इस्लामी जगत के सुपरहिट हीरो नंबर 1 – शासक आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि”अगर मैं अच्छा करूं तो मेरा साथ दीजिए और अगर मैं ग़लत करुं तो मुझे सीधा कर देना” (मुस्लिम समुदाय का जीवन न्याय प्रिय , अपराध और बुराईयों से मुक्त होकर फैलती बुराईयों को दूर करने वाला होना चाहिए)- डॉ एम ए रशीद , नागपूर

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इस्लामी जगत के सुपरहिट हीरो नंबर 1 – शासक आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि
“अगर मैं अच्छा करूं तो मेरा साथ दीजिए और अगर मैं ग़लत करुं तो मुझे सीधा कर देना” (मुस्लिम समुदाय का जीवन न्याय प्रिय , अपराध और बुराईयों से मुक्त होकर फैलती बुराईयों को दूर करने वाला होना चाहिए)
—————— डॉ एम ए रशीद , नागपूर
लोगों के बीच न्याय और समानता स्थापित करने के सिलसिले में आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि के इस्लामी जगत के शासनकाल में किए जाने वाले प्रयास सराहनीय हैं। इसके लिए उन्होंने अपने आप को समर्पित कर दिया था। उन्होंने ने कहा कि “आप लोगों में का सबसे कमज़ोर इंसान भी मेरे समीप ताक़तवर है, जब तक कि मैं दूसरों से उसका हक़ न दिला दूं और आप लोगों में का ताक़तवर इंसान भी मेरे समीप कमज़ोर है यहां तक कि मैं उससे दूसरों का हक न प्राप्त कर लूं” इन शा अल्लाह। इस्लामी जगत के लक्ष्यों में इस्लामी व्यवस्था की बुनियादें ही इस्लामी समाज की स्थापना में सहायक बनीं थीं । उन बुनियादों में सबसे महत्वपूर्ण सलाहकार परिषद ,

न्याय, समानता और स्वतंत्रता की अहम भूमिका रही । आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने अपने संबोधन में प्रजा को इन सिद्धांतों और बुनियादों को सिद्ध भी कर दिखाया था। आपकी निष्ठा की प्रतिज्ञा , चुनाव तथा मस्जिद में सामान्य सम्बोधन शूराईयत अर्थात आपसी सहमति जो संवाद और विचार विमर्श को सिद्ध करते हैं और आपके सम्बोधन के श्रेणीबद्ध आदेश से न्याय भी उजागर होता था। आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि की राय में न्याय का अर्थ इस्लामी न्याय से रहा है । यह इस्लामी समाज और इस्लामी शासन की स्थापना में मुख्य स्तम्भ माना जाता है। इस प्रकार जिस समाज में अन्याय , अत्याचार का एक लंबा इतिहास हो और न्याय का कोई नामोनिशान न हो वहां इस्लाम का अस्तित्व नहीं हो सकता । इस्लाम धर्म के अनुसार लोगों के बीच न्याय स्थापित करना सबसे पवित्र , महत्वपूर्ण , सर्वोच्च दायित्वों और अनिवार्यताओं में से एक है । न्याय के दायित्व पर उम्मत अर्थात मुस्लिम समुदाय की आम सहमति भी रही है और शासक के लिए न्यायपूर्वक शासन करना अनिवार्य माना गया है। इस निर्णय का समर्थन किताब व सुन्नत ( पवित्र क़ुरआन और हदीस माला ) से होता है । इस्लामी साम्राज्य में इस्लामी समाज के अंदर न्याय और समानता आम रुप से पाई जाती है और वह सभी प्रकार के उत्पीड़न से मुक्त होता है। वहां प्रत्येक इंसान के सामने उसके अपने अधिकारों की मांग का मार्ग इस तरह से प्रशस्त होता है कि वह बिना किसी कठिनाईयों या धन दौलत खर्च किए आसानी से और त्वरित तरीके से अपना हक और न्याय प्राप्त कर सकता है। इस न्याय की प्राप्ति में इस्लामी शासन की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन सभी संसाधनों और समस्याओं को समाप्त करे जो न्याय की प्राप्ति में बाधक या रुकावटें बन रही हैं ।
इस्लाम ने लोगों के बीच न्याय स्थापित करने के लिए ज़ोर दिया है ।इस न्यायिक प्रक्रिया में भाषा, देश, सामाजिक स्थिति में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। इस प्रक्रिया में शासक का उत्तरदायित्व बनता है कि वह प्रजा के बीच न्याय सत्य के आधार पर करे । न्याय के समय शासक को इसकी परवाह नहीं होनी चाहिए कि न्याय के हकदारों में कौन उसका मित्र है या शत्रु , अमीर है या ग़रीब, मज़दूर है या व्यापारी । वह किसी का भी न्याय प्रभावित नहीं कर सकता। पवित्र क़ुरआन की सूरह अलमाइदा की पंक्ति क्र 8 में अल्लाह तआला का फ़रमान है कि “हे ईमान वालो! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ साक्ष्य देने वाले रहो तथा किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इसपर न उभार दे कि न्याय न करो। वह (अर्थात सबके साथ न्याय) अल्लाह से डरने के अधिक समीप है। निःसंदेह तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह , ईश्वर उससे भली-भांति सूचित है। इसी संबंध में (सह़ीह़ मुस्लिमः1827) में ह़दीस है कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कहते हैं कि “न्याय करने वाले अल्लाह के यहां रहमाने अ़ज़्ज़ा वजल ल के दायें ओर नूर (प्रकाश) के मंचों पर होंगे, और उस के दोनों हाथ दायें हैं , ये वही लोग होंगे जो अपने फ़ैसलों , अपने परिजनों और जिनके ये ज़िम्मेदार हैं उन के मामले में न्याय करते हैं”।
आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि न्याय का एक अद्भुत उदाहरण थे । न्याय के प्रति वे न्याय के हकदारों के दिलों पर कब्ज़ा कर लेते थे और न्याय के प्रति बुद्धिमानों की बुद्धि को स्तब्ध कर देते थे। आपकी नज़र में न्याय इस्लाम के लिए एक व्यावहारिक आह्वान है, जिसके कारण लोगों के दिल ईमान के लिए खुल जाते हैं। वे लोगों के बीच दिए जाने वाली दान दक्षिणा को भी न्याय के साथ वितरित करते थे। अपने ढ़ाई वर्षीय शासन काल में आप लोगों से यह भी अनुरोध करते कि वे न्याय में उनका सहयोग करें । एक बार आपने स्वयं अपने आप को प्रतिकार के लिए प्रस्तुत कर दिया था, इस समय न्याय और ईश्वर के भय पर उनके दर्दनाक शब्द निकले थे। उस घटना के संबंध में अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रह कहते हैं कि अबू बकर रज़ि ने एक जुमा ( शुक्रवार ) को घोषणा की कि कल हम ज़कात के ऊंट बांटेंगे । आप लोग आ जाएं परन्तु बिना अनुमति के कोई अन्दर न आये।
एक महिला ने अपने पति को नकेल दी और कहा कि इसे ले जाओ, उम्मीद है कि अल्लाह हमें ऊंट अता कर दे। यह व्यक्ति पहुंचा और देखा कि अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि और उमर रज़ि ऊंटों के बाड़े में प्रवेश कर रहे हैं , यह भी पीछे से प्रवेश हो गया। अबू बकर रज़ि ने मुड़कर देखा और कहा कि “तुम कैसे आये?” फिर उससे नकेल ली और उसको मारा। फिर जब ऊंटों के वितरण से मुक्त हुए तो उस व्यक्ति को बुलाया और ऊंट की नकेल उसके हाथ में पकड़ाई और कहा कि तुम अपना बदला ले लो।
उमर रज़ि ने कहा कि अल्लाह की क़सम, वह बदला नहीं ले सकता, आप इसको सुन्नत न बनाएं।
अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने कहा कि क़यामत के दिन मुझे अल्लाह से कौन बचाएगा?
उमर रज़ि ने कहा कि आप उसे खुश कर दीजिए।
अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने अपने नौकर को आदेश दिया कि उस को एक ऊंटनी , कजावे (ऊंट की पीठ पर रखी जाने वाली काठी जो बैठने अथवा सामान लादने के उपयोग में लाई जाती है, ऊंट का हौदा जिसमें दोनों ओर आदमी बैठते हैं) के साथ, एक चादर और पांच दीनार दे दो। यह सब उसको देकर खुश किया।
फिर समानता का सिद्धांत जिसे अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने मुस्लिम समुदाय से अपने संबोधन में साबित किया था वह इस्लाम के सामान्य सिद्धांतों में से एक है जो इस्लामी समाज के गठन और निर्माण में सहायक भूमिका निभाता हैं । इस संबंध में इस्लाम ने समकालीन के दीगर कानूनों को पीछे छोड़ कर उनसे बढ़त बनाई ली थी। इसका उदाहरण पवित्र क़ुरआन की सूरह अल हुजरात की पंक्ति क्र 13 में अल्लाह का फ़रमान के रूप में मिलता है कि “हे मनुष्यो! हमने तुम्हें पैदा किया एक नर तथा नारी से तथा बना दी हैं तुम्हारी जातियां तथा प्रजातियां, ताकि एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में तुममें अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है, जो तुममें अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो। वास्तव में अल्लाह सब जानने वाला है, सबसे सूचित है”।
इस्लाम की नजर में सभी लोग समान हैं, चाहे वे शासक हों या प्रजा, पुरुष हों या महिला, अरब हों या दूसरे देशों के, गोरे हों या काले। इस्लाम ने लिंग, रंग, वंश और जाति के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव को समाप्त कर दिया है। अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि का इस सिद्धांत पर डंटे रहना इसका स्पष्ट उदाहरण है।
आदरणीय अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि कहते हैं कि मैं आप लोगों पर शासक बनाया गया हूं परन्तु मैं आप लोगों से में श्रेष्ठ नहीं हूं। अगर अच्छा करूं तो मेरा साथ दीजिए और अगर मैं ग़लत करूं तो मुझे सीधा कर देना, आप लोगों में का कमज़ोर इंसान भी मेरे समीप ताकतवर है, जब तक कि मैं दूसरों से उसका हक़ न दिला दूं और आप लोगों में का ताकतवर इंसान भी मेरे समीप कमज़ोर है यहां तक कि मैं उससे दूसरों का हक न प्राप्त कर लूं।
इससे यह पता चलता है कि इस्लामी जगत में मुस्लिम समुदाय के विशेष रूप से विचारशील और दूरदृष्टि वाले लोगों की शरई ज़िम्मेदारी बनती थी कि वे सरकार के मामलों से खुद को अलग थलग न रखें बल्कि शासक पर कड़ी नज़र रखें । यदि वह शरियत के मार्गदर्शन का पालन कर रहा है , वह अल्लाह और उसके दूत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम के निर्देशों और सीमाओं के प्रति सख्ती से प्रतिबद्ध है तो उसके हाथ और उसका सहारा बन जाएं। फिर यदि वह सत्य की आवाज़ के प्रति अंधा और बहरा हो गया है, तो उसे पदच्युत कर दिया जाए। कुछ लोग अपने तक़वा ( ईशपरायण्ता) और परहेज़गारी पर घमंड करते हैं और उनके आसपास कुछ भी होता रहे उससे अलग रहते हैं, ऐसे शासकों (अमीर , ख़लीफ़ा) के लिए बहुत सी हदीसें मार्ग दर्शन करती हुई दिखाई देती हैं।
“हजरत हुदैफ़ा बताते हैं कि अल्लाह के दूत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ” सर्वशक्तिमान अल्लाह ईश्वर की क़सम जिसकी शक्ति में मेरी आत्मा है, आप पर अनिवार्य है कि अच्छाई का आदेश दो और बुराई से रोको वरना दूर नहीं कि अल्लाह तुम पर अपना अज़ाब नाज़िल फ़रमाए फिर तुम ज़रूरी दुआएं भी करोगे लेकिन वे अल्लाह के यहाँ क़ुबूल न होगी’ (सुनन तिर्मिज़ी: 2169)।
इस्लामी जगत के शासन से तात्पर्य समाज को अत्याचारियों , भ्रष्टाचारीयों आदि अवगुण धारियों से पवित्र रखने से है । इतिहास के अधिकांश कालखंडों में देखा गया है कि सत्ता के नशे में चूर रहने वाला अत्याचारी शक्तिशाली होता है, वह ऐसा प्रभावी होता है कि उसके सामने कानून निष्प्रभावी हो जाते हैं , न्याय व्यवस्था ठप्प हो जाती है और शैतानी हथकंडे परवान चढ़ते हैं। ख़िलाफ़ते रब्बानी (ईश्वरीय सरकार) और अमारते इस्लामी (इस्लामी अमीरात) की स्थापना का पहला उद्देश्य यही है कि अत्याचार के बढ़ते हाथों को रोका जाए। हक़ की शक्ति को स्वीकार किया जाए । उत्पीड़ित चूंकि हक़ व सच्चाई पर होता है इसलिए राज्य को अपनी शक्ति उसके पक्ष में रखनी चाहिए ताकि उत्पीड़क हक़ की शक्ति को पहचानकर उसके सामने झुक जाए और उत्पीड़ित को उसका हक देने के लिए सहमत हो जाए।” हजरत अबू बकर सिद्दीक रज़ि ने अपने पहले ख़िलाफ़त उपदेश में शासन के दर्शन को व्यावहारिक रूप से कर के दिखाया। विदित हो कि उत्पीड़ित की पुकार इतनी प्रभावी होती है कि वह ईश्वर अल्लाह के सिंहासन को हिला देती है। अल्लाह के दूत पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “मज़लूम अर्थात उत्पीड़ित की फ़र्याद से डरो, क्योंकि उसके और अल्लाह के बीच कोई पर्दा नहीं है” (बुख़ारी हदीस ग्रंथ 1496)।
उपरोक्त घटनाएं इस्लामी जगत में हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि के शासनकाल की हैं । इसके मद्देनज़र मुस्लिम समुदाय की ज़िम्मेदारी बनती है कि अपने अंदर अल्लाह ईश्वर का भय पैदा करे , अपना जीवन अपराध , बुराईयों से मुक्त और न्याय प्रिय बनाए , न्याय के प्रति अपनी छवि को सुदृढ़ करे कि जहां न्याय और साक्ष्य की बात हो तो उसमें बिल्कुल भी कोताही न बरते दूसरी ओर फैलती बुराईयों को दूर करने के लिए अपने आप को घर , परिवार और समाज को बचाने का प्रयास करे।