पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम द्वारा इस्लाम की शिक्षाओं के अंतर्गत दिए गए प्रशिक्षण से सहाबा ए किराम ( आदर्श साथियों) में जन सेवाओं की अद्भुत भावनाओं ने जन्म लिया। उनके जीवन में एक से बढ़कर एक उदाहरण दिखाई देते हैं। इस्लाम की जनसेवाओं में यह आदर्श प्रस्तुत किया गया है कि परिवार और समाज में जो भी इंसान सेवा की पात्रता रखने वाला हो उसकी सेवा होनी चाहिए, इससे आगे इस्लाम ने सेवा और अच्छे व्यवहार की पात्रता रखने वालों के संबंध में भी बताया है। इस दायरे में इन्सान के माता पिता, बाल-बच्चे और निकटतम सम्बन्धी वग़ैरह आते हैं। इनकी सेवा नैतिक कर्तव्य समझी जाती है। ऐसा स्वाभाविक रूप से प्रेम के नतीजे और उनसे विशेष हार्दिक सम्बन्ध के फलस्वरूप होता है । लेकिन भौतिकवादी युग , दुनिया परस्ती ने इन नैतिकता की भावनाओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया है । नतीजतन परिवार और समाज के लोगों के साथ भावनात्मक लगाव नहीं दिखाई देता।
इस्लाम की शिक्षाओं के तहत यह कि इन्सान मात्र उन्हीं लोगों की सेवा करने को अपना कर्तव्य न समझे जिनसे उसका खून का सम्बन्ध है, बल्कि उन लोगों के साथ भी अच्छा व्यवहार करे जिनसे उसका कोई रिश्ता-नाता नहीं है। उसकी सेवा और सद्व्यवहार का क्षेत्र उसके घर और परिवार से आगे बढ़कर समूचे समाज तक फैल जाए। उसे सम्पूर्ण मानवजाति को अपना परिवार समझकर उसकी सेवा के लिए खड़ा हो जाना चाहिए। पवित्र क़ुरआन की सूरा ‘निसा’ की एक पंक्ति अति संक्षिप्त रूप में सद्व्यवहार की पात्रता रखने वालों के संबंध में बताती है। इसके अनुसार उनसे ग़फ़लत और लापरवाही नहीं बरती जा सकती।
पवित्र क़ुरआन 4 : 36 में अल्लाह ईश्वर का फ़रमान है कि “तथा अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ तथा माता-पिता, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, समीप और दूर के पड़ोसी, यात्रा के साथी, यात्रि और अपने दास दासियों के साथ उपकार करो। निःसंदेह अल्लाह उससे प्रेम नहीं करता, जो अभिमानी अहंकारी हो”।
इस छंद के विश्लेषण में समाज के समस्त कमज़ोर और महरूम वर्ग आ जाते हैं । पवित्र क़ुरआन ने ‘सेवा’ के लिए ‘एहसान’ का पारिभाषिक शब्द प्रयोग किया है। यह बड़ा व्यापक अर्थ वाला शब्द है जो सेवा के सभी पहलुओं पर हावी है। इसमें ढाढ़स, सहानुभूति, प्रेम, आवश्यकताओं का पूरा करना तथा किसी को उसके अधिकार से अधिक देना आदि सब कुछ आ जाता है।
परिवार के बड़े बुजुर्गो में माता – पिता का पहला स्थान आता है। उनके साथ अच्छे व्यवहार के संबंध में पवित्र क़ुरआन में एक अल्लाह की इबादत के आदेश पश्चात इंसानों के साथ अच्छे व्यवहार की हिदायत की गई है। इस विषय में सबसे पहले माता – पिता का उल्लेख पवित्र क़ुरआन 4 : 36 में किया गया है कि “माता पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो।” माता पिता की सेवा की शिक्षा दुनिया के प्रत्येक धर्म ने दी है। क़ुरआन मजीद में एक-दो नहीं, बल्कि अनेक स्थानों पर अल्लाह की इबादत के पश्चात माता पिता के साथ अच्छे व्यवहार का आदेश दिया गया है। इसमें यह संकेत है कि इन्सान पर सबसे अधिक उपकार अल्लाह तआला के हैं। उसके बाद माता पिता के उपकार हैं। इन्सान का अस्तित्व, उसका जन्म, पालन-पोषण, देख-भाल, शिक्षा-दीक्षा तथा उसके आर्थिक एवं नैतिक विकास आदि में माता पिता अधिक भागीदार होते हैं। यदि वे ध्यान न दें तो वह उन्नति नहीं कर सकता, बल्कि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। अशिक्षित से अशिक्षित तथा दरिद्र माता पिता भी संतान के लिए जो कुरबानी देते हैं, इन्सानी समाज में इसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं दिया जा सकता। उनके उपकारों में अल्लाह तआला के उपकारों की झलक दिखाई पड़ती है। अल्लाह की इबादत वास्तव में उसके उपकारों के प्रति कृतज्ञता-प्रकाशन है। माता पिता का स्थान चूंकि अल्लाह के बराबर नहीं है। अतः उनकी उपासना तो नहीं की जा सकती, परन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार करना अनिवार्य है। यही उनके उपकारों के प्रति कृतज्ञता-प्रकाशन है। पवित्र क़ुरआन ने अल्लाह तआला के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का भी आदेश दिया है और माता पिता के प्रति कृतज्ञता दिखाने की भी हिदायत की है । पवित्र क़ुरआन 31: 14 में अल्लाह ईश्वर का आदेश है कि “मेरे प्रति कृतज्ञ हो और अपने माता-पिता के प्रति भी। मेरी ही ओर पलटकर आना है।”
वर्तमान सभ्यता ने पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। इसके साथ वे उच्चतम नैतिक मूल्य भी समाप्त होते जा रहे हैं जो इस व्यवस्था से सम्बद्ध थे, इसका बड़ा बुरा प्रभाव वृद्ध माता-पिता पर पड़ा है। आज यत्नपूर्वक इस बात पर विचार किया जा रहा है कि साठ-सत्तर वर्ष के इन बूढ़ों का क्या किया जाए जो हमारे लिए बेकार हो चुके हैं। जब वे भविष्य के निर्माण में सहयोगी नहीं हैं तो उनका भार कब तक सहन किया जाए? हालांकि जिन बूढ़ों के विषय में इस प्रकार सोचा जाता है उन्होंने वर्तमान पीढ़ी को तथा अपनी संतान को उस समय नदी में नहीं फेंक दिया जबकि वह उनके हाथों में विवश और लाचार थी और उनकी दया एवं कृपा के सहारे जी रही थी, बल्कि उन्होंने उसे अपने जिगर का खून पिलाकर पाला-पोसा और जीवन के क्षेत्र में दौड़-धूप के योग्य बनाया। पवित्र क़ुरआन ने विशेष रूप से बुढ़ापे में माता पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने की ताकीद 17 : 23-24 में इस प्रकार से की है कि “यदि उनमें से कोई एक या दोनों तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाएं तो तुम उन्हें ‘उफ़’ तक न कहो और न उन्हें झिड़को, बल्कि उनसे भली प्रकार बात करो और दयालुता और नर्मी के साथ उनके सामने झुककर रहो; और दुआ करो : ऐ रब ! जिस तरह इन्होंने बचपन में दया और प्रेम से मेरा पालन-पोषण किया है, तू भी इनपर दया कर।”
इस्लामी शिक्षाओं में मानव सेवा एक शानदार अध्याय है । पवित्र क़ुरआन में जहां मानव सृजन , निर्मिति का उद्देश्य इबादत और बंदगी बताया है, वहीं उसी इबादत में लोगों की सेवा करने को भी शामिल रखा है। इसलिए अन्य प्रकार की इबादतों की तरह यहां भी सांसारिक उद्देश्यों पर नज़र रखने की बजाय परलोक पर दृष्टि रखने की ज़्यादा आवश्यकता है , जहां इस सेवा का प्रतिफल मिलेगा।
शरिया शब्द में अल्लाह ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उस के प्राणियों के साथ वैध कार्यों में सहयोग करना जनसेवा कहलाता है। पवित्र क़ुरआन के छंद और परंपराओं के अध्ययन से पता चलता है कि लोगों की सेवा एक धर्मनिष्ठ समाज के निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण साधन है, बल्कि यह अल्लाह ईश्वर से प्रेम का तकाज़ा, ईमान की भावना और दुनिया और उसके बाद परलोक में समृद्धि का साधन भी है।
आम तौर पर लोग केवल वित्तीय सहायता को ही जन सेवा समझते हैं। वित्तीय सहायता के अलावा, किसी को प्रायोजित करना, ज्ञान और कौशल सिखाना, उपयोगी सलाह देना, किसी भटके हुए यात्री को सही रास्ता दिखाना, विद्वानों को संरक्षण प्रदान करना, शैक्षिक और कल्याण संस्थानों की स्थापना करना,किसी के दुख दर्द में भाग लेना और इन जैसे सैकड़ों मुद्दे सेवा सृजन के अलग-अलग रास्ते हैं जो कि इसी जनसेवा में अहम स्थान रखते हैं। इनका अनुसरण हर एक इंसान अपनी क्षमता के अनुसार कर सकता है। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने स्पष्ट रूप से मुस्लिम समुदाय को एक सिद्धांत से अवगत कराया है। आप सअ़व ने कहा कि “धर्म सद्भावना का नाम है।” इससे स्पष्ट होता है कि सद्भावना एक पवित्र भावना के अलावा और कुछ नहीं है। यही जनसेवा जब परोपकार की भावना के पूर्णता के स्तर पर पहुँचती है तो वह विभिन्न रूपों में कार्यों के माध्यम से व्यक्त होने लगती है। जैसे कि इस्लामी जगत के प्रथम शासक के दौर में दिखाई दिया कि वे एक असहाय बुढ़िया के घर जाकर उसका पूरा काम किया करते थे।
इस परिप्रेक्ष्य में नज़र डालने से प्रतीत होता है कि एक ओर हम अपने माता-पिता की देखभाल से अपने दामन को छुड़ाने का प्रयास करते हैं, जबकि ये बुज़ुर्ग माता पिता हमारी विरासत हैं। उनकी देखभाल करना हमारा पहला नैतिक और धार्मिक कर्तव्य बनता है। फिर दूसरी ओर उन लोगों का सहयोग कौन करेगा जो असहाय हो कर रह गए हैं।
यह हकीकत थी कि जब तक संयुक्त परिवार प्रणाली का अस्तित्व था, तब तक परिवार के बुजुर्गों , माता-पिताओं और युवाओं के बीच भावनात्मक रूप से परस्पर निर्भरता थी। हमारे देश की भूमि विविध संस्कृतियों, परंपराओं और जीवनशैली वाले लोगों का घर है जो यथार्थ रत्न का प्रतीक है। इसी तहत बुज़ुर्गों , माता-पिता को इज़्ज़त भरी नज़रों से देखा जाना और उनकी सेवाओं में तनिक सी भी लापरवाही नहीं बरती जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश आजकल बुज़ुर्गों , माता-पिता को लोग बहुत कम ही महत्व देने लगे हैं , यह हमारी परंपराओं के विपरीत है । परिवार, समाज में आज पीढ़ी की कड़वी सच्चाई है कि पारिवारिक जीवन व्यवस्था धीरे-धीरे अपना महत्व खोती जा रही है । युवा जोड़े एकल परिवारों (मैं, मेरी पत्नी, मेरे पति, मेरे बच्चे) को चुन रहे हैं। इससे परिवार के बुजुर्गों , माता-पिताओं को या तो विवश होकर अकेले रहना पड़ रहा है या दूसरे इनकी देखभाल कर रहे हैं। ऐसे दुष्परिणाम तब और देखने में आते हैं जब कुछ माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा और बेहतर भविष्य के लिए विदेश भेज देते हैं। बच्चे उस देश में रहने के आदी हो जाते हैं और वापस नहीं लौटना चाहते। फिर इन बुज़ुर्गों के लिए एक रास्ता बचा रह जाता है वृद्ध आश्रम का !
बता दें कि मुस्लिम समुदाय में वृद्धाश्रम का विषय और उसकी कल्पना वर्जित है। इस्लाम ने अपने अनुयायियों को माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करने और बुढ़ापे में उनकी देखभाल करने का आदेश दिया है। पवित्र क़ुरआन (17:23) ने माता-पिता की स्थिति को स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए कहा है कि “अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो”। अल्लाह जब बुज़ुर्ग माता पिता के बारे में बात करता है तब हर प्रकार की तोहीन , लांछन अल्लाह की अवज्ञा में आ जाती है। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने उन लोगों को ईमान वालों से पूरी तरह बाहर कर दिया जो बड़ों का सम्मान नहीं करते। दूसरी जगह आप सअ़व ने बड़ों का सम्मान करते हुए ताकीद फ़रमाई कि “वह हममें से नहीं है जो छोटों पर दया न करे और बड़ों का सम्मान न करे।” (तिरमिज़ी)
दयालुता , एहसान के साथ माता पिता और समाज के बुजुर्गो की देखभाल करना वास्तव में नेक काम और अच्छे मोमिन (आस्तिक) का एक अहम अमल है । अतएव इसका मतलब यह है कि माता-पिता और समाज के बुजुर्गों की देखभाल को व्यक्तिगत संतुष्टि से अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए । सबसे पहले परिवार और समाज के लोगों को इन बुज़ुर्गों के प्रति जन्मीं विषम परिस्थितियों से समझौता करना चाहिए। माता पिता या किसी बुज़ुर्ग की सेवा में पूरे परिवार को इस तरह जुट जाना चाहिए कि वे दुआएं और आशीर्वाद से नवाज़ने लग जाएं । इससे घर और समाज दोनों अमन व सलामती का गहवारा बन सकते हैं।