15 अगस्त – पूर्वजों के बलिदान को याद किये जाने की ज़रूरत
“स्वतंत्रता आंदोलन में मुसलमानों ने अन्य देशवासियों के साथ बहुत बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था”
— आसिमुद्दीन ग़ाज़ी , सिटी प्रेसिडेंट, यूथ मूवमेंट आफ महाराष्ट्र शाखा नागपूर।
आज हम देशवासी अपने देश की स्वतंत्रता की 79 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं।15 अगस्त हमारे राष्ट्रीय इतिहास में खुशी और आनंद का दिन हैं। हमारे भारत देश को आज़ाद हुए 78 वर्ष पूरे हो गए हैं। देश ने अपना पहला स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947 को मनाया था। ऐसे में गिनती का सही तरीका यह है कि 15 अगस्त 1947, जिस दिन भारत आज़ाद हुआ, को पहला स्वतंत्रता दिवस माना जाए। इसे गिनते हुए 2025 में भारत का यह 79वां स्वतंत्रता दिवस होगा।
देश ने 15 अगस्त 1947 को पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया, यानी 15 अगस्त 1948 को जब आजादी का एक साल पूरा हुआ, तब देश ने दूसरा स्वतंत्रता दिवस मनाया। इसी तरह से 1956 में 10वां, 1966 में 20वां, 1996 में 50वां, 2016 में 70वां और 2021 में 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाया। इसी लिहाज से 2025 में देश अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है।
आज के दिन देशभर में स्वतंत्रता दिवस के विभिन्न प्रकार के समारोह आयोजित किए जाते हैं। इस दौरान हमें अपने पूर्वजों की सेवाओं और बलिदानों को याद करना चाहिए । इतिहासकारों का मानना है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मुसलमान अन्य देशवासियों के साथ बहुत आगे रहे हैं, उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और अपना बलिदान पेश किया था। इस प्रकार यह निर्विवाद रूप से लेखन , भाषणों, समारोहों और कार्यक्रमों के माध्यम से देशवासियों को जागरूक करने की आवश्यकता है। दूसरी ओर स्वतंत्रता सेनानियों और विद्वानों ने जिस लोकतंत्र का सपना देखा था उन निस्वार्थ विद्वानों और स्वतंत्रता सेनानियों की सेवाएं और निशान भी इतिहास के पन्नों से ओझल होते हुए दिखाई दे रहे हैं। इससे यह सिद्ध हो रहा है मानों कि देश की आज़ादी में मुसलमानों की कोई विशेष भूमिका नहीं थी।
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर हम सभी देशवासी गांधी जी, नेहरू जी, सुभाष चंद्र बोस जी, भगत सिंह साहब आदि के नामों का स्मरण पूरे जोर-शोर से करते हैं लेकिन मुस्लिम समुदाय की ओर से देश को आज़ाद कराने में उन मुस्लिम बलिदानों को याद नहीं किया जाता , इस कारण देशवासी अपने बुजुर्गों और पूर्वजों के बलिदानों के इतिहास से अनभिज्ञ होते दिखाई दे रहे है। वे मुस्लिम विद्वानों की दृढ़ता, निस्वार्थता के बारे में नहीं जानते, वे मैसूर के शेर सिराजुद्दौला और टीपू सुल्तान की देशभक्ति से परिचित नहीं हैं।
आज़ादी कभी मुफ़्त में नहीं मिलती , यह कुर्बानियों से ही खरीदी जाती है। जब हम भारत की स्वतंत्रता की बात करते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि यह किसी एक समुदाय, एक भाषा या एक संस्कृति का प्रयास नहीं था। यह करोड़ों दिलों की एक साथ धड़कन थी , एक ही सपना देखने वाली धड़कन , एक आज़ाद भारत।
उन बहादुर आत्माओं में हज़ारों मुस्लिम भाई-बहन भी थे, जिनका देश के प्रति प्रेम उनके अपने जीवन से भी बड़ा था। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान फाँसी के फंदे पर मुस्कुराते हुए गए और कहा, “मेरा ख़ून आज़ादी के पेड़ को सींचेगा।” मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने समझौते की बजाय जेल को चुना। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान नंगे पाँव गाँव-गाँव घूमे, अन्याय के खिलाफ़ लोगों को जगाते रहे। लेकिन इनके अलावा अनगिनत गुमनाम वीर भी थे । साधारण किसान, व्यापारी, विद्वान और नौजवान , जिनके नाम इतिहास बस धीमे स्वर में फुसफुसाता है। लेकिन उनकी कुर्बानियाँ सिर्फ़ मुस्लिम कुर्बानियाँ नहीं… वे भारतीय कुर्बानियाँ हैं।
आज मैं यहाँ इतिहास को बाँटने के लिए नहीं, बल्कि उसे पूरा करने के लिए खड़ा हूँ। यह कहने के लिए कि हमारी आज़ादी किसी एक वर्ग की देन नहीं थी । इसे सबने मिलकर कमाया, जब हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य सब एक साथ खड़े थे।
आओ वादा करें कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को पूरी कहानी सुनाएँगे, ताकि कोई भी वीर समय की परछाइयों में छुपा न रहे। क्योंकि जब हम सबकी कुर्बानियों का सम्मान करते हैं, तो हम भारत की आत्मा का सम्मान करते हैं।
आज की नई पीढ़ी का दायित्व बनता है कि वह अपने महान नेताओं और पूर्वजों के बलिदानों का इतिहास पढ़ें, उनके जीवन और सेवाओं का अवलोकन करें, उनके गुणों और विशेषताओं को अपने भीतर आत्मसात करें और उनके पदचिन्हों पर चलने का साहस विकसित करे। वरना यदि देश की आज़ादी के इतिहास से विद्वानों की सेवाओं को हटा दिया गया, तो आज़ादी के इतिहास की आत्मा ही समाप्त हो जाएगी।
हमें इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि क्या अंग्रेज़ों के जाने के बाद हमारा समाज ब्रिटिश सभ्यता और संस्कृति से मुक्ति पा सका है? क्या 1947 में देश की जनता के बीच जो समझौता हुआ था, वह सफल होता दिख रहा है? यह विचारणीय है।
फिर हमें देश के समाज में फैल रही सामाजिक असमानता की खाई को पाटी जाना चाहिए और हर धर्म को धार्मिक स्वतंत्रता मिलना चाहिए । धार्मिक स्थलों को निशाना बनाया जाना बड़ी चिंता का विषय है।
देश घूसखोरी, भ्रष्टाचार, खाद्य पदार्थों में मिलावट, आतंकवाद और सांप्रदायिकता से मुक्त होना चाहिए । देश का नैतिक पतन आज इस स्तर पर पहुँच गया कि बेईमानी, रिश्वतखोरी और अवैध धन संचय देश के हर विभाग और संस्थान में व्याप्त हो गया। आए दिन एक नया भ्रष्टाचार उजागर हो रहा है।
वर्तमान समय में भारत देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और उसके सामाजिक व राजनीतिक ताने-बाने को असाधारण क्षति पहुँच रही है, जिसके कारण देश नफ़रत के विस्फोटक ढेरों की ओर जाता चला जा रहा है। हमारी त्रासदी यह है कि हमने इस ओर ध्यान देना ही छोड़ दिया है ।
हमें अपने देश के चहुंमुखी विकास की ओर ध्यान देने की बहुत जरूरत है। यह आशा तब ही जाग सकती है जब हम अपनी बैठकों में अपने स्वतंत्रता सेनानियों और पूर्वजों के बलिदानों के बारे में सकारात्मक बात करेंगे।
हमें अपने अधिकारों की प्राप्ति के साथ-साथ देश की व्यवस्था में अपनी भागीदारी की भी ओर सोचना चाहिए; क्योंकि एक नागरिक होने के नाते यह हम सबकी सामूहिक ज़िम्मेदारी बनती है। सामाजिक असमानता, अज्ञानता, गरीबी, उत्पीड़न, हिंसा और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त एक ऐसा समाज बनाना चाहिए जो बिना किसी धार्मिक, क्षेत्रीय या भाषाई भेदभाव के हो और प्रत्येक नागरिक सम्मानपूर्वक जीवन जी सके।