इस्लाम में सेवा सुश्रा की पात्रता रखने वालों में नातेदारों का स्थान (मुस्लिम समुदाय को नातेदारों के साथ अच्छे व्यवहार करना चाहिए)-डॉ एम ए रशीद,नागपूर

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कुरआन और अन्य स्थानों पर माता पिता के तुरन्त बाद नातेदारों का भी उल्लेख किया गया है । इस्लाम में सेवा सुश्रा की पात्रता रखने वालों में नातेदारों का भी प्रमुख स्थान है। इसमें इस बात की ओर संकेत किया गया है कि माता पिता के बाद सबसे अधिक हक़ और अधिकार नातेदारों का है। इसलिए नातेदारों , रिश्तेदारों के साथ अच्छे व्यवहार किया जाना चाहिए।
पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि “और नातेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करो।”


माता पिता ही से नातेदारों , रिश्तेदारी की नातेदारी पैदा होती है। अतः आधार तो वही हैं, फिर जो व्यक्ति उनसे जितना क़रीबी सम्बन्ध रखता है उसका हक़ भी उतना ही बढ़ जाता है। नातेदारों के साथ अच्छा व्यवहार ‘सिला रहमी’ (खून के रिश्तों को जोड़े रखना और प्रेम करना) है। पवित्र क़ुरआन 13: 21 में इसकी बड़ी ताकीद की गई है। एक स्थान पर अल्लाह के प्रियजनों की विशेषताएँ इस प्रकार बयान की गई हैं कि “(और उनकी नीति यह होती है कि) अल्लाह ने जिन-जिन नातों को जोड़े रखने का आदेश दिया है उन्हें जोड़े रखते हैं, अपने रब से डरते हैं और इस बात से डरते हैं कि कहीं उनसे सख्त हिसाब न लिया जाए।”
रिश्तेदारों, नातेदारों के साथ अच्छे व्यवहार से पूरा सामाजिक जीवन आनन्दमय बन जाता है। जहां यह खूबी न हो वहां सामाजिकता में बिगाड़ आ जाता है। इसी कारण नातेदारों से अच्छे व्यवहार का बड़ा ही महत्त्व बताया गया है।
हज़रत सुलैमान बिन आमिर रज़ि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम से रिवायत करते हैं कि आपने फरमाया कि “किसी ऐसे मुहताज को (जिससे नाता न हो) सदक़ा (दान) देना केवल एक सदका है, लेकिन वही सदक़ा किसी सम्बन्धी को दिया जाए तो यह सदका भी है और सिला रहमी (नातेदारों से अच्छा व्यवहार) भी । (तिरमिज़ी, नसई)
इससे यह अभिप्राय है कि रिश्तेदारों , नातेदारों पर खर्च करना दूगुने सवाब (पुण्य) का कारण है । इसके एक पहलू से यह सामान्य सदक़ा है जिस प्रकार अन्य सदके हैं। दूसरे पहलू से नातेदारों के साथ अच्छा व्यवहार भी है और सिला रहमी भी।
यह एक वास्तविकता है कि इनसान अपने नातेदारों से स्वाभाविक रूप से निकटता महसूस करता है। इसी के साथ यह भी एक हक़ीक़त है कि कुछ रिश्तों में से बड़ी कोमलता पाई जाती है। साधारण-सी घटनाओं से वैमनस्य पैदा हो जाता और सम्बन्ध बिगड़ने लगते हैं। हदीस में कहा गया है कि इन सम्बन्धों को बिगाड़ने न दिया जाए और उन्हें क़ायम रखने का हर संभव प्रयत्न किया जाए। अच्छा व्यवहार ही इस एक बेहतरीन तरीक़ा है । निम्न दो हदीसों में इसका स्पष्टीकरण दिया गया है कि हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “नाता जोड़नेवाला (सिला रहमी करनेवाला) वह नहीं है जो नातेदारों से उस समय नाता जोड़े जबकि वे भी उसके साथ अच्छा व्यवहार करें, बल्कि वास्तव में नाता जोड़नेवाला तो वह है जो उस समय नातों को जोड़े जबकि वे टूट जाएँ।” (बुखारी, अबू दाऊद)
हज़रत अबू हुरैरा रज़ि की रिवायत है कि एक व्यक्ति ने अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम से कहा कि “मेरे कुछ नातेदार हैं। मैं तो उनसे नाता जोड़ता हूं, परन्तु वे मुझसे नाता तोड़ते हैं। मैं उनसे अच्छा व्यवहार करता हूं और वे मेरे साथ बुरा व्यवहार करते हैं, मैं उन्हें माफ़ करता हूं परन्तु वे मेरे साथ घटिया व्यवहार करते हैं।” आपने यह सुनकर फ़रमाया कि “यदि तुम्हारा व्यवहार ऐसा ही है जैसा कि तुमने बयान किया है तो मानो तुम उनके मुँह में गर्म राख भर रहे हो और जब तक तुम्हारा यह व्यवहार बना रहेगा अल्लाह की ओर से एक मददगार तुम्हारे साथ रहेगा।” (मुस्लिम)
ऊपर वर्णित शब्द सुलह रहमी का अर्थ है निकट संबंधियों का हक अदा करना और उनके साथ अच्छा व्यवहार करना और क़-त रहमी का मतलब इसके विपरीत है, यानी रिश्तेदारों का हक अदा न करना और उनके साथ बुरा व्यवहार करना है। पवित्र क़ुरआन और हदीस में आम तौर पर उनके लिए दो शब्दों का इस्तेमाल किया गया है , ज़विल-अरहाम ( मां की ओर के रिश्तेदार, नातेदार ) और ज़विल क़ुर्बा अर्ताथ रिश्तेदार, स्वजन, नातेदार, एक वंश के लोग, निकट संबंधी लोग में वे सभी रिश्तेदार शामिल हैं जिनसे ख़ूनी रिश्ता होता है, चाहे वह रिश्ता पिता की तरफ़ से हो या मां की तरफ़ से और चाहे वह रिश्ता कितना भी दूर का क्यों न हो। यदि कोई व्यक्ति अपने क़रीबी रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता है, तो इसका यही एक उपाय है कि वह उनके साथ अच्छे व्यवहार शुरू कर दे और यदि उनके अधिकारों ( हुक़ूक़ूल इबाद) में उल्लंघन हुआ हो तो उसे माफ़ी तलाफ़ी कर ले चाहिए और अगर उनसे कोई चीज़ ले ली हो तो उन्हें वापस कर दे यही रिश्तेदारों के हुस्ने सुलूक का बेहतरीन उपाय है।
इस्लामी शरीयत में सुलह-रहमी अनिवार्य है और रिश्तों को विच्छेद करना हराम, वर्जित है। पवित्र क़ुरआन और धन्य हदीसों में सुलह रहमी पर ज़ोर और रिश्तों को विच्छेद करने की निंदा का वर्णन किया गया है। 
पवित्र क़ुरआन की रोशनी में सुरह बक़र की पंक्ति क्र 27 में ईश्वर का मार्गदर्शन यह है कि “जो अल्लाह से पक्का वचन करने के बाद उसे भंग कर देते हैं तथा जिसे अल्लाह ने जोड़ने का आदेश दिया, उसे तोड़ते हैं और धरती में उपद्रव करते हैं, वही लोग क्षति में पड़ेंगे”।
क़-त़ रहमी अर्थात रिश्तेदारों से संबंध विच्छेद करना सुलह रहमी के विपरीत है। इसका तात्पर्य यह है कि रिश्ते नातेदारों से बदगुमानी करना, उनकी ग़ीबत करना, चग़ली खाना , उनसे मीठी भाषा के स्थान पर कठोर शब्दों का प्रयोग करना, ज़रूरत पड़ने पर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति न करना, रिश्ते की महत्ता का सबूत न देना , आपसी मेल-मिलाप न करना, खुशी-दुख या किसी अन्य महत्वपूर्ण अवसर पर उन्हें शामिल न करना। उन्हें अपने साथ साझा करना या न करना, उनके उपहार स्वीकार न करना, उनके निमंत्रण स्वीकार न करना, उनकी बीमारी के अवसर पर इयादत (रोगी का हाल पूछने और उसे ढारस देने के लिए उसके पास जाना, बीमार को देखने जाना या हाल-चाल मालूम करना) के लिए न जाना और ईर्ष्या करना आदि रिश्तेदारों, नातेदारों के साथ व्यवहारिक ज़िन्दगी में ऐसी बहुत सी स्थितियां दिखाई देती हैं।
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि से रिवायत है कि पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने कहा कि “जो कोई यह चाहे कि कब्र में अपने पिता को सांत्वना पहुंचाए और उनकी सेवा करे तो अपने पिता की मृत्यु के बाद उसके भाइयों (अपने चाचाओं) के साथ अच्छा व्यवहार रखे जो रखना चाहिए । (साहिह इब्न हब्बान) 
करो मेहरबानी तुम अहले ज़मीं पर ।
ख़ुदा मेहरबान होगा अरशे बरीं पर ।।