फ़िलिस्तीन है पैगंबरों की धरती
मस्जिदे अल-अक्सा मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी समस्या
“काश दुनिया ये समझ पाती यह झगड़ा क्या है।
मुस्लिम समुदाय का 14 - 15 सौ साल का इतिहास बताता है कि उसे हर युग और हर सदी में किसी न किसी बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा है। अल्लाह के अंतिम दूत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने मिशन के बाद कठिन परिस्थितियों में भी अल्लाह के अंतिम धर्म को मानव जाति के लिए जीवित रखा। तत्पश्चात प्रत्येक ख़लीफ़ाए राशिदा को अपने समय में किसी न किसी बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार बाद का काल भी आंतरिक एवं बाह्य समस्याओं से मुक्त नहीं था। आतंरिक स्तर पर मुस्लिम समुदाय के भीतर भी विभिन्न फ़ित्नों की लहरें उठती रहीं। बाहरी स्तर पर इस्लाम के विरोधियों का प्रचार हर युग में जारी रहा। यह सिलसिला आज भी जारी है । मुस्लिम समुदाय विभिन्न क्षेत्रों और राष्ट्रों में विभाजित है। लेकिन समस्याओं और कठिनाइयों की प्रकृति एक समान दिखाई देती है। उन में विरोधी शक्तियां भी वही हैं । यह ज़रूर कि कुछ नये वैचारिक और नस्ली समूह भी उनके साथ जुड़ गये हैं। पहले ख़लीफ़ा और कुछ हद तक राजतंत्रीय व्यवस्थाएं इन समस्याओं से निपटते थीं । आज के दौर में यह काम मुस्लिम समुदाय की विभिन्न संगठनों, संस्थाओं को करना पड़ता है। अल्लाह तआ़ला का शुक्र है कि मुस्लिम समुदाय के जागृत मंडलियां अपने-अपने क्षेत्रों में स्थिति का सामना कर रही हैं।
विदित हो कि 1948 से पहले इस्राइल नाम का कोई देश दुनिया के नक्शे पर नही था । पश्चिमी देशों के भड़काने और उनके आश्वासनों पर यहुदियों ने फिलिस्तीन पर कब्जा करना शुरु कर दिया। उन्होंने फिलिस्तीन की धरती पर अपना एक अलग देश घोषित कर दिया। वे यहां तक नहीं रुके बल्कि बचे हुए फिलिस्तीन पर भी कब्जा ज़माना शुरु कर दिया । अब वे पुरे फिलिस्तीन पर अपना दावा कर रहे हैं । बता दें कि यह संघर्ष फिलिस्तीनियों की राज्य की आकांक्षाओं की रक्षा करने की इज़रायली मांगों के विपरीत है, जिसे वह लंबे समय से शत्रुतापूर्ण क्षेत्र के रूप में देखता रहा है।
इज़राइल के संस्थापक, डेविड बेन-गुरियन ने 14 मई, 1948 को यहूदियों के लिए एक सुरक्षित आश्रय की स्थापना करते हुए इज़राइल के आधुनिक राज्य की घोषणा की थी। डेव्हिड बेन-गुरियन (14 अक्टूबर 1886 – 1 दिसंबर 1973) इज़राइल के पहले प्रधानमन्त्री थे। वे एक कट्टर यहूदी राष्ट्रवादि थे और उन्होने फ़िलिस्तीनी राज्यक्षेत्र में 14 मई 1948 को इज़राइल को स्वतंत्र घोषित किया और उस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ती बने।
फ़िलिस्तीनियों ने इज़राइल के निर्माण को नकबा या तबाही कहा, क्योंकि इससे उनके राज्य का सपना चकनाचूर हो गया। इसके बाद हुए युद्ध में 700,000, या लगभग आधी, ब्रिटिश शासित फ़िलिस्तीन की अरब आबादी को जॉर्डन, लेबनान और सीरिया के साथ-साथ गाज़ा, वेस्ट बैंक और पूर्वी येरुशलम में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। अमेरिका के करीबी सहयोगी माने जाने वाले इज़राइल का दावा है कि उसने फिलिस्तीनियों को उनके घरों से निकाल दिया और कहा कि इसकी स्थापना के अगले दिन पांच अरब राज्यों ने उस पर हमला किया था। 1949 में लड़ाई बंद हो गई लेकिन कोई औपचारिक शांति स्थापित नहीं हुई । इमरान प्रतापगढ़ी के अनुसार
“काश दुनिया ये समझ पाती यह झगड़ा क्या है,
आप के घर पे किसी ग़ैर का क़ब़्ज़ा क्या है ।”
इस संबंध में आज नज़र दौड़ाई जाए तो संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने 9 अक्टूबर को फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच स्थिति पर भाषण देते हुए यह सामने आता है कि उन्होंने संबंधित पक्षों से दुष्चक्र को तोड़ने और बातचीत के माध्यम से फिलिस्तीन-इज़राइल और यहां तक कि मध्य-पूर्व दीर्घकालिक स्थिरता हासिल करने का आह्वान किया गया।
गुटेरेस ने कहा कि हाल ही में फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच हिंसक संघर्ष 56 साल के कब्जे और निराशाजनक राजनीतिक समाधान के कारण हुए दीर्घकालिक संघर्ष से उपजा है। इज़राइल को अपनी वैध सुरक्षा जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होना चाहिए और फिलिस्तीनियों को अपने स्वतंत्र राज्य के लिए स्पष्ट संभावनाएं देखने में सक्षम होना चाहिए। केवल बातचीत के माध्यम से प्राप्त शांति जो दोनों पक्षों के दृष्टिकोण को संतुष्ट करती है, फिलिस्तीन, इज़राइल और व्यापक मध्य-पूर्व के लोगों के लिए दीर्घकालिक स्थिरता ला सकती है।
इसके अलावा गुटेरेस इज़रायल द्वारा गाजा पट्टी की “संपूर्ण नाकाबंदी” की घोषणा से बहुत चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि गाजा पट्टी में मानवीय स्थिति पहले भी बेहद गंभीर रही है और इजरायल की नाकेबंदी से अनिवार्य रूप से स्थिति में भारी गिरावट आएगी। गाजा पट्टी को चिकित्सा उपकरण, भोजन, ईंधन जैसे मानवीय आपूर्ति तथा मानवीय राहत कर्मियों की पहुंच की तत्काल आवश्यकता है। सभी पक्षों को संयुक्त राष्ट्र को गाजा पट्टी में असहाय फिलिस्तीनियों को आपातकालीन मानवीय राहत प्रदान करने की अनुमति देनी चाहिए और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इसके लिए सहायता प्रदान करनी चाहिए।
फिर देश के “इंडियन पैलिस्टीनियन फ्रेंडशिप फोरम” के प्रस्ताव पर ध्यान दें तो ज्ञात होता है कि उसने ’फिलिस्तीन के भारतीय मित्रों द्वारा’ ’पारित प्रस्ताव’
को जो कि हाल ही में ’डिप्टी स्पीकर हॉल कॉन्स्टिट्यूशन क्लब, नई दिल्ली में आयोजित हुआ था, उस सम्मेलन में कहा गया कि फिलिस्तीन के लोगों के साथ एक जुटता व्यक्त करने के लिए हम फिलिस्तीन के मित्र लोग फिलिस्तीन, विशेषकर गाजा की स्थिति को लेकर बहुत चिंतित हैं।
हम निर्दोष लोगों, यहां तक कि बच्चों और महिलाओं की लगातार हत्या के साथ-साथ उनके भोजन, पानी, चिकित्सा और बिजली की आपूर्ति रोके जाने, और आबादी वाले क्षेत्रों पर लगातार बमबारी और गाजा को खाली करने के प्रयासों की कड़ी निंदा करते हैं।
हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यहूदी कब्ज़ा की वजह से गत कई वर्षों से फ़िलिस्तीनियों को उनके घरों और ज़मीनों से लगातार बेदखल किया जा रहा है और इस भूमि के मूल निवासियों, फ़िलिस्तीनियों पर क्रूरतापूर्वक अत्याचार किया जा रहा है।
फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में नई आबादी को लगातार बसाना और अल-अक्सा मस्जिद को लगातार अपवित्र करना और ऐसी अन्य आक्रामक नीतियां सभी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का खुला उल्लंघन हैं, जो कि इस क्षेत्र में निरंतर शांति और व्यवस्था के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हैं।
ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को तुरंत कार्रवाई करने और रक्तपात रोकने के लिए कार्रवाई करने की आवश्यकता है। फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों को बहाल करना और इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय कानूनों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना क्षेत्र में निरंतर शांति के लिए अत्यंत आवश्यक है।
हम सरकार से यह भी मांग करते हैं कि वह भारत की लंबे समय से चली आ रही उपनिवेशवाद विरोधी और फिलिस्तीन समर्थक विदेश नीति को जारी रखे, जिसकी गांधी जी से लेकर वाजपेयी तक वकालत कर चुके हैं और फिलिस्तीनी लोगों के वैध अधिकारों को साकार करने में अपने प्रभाव क्षेत्र का उपयोग करें।
आगे यह कि फ़िलिस्तीन यानी कि वह पैग़ंबरों की धरती है और मस्जिदे अल-अक्सा मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी समस्या है। वैसे तो यह समस्या सदियों पुरानी है, लेकिन बीसवीं सदी के मध्य में पैग़ंबरों की धरती पर यहूदी राज्य की स्थापना के बाद से यह समस्या मुस्लिम समुदाय के लिए गंभीर समस्या बन गई । उसने नासूर जैसा रंग रूप धारण कर लिया है । विश्व के वे सभी लोग जो सत्य पर विश्वास करते हैं यह जानते हैं कि इस्लामी जगत के मध्य में इस यहूदी राज्य की स्थापना इस्लाम और मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध पश्चिमी षडयंत्रों का परिणाम थी। इस अवैध और अनैतिक राज्य को पश्चिमी दुनिया में विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने और अधिक मज़बूत बनाने के लिए क्या-क्या नहीं किया और जो अब भी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से कर रहा है , दुनिया इसे देख भी रही है । इज़राइल को स्थिर बनाने के प्रयासों के साथ-साथ विरोधी ताकतों ने मुस्लिम और मुस्लिम देशों को कमज़ोर करने के लिए उनके अंदर अराजकता और विसंगति पैदा करने के लिए भयानक षड़यंत्र रचे गए, आज भी ऐसे षड़यंत्र रचे जा रहे हैं। यह भी कहा गया कि यह केवल फिलिस्तीनियों की समस्या है और दुनिया कभी न कभी उनकी स्थिति पर दया करेगी और इस समस्या में उन्हें किसी जगह स्थापित कर समाधान देगी। इस बारे में कभी बताया गया था कि यह एक क्षेत्रीय और अरबों की समस्या है, और अरब देश पश्चिमी दुनिया के सहयोग से एक समझौता कर लेंगगे। इस पहलू को इतनी हवा दी गई है कि अब देश और नेता वर्ग उस दिशा में चल पड़े। यहाँ तक कि अरब क़ौम परस्ती का फ़ित्ना पैदा हो गया।
मिस्र के जमाल नासिर को अरब राष्ट्रवाद के नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। बाद में पीएलओ के नेता यासर अराफ़ात को घेरा गया और उन्हें एक छोटे से हिस्से पर नगरपालिका की शक्तियाँ देकर फ़िलिस्तीन की सरकार स्थापित कर दी गई। लेकिन यह स्पष्ट है कि फ़िलिस्तीन की समस्या अपनी जगह रही (आज उसने कहीं अधिक समस्याओं ने जन्म ले लिया है) । क्योंकि असल में यह इस्लाम और मुस्लिम समुदाय की समस्या है । विरोधियों की तमाम कोशिशों और षड़यंत्रों के बावजूद इसे मुस्लिम समुदाय की नज़रों से हटाया नहीं जा सका।