समाज के निर्धन लोगों की सहायक होती है , इससे उनकी मौलिक आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। पैगंबर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि
“निस्सन्देह अल्लाह ने लोगों पर जकात फर्ज (अनिवार्य) की है जो उनके मालदारों से ली जाएगी और उनमें के मोहताजों और ज़रूरतमंद लोगों को लौटा दी जाएगी।” (मुस्लिम)
इसी तरह पवित्र क़ुरआन ( 2:177) में जिस ज़कात के अदा करने को एक अच्छे मुसलमान का अनिवार्य गुण और लक्षण बताता है उसका विवरण देते हुए वह कहता है


” …..वह अपना माल उसके (अपने लिए) प्रिय होने पर भी नातेदारों, अनाथों, निर्धनों, मुसाफ़िरों और माँगने वालों को देता और गर्दन छुड़ाने में खर्च करता रहता है।”
इन फ़रमानों से मालूम हुआ कि ज़कात का एक विशुद्ध सामूहिक और आर्थिक पक्ष भी है और इसके बिना ज़कात की इस्लामी अवधारणा पूर्ण नहीं हो सकती। एक व्यक्ति ने पूर्ण ईशपरायणता के साथ अपने धन का एक भाग निकाल दिया। निस्सन्देह इस तरह उसने अपने मौलिक रूप से दिल की पवित्रता और अपने मन के विकास का आयोजन कर लिया। किन्तु उसके यह कर्म मात्र इतना ही करने से शरीअत की दृष्टि में वास्तविक अर्थों में “ज़कात की अदायगी” नहीं हो जाते और जब इसे ज़कात का अदा करना नहीं कहेंगे , यहां स्पष्ट होता है कि वह इस्लाम के एक अनिवार्य स्तम्भ का निर्माण और साधन भी न बन सकेगा। उसके इस कर्म को “ज़कात अदा करना” उस समय कहेंगे और जब उससे इस्लाम का तीसरा अनिवार्य स्तम्भ उस समस स्थापित हो सकेगा जब वह अपनी निकाली हुई यह दौलत हक़दारों के हवाले कर देगा अर्थात दिल की पवित्रता और मन की उन्नत दशा का, ज़कात मौलिक उद्देश्य और साध्य होना सर्वमान्य है । इस ज़कात के माल का लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन बन जाना भी अपनी जगह बिलकुल अनिवार्य है। इसके बिना ज़कात का, शरीअत द्वारा किया फ़र्ज़, सही मानों में अदा नहीं हो सकता। यही कारण है कि कुरआन में ज़कात को खाते-पीते लोगों की दौलत में ग़रीबों का ‘हक़’ ठहराया है-
“जिनके मालों में माँगने वालों और महरूमों का निश्चित हक़ होता है।” (पवित्र कुरआन – 70: 24-25)
ज़कात के इस दूसरे उद्देश्य की हैसियत यद्यपि द्वितीय है, किन्तु फिर भी इसका दीन में जो महत्त्व है उसे साधारण नहीं कहा जा सकता, न आखिरत के दृष्टिकोण से, न ही सांसारिक दृष्टिकोण से। इस संबंध में निम्नलिखित हदीसों पर ध्यान दिया जाना चाहिए –
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ‘मोमिन वह नहीं होता जो स्वयं तो पेट भर खाना खाए और उसके पहलू में उसका पड़ोसी भूखा रह जाए। (बैहक़ी)
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फ़रमाया कि “अल्लाह तआला क्रियामत के दिन फ़रमाएगा कि ऐ आदम की सन्तान ! मैंने तुझ से खाना माँगा था, किन्तु तूने मुझे नहीं खिलाया। बन्दा जवाब देगा कि ऐ अल्लाह ! मैं तुझे कैसे खिला सकता हूं तू तो स्वयं ही समस्त जगत का पालनकर्ता है ? कहा जाएगा कि क्या तुझे मालूम नहीं कि मेरे अमुक बन्दे ने तुझसे खाना माँगा था लेकिन तूने उसे खिलाने से इन्कार कर दिया था।” ( मुस्लिम)
अतएव जो धर्म बन्दे की भूख-प्यास को स्वयं अल्लाह तआला की भूख-प्यास ठहराता हो, उसके यहाँ दीन-दुखियों और निर्धनों की आवश्यकता पूर्ति कोई साधरण महत्त्व की चीज़ नहीं हो सकती। यह इस्लाम धर्म की विशेषता है।
ज़कात की एक ऐसी समय सीमा अनिवार्य रूप से निर्धारित कर दी गई कि जिसे अदा करने की हैसियत नैतिकता (अखलाक़ी) से आगे बढ़कर क़ानूनी भी है । इससे गरीबों की देखभाल तथा भरण-पोषण और धर्म की रक्षा व सहायता की कम से कम आरम्भिक दर्जे में व्यवस्था बनी रहती है।
ज़कात की यह क़ानूनी और अनिवार्य मात्रा संक्षिप्त रूप में इस प्रकार से है कि कृषि पैदावार में से अगर सिंचाई की ज़रूरत पेश आई हो तो 5 प्रतिशत अन्यथा 10%, संग्रहित रक़मों, ज़ेवरों और व्यापारिक मालों में से 2.5% (ढाई प्रतिशत), जंगल की चराई पर पलनेवाले मवेशियों में से लगभग 1.5% से 2.5% तथा खनिज पदार्थों और गड़े हुए धन में से 20% तक ।
इतनी ज़कात का अदा करना पूँजीपति (अर्थात धनवान ) मुसलमान के लिए नैतिक ही नहीं बल्कि क़ानूनी तौर पर भी ज़रूरी है। इसमें वह किसी हाल में भी कमी नहीं कर सकता। क्योंकि इस अनिवार्य कर्त्तव्य के पूरा करने की यह बिलकुल आरम्भिक और अनिवार्य दर है। इसमें भी अगर कोई कमी रह गई तो इस्लाम ज़कात की हद तक बे-स्तम्भ ही रह जाएगा। उसका भवन कदापि खड़ा न हो सकेगा। न केवल यह कि इस मात्रा में किसी कमी की गुंजाइश नहीं बल्कि जहाँ तक ज़कात के उद्देश्यों का सम्बन्ध है, उनके परिप्रेक्ष्य में तो इस मात्रा की पूरी-पूरी अदाएगी भी किसी इत्मीनान का कारण नहीं बन सकती। अत: उनकी अपेक्षा यही होती है कि इस क़ानूनी सीमा पर हरगिज़ न रुका जाए बल्कि आगे बढ़ा जाए और आगे बढ़ने का यह स्वयंसेवा जैसा प्रयास बराबर जारी रखा जाए ताकि उन उद्देश्यों के पूरा हो जाने की अधिक से अधिक आशाएं की जा सकें ।