आज हमारा भारत देश 75 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। हमारे लिए यह बहुत गर्व की बात है कि हम विशाल लोकतांत्रिक देश में अपने संविधान का पालन करते हुए धार्मिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं । जिस प्रकार संविधान ने देश के सर्वांगीण विकास के लिए देशवासियों को एक माला में पिरोया है उसी प्रकार लोक और परलोक में सफलता प्राप्त करने के लिए जीवन व्यतित करने के दिशा निर्देश इस्लाम ने दिए हैं। इस प्रकार हमें सोच-विचार कर इस बात का निर्णय करना चाहिए कि इस्लाम से विमुख हो कर जीवन व्यतीत करना है अथवा इस पर पूरी तरह स्थिर रहकर ? यदि हम ईश्वर अल्लाह न करे, कि पहली स्थिति को अपनाने का निर्णय करते हैं तो हमारे लिए इसमें कोई बाधा नहीं, ऐसा करने से सांसारिक दृष्टि से कुछ व्यक्तियों को तनिक लाभ भी प्राप्त हो जाए परन्तु यदि हम इसके लिए तैयार नहीं हैं और हमें विश्वास है कि मुस्लिम समुदाय की अधिकांश संख्या अपने इरादे की हद तक ऐसी ही होगी तो फिर गंभीरतापूर्वक इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है कि इस्लाम से सम्बद्ध रहने का वास्तविक अर्थ क्या है ?
मुस्लिम समुदाय आज जिस भांति जीवन व्यतीत कर रहा है उसको पूर्णतया इस्लाम से विमुख जीवन तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु जो व्यक्ति इस्लाम से तनिक भी परिचित होगा वह जान सकता है कि इस्लाम अपने अनुयायियों से जिन बातों की अपेक्षा करता है, बहुत-से मुसलमान उनकी अनुभूति ही सिरे से नहीं रखते फिर उन पर अमल करना तो दूर की बात है ।
इस्लाम की अपने मानने वालों से सबसे पहली अपेक्षा यह है कि जब उन्होंने ईश्वर अल्लाह को स्रष्टा, स्वामी, आज्ञापालक एवं पूज्य स्वीकार कर लिया है और हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपना पथ-प्रदर्शक तथा नायक मान लिया है तो फिर उन को यथाशक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन इसी स्वीकृति ही की अपेक्षाओं के अन्तर्गत व्यतीत करना चाहिए । कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो संसार के स्रष्टा, स्वामी एवं यथार्थ पूज्य की स्वीकृति के प्रतिकूल हो या ईश्वर अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदेशों के विरुद्ध हो । फिर दीन की एक स्पष्ट मांग यह भी है कि हम केवल इतने से सन्तुष्ट न हो जाएं कि कोई अपनी सीमा तक इस प्रतिज्ञा का पालन कर रहे हैं, बल्कि हमारा एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य यह भी होना चाहिए कि हम दूसरों को भी इसके प्रति जानकारी दें । हमारी हैसियत पृथ्वी पर ईश्वर अल्लाह के गवाहों , साक्षियों की सी है और मुस्लिम होने के नाते मुस्लिम समुदाय को श्रेष्ठतम समुदाय की उपाधि जो ईश्वर अल्लाह के दरबार से प्रदान हुई है वह इसी पद के कारणवश है जिसे पवित्र क़ुरआन में 3:110 कहा गया है कि “(मुसलमानो !) तुम समस्त समुदायों में श्रेष्ठतम समुदाय हो जो लोगों (के पथ-प्रदर्शन तथा सुधार) के लिए प्रकट किया गया है । तुम भलाई का आदेश देने वाले तथा बुराई से रोकनेवाले और ईश्वर पर (दृढ़) विश्वास रखनेवाले हो ।”
‘भलाई का आदेश देना’ एक ऐसा कर्तव्य है जिसका पालन केवल मुंह से नहीं हो सकता, इसके लिए व्यहारिकता की गवाही भी आवश्यक है । जब तक जीवन से उस सत्य के सत्य होने का प्रमाण नहीं दिया जाएगा अर्थात जिससे देशवासियों को परिचित कराया जाना निहित है तो उस समय तक हमारी बातें कुछ भी लाभदायक नहीं हो सकतीं।
बता दें कि इस्लाम की जीवन व्यवस्था में हर एक निराशा का समाधान मौजूद है। सारी खूबियां मौजूद हैं । लेकिन एक सबसे बड़ा कारण यही है कि स्वयं हमारे अपने जीवन उसके प्रभाव से खाली दिखाई देते हैं। देखने सुनने में आता है कि हम अपने आचरण से इस को कलंकित करते हुए पाए जाते हैं । परिणाम स्वरूप देखा यह जाता है कि मुसलमान जो कुछ करते हैं दूसरे लोग इसको ही आधार मानकर इस्लाम के सम्बन्ध में राय क़ायम करते हैं। इस प्रकार केवल यही नहीं कि इस देश के रहने वालों को इस्लाम के द्वारा जो नेमतें प्राप्त हो सकती थीं उनसे वे वंचित रह गए । हमनें अपने हाथों स्वयं इस्लाम को भी बहुत क्षति पहुँचाई है ।
मुसलमान होने के नाते जिस धर्म को दिखाने की जिस भी प्रकार की ज़िम्मेदारी हम पर है उसकी मांग यह है कि हम अपने वैयक्तिक तथा सामूहिक दोनों प्रकार के मामलों को ठीक-ठीक इस्लाम के अनुसार चलाने का प्रयत्न करें। इसी की सहायता से हमारी दुनिया भी संवर सकती है और मरने के बाद जीवन में मुक्ति संभव है। दोनों लोक में कल्याण का इसके अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता ही नहीं है । यही एक सच्चे मुसलमान का मूल लक्ष्य होना चाहिए । हम आपको इसी मार्ग को स्वीकार करने का निमन्त्रण देते हैं। शिर्क, कुफ्र मुस्लिम समुदाय के लिए विनाशकारी हैं । इनसे कुछ फ़ायदा यदि हासिल भी हुआ तो जैसा कि अर्ज किया जा चुका है वह केवल क्षणिक तथा सांसारिक लाभ होगा, परन्तु जहां तक इस्लाम तथा मुसलमानों की सामुदायिक स्थिति का सम्बन्ध है तो ऐसा करना कुछ भी लाभकारी न हो सकेगा, बल्कि इससे उन को भीषण क्षति पहुंचेगी । क्योंकि इस्लाम तथा गैर इस्लाम दो विरोधी चीजें हैं, जिनके सम्मिश्रण से मुसलमानों का आचरण स्थायित्व एकाग्रता से खाली हो जाएगा और फिर न इन की सामुदायिक स्थिति शेष रह सकती है और न वे इस्लाम के लिए कुछ उपयोगी हो सकते हैं। यथार्थ में तो उन आन्दोलनों के लिए भी वे उपयोगी नहीं हो सकते जिनमें इस्लाम से लगाव के कारण वे एकाग्रचित्त हो कर भाग न ले सकेंगे। संसार में चलित इज़्मों (वादों) के स्थान पर एक ऐसी जीवन-व्यवस्था चाहता है जो उसे संकटों से छुटकारा दिला सके और वह निस्सन्देह केवल इस्लाम ही हो सकता है। परन्तु यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि प्रत्येक दीन धर्म के ध्वजवाहक तो मिलते हैं लेकिन ईश्वरवाद का अनुवर्तन करने वाले तथा सत्यधर्म की ध्वजा फहराने वालों का अभाव ही होता है। हम मुस्लिम समुदाय की बड़ी संख्या इसी इस्लाम के नाम लेवा है, परन्तु हमारी स्थिति यह है कि जो लोग इस्लाम की ध्वजा को ऊंचा करने की योग्यता रखते हैं वे भी इसे छोड़ कर उन्हीं दूसरे इज़्मों के अनुवर्ती बने हुए हैं। इस्लाम का नाम लेते भी हैं तो केवल इस दृष्टि से कि मनुष्य के वैयक्तिक जीवन का मामला है या अधिक से अधिक यह कि स्टेज पर खड़े होकर उपदेश देना हो तो इस्लाम को एक सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था सिद्ध करने के लिए कुरआन और सुन्नत से दलीलें प्रस्तुत कर दें फिर जब मस्जिद से बाहर क़दम निकालें तो व्यावहारिक जीवन से प्रमाण इस बात का दें कि जो कुछ उन्होंने कहा है वह मानो भूतकाल की बात थी, अब बाहर इस्लाम ने कहने और सुनने वालों ने कुछ दूसरा ही रूप धारण कर लिया है।
सारांश यह कि हमारी वर्तमान अवस्था इस दृष्टि से अत्यन्त शोचनीय और विचारणीय है। मुसलमान होने की हैसियत में हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह कहां तक इस्लाम के अनुकूल है । यदि वास्तव में हमें इस्लाम से प्रेम और लगाव है तो हमें अपनी इस हालत को अवश्य बदलना होगा । इसका एकमात्र उपाय यही है कि मुसलमान होने की हैसियत और उसकी अपेक्षाओं को ठीक तौर से समझा जाए और उनके अनुसार आचरण के लिए प्रयत्नशील हुआ जाए।ज्ञ