61 वर्षीय आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि जिस दिन शासक बने उसके दूसरे दिन कंधे पर चादरें रख कर बेचने के लिए निकले, क्योंकि शासक से पहले यही उनकी रोज़ी रोटी, आजीविका का साधन थी और फिर आप स्वयं सरकार पर बोझ न बनें, अपनी रोज़ी रोटी भी कमाएं और ख़िलाफ़त के काम भी करें । रास्ते में आदरणीय उमर फ़ारूक़ रज़ि मिले और उन्होंने कहा कि यह आप क्या करते हैं? उत्तर दिया, अपने बाल बच्चों को कहां से खिलाऊं ? उन्होंने कहा कि अब आपके ऊपर मुसलमानों के नेतृत्व का भार आ पड़ा है , यह काम उसके साथ नहीं निभ सकता है। चलिए अबू उबैदह रज़ि (राजकोष के चैयरमेन) के साथ मिलकर बात करते हैं , पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने इन्हें अमीनुल उम्मत (अमानतदार) की पदवी से नवाज़ा था। तो आदरणीय अबू उबैदा रज़ि से बात की गई। उन्होंने कहा कि हम आपके लिए मुहाजिर में से आम आदमी की आय का मानक सामने रखकर एक वज़ीफ़ा निर्धारित किए देते हैं जो न उनके सबसे अधिक अमीर के बराबर होगा न सबसे ग़रीब के बराबर । लगभग यह वार्षिक 4 से 6 हज़ार दिरहम के समक्ष थी । शासक अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि उस पर राज़ी हो गए। राजकोष के चैयरमेन ने उनके लिए वर्ष में दो बार एक जोड़ा सर्दी और एक जोड़ा कपड़ा गर्मी का राजकोष से देना भी तय कर दिया।
बता दें कि आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि मुसलमानों के शासक बनने से पहले एक व्यापारी थे । उनका घर मदीना के “सुनह” नामी उपनगर में उनकी पत्नी हबीबा बिंत ख़रीजा के यहां था , फिर निष्ठा की प्रतिज्ञा के छह महीने बाद आप मदीना में स्थानांतरित हो गए। वे सुबह के समय पैदल तो कभी घोड़े पर सवार होकर मदीना आया करते थे। आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि के शरीर पर कमर बंद और एक फटी हुई चादर होती थी। उसी में आप मदीना तशरीफ़ लाया करते थे। लोगों को सलाह – नमाज़ पढ़ाया करते और जब ईशा की नमाज़ अदा करते तो अपने परिवार के पास “सुनह” लौट जाते थे। जब आप तशरीफ़ लाते तो इमामत के कर्तव्य आप ही निभाते और जब कभी आप नहीं आते तो आदरणीय उमर फ़ारूक़ रज़ि लोगों को सलाह – नमाज़ पढ़ाया करते थे । आप जुमा के दिन के पहले हिस्से में “सुनह” में
क़याम फ़रमाते । उस दिन आप अपने सिर और दाढ़ी को ख़िज़ाब देते । फिर जब वह देखते कि अब आसानी से जुमा के समय तक मस्जिदे नबवी में पहुंच जाएंगे तब अपनी यात्रा शुरू करते । वहां पहुंच कर आप जुमा पढ़ाते ।
आपके न्यायाधीश, शास्त्री और कार्यकर्ताओं में आपकी ओर से राजकोष का प्रभार आदरणीय अबू उबैदह रज़ि के पास था । आदरणीय उमर फ़ारूक़ रज़ि के पास न्यायिक मामलों का विभाग था जिसपर आप पूरे एक वर्ष तक इस पद पर बने रहे और उस दौरान दो आदमी भी आपके पास न्याय के लिए नहीं आये। आदरणीय अली बिन अबू तालिब रज़ि , आदरणीय ज़ैद बिन साबित और हज़रत उस्मान बिन अफ़्फ़ान रज़ि बतौर सचिव के रूप में उनके लिए लिखने का कार्य करते थे । फ़तवा विभाग में आदरणीय उमर फ़ारूक़ रज़ि , उस्मान ग़नी रज़ि, अली बिन अबू तालिब रज़ि, अब्दुर्रहमान बिन काब रज़ि और ज़ेद बिन साबित रज़ि जो अपने ज्ञान और सूझबूझ में तमाम लोगों से आगे थे को इस कार्य बाबत नियुक्त किया। इनके अलावा किसी को फ़तवा देने की इजाज़त नहीं थी।
आदरणीय अताब बिन उसैद रज़ि मक्का के गवर्नर थे । ज्ञातव्य है कि जिस दिन आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि का देहांत हुआ उसी दिन उनका भी देहांत हो गया था । ये बहुत ही नेक एवं गुणवान व्यक्ति थे। हज़रत उस्मान बिन अबुल आस रज़ि ताइफ़ के गवर्नर थे।
शासन को लोकतन्त्र की बुनियाद पर चलाने के साथ-साथ शासन व्यवस्था को ठीक-ठाक रखने पर आपने पूरा बल दिया। उन्होंने अरब को अनेकों सूबों व ज़िलों में बांट दिया था, जैसे मदीना, मक्का, तायफ़, सनना, नजरान, हजरमौत, बहरैन और दौमतुलजुन्दल आदि। हर सूबे का एक गवर्नर होता था जो हर ज़िम्मेदारी निभाता , यानी वही एडमिनिस्ट्रेटर भी होता और जज भी। उन्होंने कुछ प्रमुख विभाग राजधानी में भी स्थापित कर रखे थे, जिनके अलग-अलग ज़िम्मेदार हुआ करते थे।
आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि जब किसी को कोई ज़िम्मेदारी देते या किसी पद पर नियुक्त करते तो साधारणतः पहले उसे बुलाते, उसकी ज़िम्मेदारियों की व्याख्या करते और बड़ी ही प्रभावकारी भाषा में अच्छी व सुन्दर रीति-नीति अपनाने को कहते । जैसे यज़ीद बिन सुफ़ियान को सीरिया की ओर भेजते हुए उन्होंने ये शब्द कहे कि “‘हे यज़ीद ! तुम्हारी नातेदारियां हैं, शायद तुम उन्हें अपनी अफ़सरी से फ़ायदा पहुंचाओ, वास्तव में यही सबसे बड़ा ख़तरा है, जिससे मुझे डर है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया है कि “जो कोई मुसलमानों का हाकिम बनाया जाए और वह उन पर केवल रियायत करके किसी को अफ़सर बना दे तो उस पर अल्लाह की धिक्कार हो, अल्लाह उस का कोई बहाना और उसके बदले का कोई भी प्रतिदान स्वीकार न करेगा, यहां तक कि उसे जहन्नम नरक में दाख़िल कर देगा ।’
आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि अधिकारियों पर कड़ी निगरानी रखते थे। किसी भी राज्य में कैसा भी सुगठित व सुव्यवस्थित कानून चल रहा हो, अगर उसके अधिकारियों व ज़िम्मेदार अफ़सरों की कड़ी निगरानी की व्यवस्था न की जाए तो तै है कि शासन-व्यवस्था ढीली-ढाली हो जाएगी। इसी से तो स्वभाव के एतबार से नम्र होने के बावजूद भी आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने शासन-व्यवस्था को बेहतर बनाए रखने के लिए बड़ी निगरानी और कठोर जांच-पड़ताल व पूछ-ताछ का सहारा लिया।
आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि की संसार से उदासीनता अगर देखनी है तो इस में देखिए कि सत्य की राह में अपनी पूरी पूंजी लुटा दी थी। फिर नौबत यहां तक पहुंची कि शासक – खलीफ़ा बनने के बाद वह बैतुलमाल (राजकोष) के छः हजार दिरहम के ऋणी हो गए, लेकिन मुसलमान प्रजा की एक कौड़ी भी अपने ऊपर खर्च करना या औलाद के लिए छोड़ जाना उन्हें पसन्द न था, लेकिन जब उनकी मृत्यु का समय आया तो उन्होंने वसीयत कर दी कि मुसलमानों की संपत्ति में से जो हमारे पास मौजूद है वह वापस कर दो । ऐसा इसलिए क्योंकि मैं उस संपत्ति में से कुछ भी अपने ज़िम्मे नहीं रखना चाहता । मेरा अमुक बाग़ बेच कर बैतुलमाल का ऋण चुका दिया जाए और जो कुछ बच जाए उसे आदरणीय उमर फ़ारूक़ रज़ि के पास भेज दिया जाए । उनके देहांत के बाद जब जांच की गयी तो केवल इतनी चीज़ें निकलीं एक नौकर और दो ऊंटनियां
एक कम्बल ये तमाम चीज़ें उसी समय आदरणीय उमर फ़ारूक़ रज़ि के पास भेज दी गईं। इस्लामी राज्य के दूसरे खलीफ़ा की आंखें छलक पड़ीं, रोकर बोले- ‘अबूबक्र ! अल्लाह तुम पर कृपा करे, तुम मरने के वाद भी संसार से उदासीनता की शिक्षा देना न भूले और न ही इसका मौक़ा दिया कि कोई तुम पर उंगली रख सके ।’
आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि का धार्मिक जीवन मुस्लिम समुदाय के लिए अनुकरणीय है। आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि रात-रात भर नमाज़ें पढ़ते, दिन को प्रायः रोज़े रखते, खासतौर से गर्मी का मौसम रोज़ों ही में बीतता । नमाज़ों में एकग्राता की स्थिति यह थी कि लकड़ी की तरह बिना हिले-डुले खड़े रहते, अल्लाह ईश्वर का डर इतना पैदा होता कि रोते-रोते हिचकी बंध जाती थी । अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास और परलोक का भय इतना रहता कि हरा-भरा पेड़ देखते तो कहते. ‘काश ! मैं पेड़ ही होता कि हिसाब-किताब के झगड़ों से छूट जाता।’ किसी बाग़ से गुज़रते और चिड़ियों को चहचहाते देखते तो ठंडी आहें भर कर कहते- ‘चिड़ियो ! तुम्हें मुबारक हो कि दुनिया में चरती-चुगती हो, पेड़ों की छाया में बैठती हो और क़ियामत में तुम्हारा कोई हिसाब-किताब नहीं । काश ! अबूबक्र भी तुम्हारी तरह होता !’
क़ुरआन मजीद जब पढ़ते तो अनचाहे ही आंखों से आंसू जारी हो जाते और इतना फफक-फफक रोते कि आस-पास के तमाम लोग जमा हो जाते ।
पुण्य वटोरने का लोभ उनमें कितना था, इसका अंदाज़ा इस घटना से कीजिए कि एकदिन पैग़म्बरे इस्लाम ने साथियों से पूछाः- आज तुममें से रोज़ा कौन है ?’
‘मैं’ हजरत अबवक्र ने कहा ।
फिर कहा- ‘आज किसी ने जनाज़े का साथ दिया है ? किसी ग़रीब को खाना खिलाया है ? किसी ने बीमार को देखने जाने का साहस किया है ?’
इन सवालों के जवाब में अगर किसी ने हां कहा तो वह आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि थे। आप सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जिसने एक दिन में इतने पुण्य बटोर लिए हों वह निश्चय ही जन्नत में जाएगा”।