नागपुर मनुष्य का स्वभाव है कि जब उसे लगता है कि उसका महत्व कम हो रहा है तो नकारात्मक विचार उस पर आक्रमण करते हैं और यहीं से दूरियां पैदा होना आरंभ हो जाती हैं । इंसान न चाहते हुए भी किसी अपने के बारे में बुरा सोचने से ख़ुद को नहीं रोक पाता। पक्षपात के नकारात्मक प्रभाव प्रभावित व्यक्ति के साथ जीवन भर बने रहते हैं और फिर इन प्रभावों के कारण उसमें दुःशीलता, कठोरता, बेरहमी, हीन भावना, अवसाद और मनोवैज्ञानिक जटिलताएँ पैदा हो जाती हैं । ऐसी भावनाओं से समाज का मनोवैज्ञानिक रूप से धीरे धीरे प्रभावित होना आरंभ कर देता है। इसलिए ऐसी विकट स्थिति से बचने के लिए निष्पक्षता , इंसाफ़, ग़ैरजानिबदार ,अपक्षपात मनोवैज्ञानिक रूप से समृद्ध समाज का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। मुस्लिम समुदाय को इस्लामी शिक्षाओं पर अमल करना एक बड़ा कर्तव्य बनना चाहिए ।
यह निष्पक्षता , ग़ैरजानिबदारी, इंसाफ़, अपक्षपात अर्थात न्याय ईश्वर अल्लाह के सबसे बड़े गुणों में से एक अतिआवश्यक गुण है। ईश्वर के न्याय से ही संसार का यह सारा कार्यालय चल रहा है। उसका न्याय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण- कण में काम कर रहा है। न्याय का शाब्दिक अर्थ है एक वस्तु के दो बराबर-बराबर भाग, जो तराज़ू में रखने से एक समान उतरें, उन में रत्ती भर का भी अंतर न हो और व्यवहारतः हम इस का अर्थ यह लेते हैं कि जो बात कही जाए या जो काम किया जाए वह सच्चाई पर आधारित हो, उसमें तनिक भी पक्षपात या किसी प्रकार की असमानता न हो।
इस्लाम में इस प्रकार के न्याय को बहुत महत्व दिया गया है और क़ुरआन में जगह-जगह इंसान के लिए न्याय करने के आदेश मौजूद हैं। इसमें जहाँ गुण सम्बन्धी ईश्वर अल्लाह के विभिन्न नाम आए हैं, वहाँ एक नाम “आदिल अर्थात् न्यायकर्ता” भी आया है। ईश्वर चूंकि स्वयं न्यायकर्ता है, वह अपने बन्दों से भी न्याय की आशा रखता है। पवित्र क़ुरआन में है कि ईश्वर न्याय की ही बात कहता है और हर बात का निर्णय न्याय के साथ ही करता है। इस संबंध में क़ुरआन की निम्न पंक्तियां न्याय का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं जिन से बढ़कर स्पष्ट और खुला आदेश नहीं हो सकता है कि
(1) पवित्र क़ुरआन 5:42 में उल्लेखित है कि “यदि आप कोई निर्णय करें तो लोगों के बीच न्याय के साथ निर्णय करें। निस्सन्देह, ईश्वर न्याय करने वाले को प्रिय रखता है।”
(2) पवित्र क़ुरआन, 4:58 के अनुसार “जब कोई मामला चुकाओ तो न्याय से काम लो।”
(3) “ऐ ईमान वालो! न्याय पर मज़बूती से जमे रहने वाले बनो।” यही नहीं कि ईश्वर ने साधारण स्थिति में न्याय करने का आदेश दिया है बल्कि
दूसरे लोगों के भड़काए जाने पर भी न्याय ही करने का आदेश दिया है, एक स्थान पर है कि “किसी विशेष सम्प्रदाय की शत्रुता के कारण तुम न्याय से विमुख न हो जाओ, बल्कि न्याय से अवश्य काम लो।” (पवित्र क़ुरआन 5:8 )
मुस्लिम हदीस ग्रंथ में पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इसी प्रकार का कथन वर्णित है कि
“निस्सन्देह न्याय करने वाले क्रियामत के दिन ऊँचे स्थानों पर होंगे, जो कि जगमगाते होंगे और उनका स्थान ईश्वर अल्लाह की दाई ओर होगा।”
यहाँ पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जीवन की घटनाओं का वर्णन पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कितने न्यायप्रिय थे और न्याय से कितना काम लेते थे।
एक बार आपने आवश्यकतावश किसी से एक प्याला लिया, वह किसी प्रकार से टूट गया। आपने वैसा ही प्याला खरीदकर उसे वापस दिया।
जब पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का अंतिम समय निकट आया तो आपने सभी लोगों को बुलाया और कहा कि
“यदि मैंने किसी को बुरा-भला कहा हो तो वह भी मुझे जी भरकर बुरा-भला कह ले और यदि मैंने किसी को कोई कष्ट दिया हो तो वह भी मुझे मनमाना कष्ट दे ले।” यह है पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु की महानता! जो इस्लाम धर्म की महानता के साथ जुड़ी हुई है।
हमें इस घटनाक्रम को ध्यान से पढ़ने और उसे अपने दिल के तराज़ू में तौलने की भी आवश्यकता है । ताकि ईश्वर अल्लाह के दरबार में जरा-सी बेइंसाफ़ी के हिसाब से बचा जा सके । ऐसी घटनाओं से इस्लाम की गरिमा प्रकट होती है। पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन की इस घटना से उपदेश ग्रहण करना चाहिए। यह जीवन में आदर्श बनाने के योग्य है।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब किसी अन्य धर्मावलम्बी से कोई संधि करते थे तो अपने अनुयायियों को सदा ताक़ीद करते थे कि हर बात में न्याय को ध्यान में रखा जाए: क्योंकि ईश्वर अल्लाह स्वयं न्यायकर्ता है और न्याय को ही प्रिय रखता है।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक बार फ़रमाया कि “जो व्यक्ति अन्याय से किसी की बित्ती, बालिश्त भर भी ज़मीन ले लेगा, तो वह कियामत के दिन सातों ज़मीनों तक धंसाया जाएगा।” ( बुख़ारी)
देखा जाए तो आज हम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ऐसे बहुत से स्पष्ट आदेशों के विरुद्ध आचरण कर रहे हैं, इसका कारण यह है कि या तो हमें आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदेशों का पता ही नहीं है या फिर हम उन बातों पर ईमान न रखते हुए जानबूझकर उनकी अवहेलना कर रहे हैं । यदि हम इस्लाम की शान को बुलन्द रखना चाहते हैं तो हमें किसी भी समय न्याय को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। न्यायप्रियता और सत्यवादिता को अपना जीवन ध्येय चनाना चाहिए। ईश्वर हमे न केवल न्याय करने का आदेश देता है, बल्कि सुकर्म करने की भी आदेश देता है। पवित्र क़ुरआन 16:90 में फ़रमाया गया है कि “निस्सन्देह ईश्वर अल्लाह तुम्हें न्याय और सुकर्म की आज्ञा देता है।”
किसी संविधान का आधार न्याय ही होता है और यह न्याय सुकर्म नैतिकताओं से ही उत्पन होता है। ईश्वर अल्लाह ने संसार का प्रबन्ध स्थापित करने के लिए सर्वप्रयम न्याय का आदेश दिया है और इसके साथ ही नेकी , भलाइयां करने की भी हिदायत की है। पवित्र कुरआन में न केवल सांसारिक सम्बन्धों में न्याय से काम लेने की ताक़ीद की गई है, बल्कि घरेलू जीवन में भी इस पर बड़ा ज़ोर दिया गया है।
इस प्रकार साधारण लेन-देन के सम्बन्ध में पवित्र क़ुरआन 6 : 132 में न्याय से काम लेने का आदेश आया है और संधिपत्र आदि के आलेख लिखने में भी न्याय को नज़र में रखने की आज्ञा पवित्र क़ुरआन 2 : 282 में
आई है । पवित्र क़ुरआन 5:8 में गवाही देने के बारे में भी न्याय से काम लेने की ताक़ीद की गई है। मानव जीवन के हर विभाग में इस्लाम ने न्याय को सदा आगे रखा है। न्याय के सम्बन्ध में साधारण असाधारण, धनी-निर्धन,
अपने-बेगाने सबके साथ समानता और बराबरी का व्यवहार करने का आदेश दिया है; क्योंकि सबका पालनकर्त्ता तो एक ही है और सभी उसके बन्दे हैं। इस नाते सभी भाई-
भाई हुए और भाई को भाई के साथ न्याय करना आवश्यक ही है; अन्याय करना अपने पालनकर्ता ईश्वर अल्लाह को नाराज़ करना होगा।
इंसान को चाहिए कि वह लोभ लालच के कारण कुत्सित इच्छाओं को उभार कर दूसरों के अधिकार छीनने, दूसरों के माल पर क़ब्ज़ा ज़माने, दूसरों की भूमि एवं मकान हथियाने, दूसरों की वस्तुओं को हड़पने के लिए शैतानी काम न करे ।
पवित्र क़ुरआन 4:135 में न्याय के सम्बन्ध में जितनी पंक्तियां आई हैं, उनमें अन्याय के एक-एक कण को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया है। हर जगह न्याय से काम लेने की ताक़ीद की गई है। न्याय के सामने अन्याय को किनारे रखने, पारिवारिक सम्बन्धों का लिहाज़ न करने, अपने विशेषजनों की रिआयत न करने, धनी और निर्धन में कोई फर्क न करने, गवाही में किसी प्रकार के पक्षपात से काम न लेने और अपने व्यक्तिगत लाभ एवं स्वार्थ को अलग रखने आदि की बड़ी ताक़ीद आई है।
आज हमें इन ईश्वरीय आदेशों को अपने दिल में स्थान देकर उनका पालन करना चाहिए , उनको अपने व्यावहारिक जीवन में ग्रहण करना चाहिए । इससे न केवल इंसान के तमाम झगड़े समाप्त हो जाएंगे, बल्कि अंतर्जातीय और अन्तर्राष्ट्रीय विवाद भी मिट सकते हैं । दुख इस बात का है कि हमने इन शिक्षाओं को केवल इस बात पर गर्व करने के लिए छोड़ दिया है कि हमारे धर्म में ऐसी शानदार शिक्षाएं मौजूद हैं। हमने कभी यह नहीं सोचा कि इन शिक्षाओं पर अमल करना भी हमारा कर्तव्य है। सच यह है कि इन पर अमल ह सच्चे-पक्के धार्मिक इंसान बन सकते हैं। धर्म हमको प्रकाश की ओर ले जाता है। किन्तु हम अंधेरे ही में भटकने और ठोकरें खाने को अपने लिए श्रेयस्कर समझते हैं।