आस्था,अक़ीदा सिर्फ वचन, ज़बान स्वीकारोक्ति का नाम नहीं (मुस्लिम समुदाय को ईमान, इबादत,नैतिकता और लेन-देन में विशेष महत्व देना चाहिए )-डॉ एम ए रशीद,नागपुर

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‌ किसी बात को ज़बान से स्वीकार करना इक़रार स्वीकारोक्ति कहलाता है। यह दर्जा किसी चीज़ की स्वीकृति, किसी वादे की प्रतिबद्धता या पूर्ति, किसी रिश्ते की स्वीकृति और किसी स्थिति की मान्यता और उसकी स्वीकृति को दर्शाता है। ज़बान से यही स्वीकृति कानूनी तौर पर अपराध के पर्याय के रूप में भी प्रयोग होती है। अदालतों में वह निर्णय का आधार बनती हैं। इस्लामी जीवन में इस अक़ीदे के चार प्रमुख हिस्सों में ईमान , इबादत , नैतिकता और लेन-देन महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । मुस्लिम समुदाय को इन चारों हिस्सों में विशेष ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि ये चारों हिस्से आपस में एक दूसरे से बड़ी घनिष्टता से जुड़े हुए होते है। इनमें से किसी को भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है, ये सभी मिलकर एक अद्वैतवाद, अद्वैत भाव, ईश्वर को एक मानना का सूचक हैं। इनमें से किसी एक की भी कमी दूसरे पर प्रभाव डालती है। इसलिए एक का अस्तित्व दूसरे केअस्तित्व को जीवित रखता है । इसलिए यदि अक़ीदा, आस्था नहीं होगी तो फ़िर बंदगी, उपासना नहीं हो सकेगी और यदि आचार ठीक नहीं होगा तो लेन-देन भी उचित प्रकार से नहीं हो सकेगा। इन सभी का अद्वैत भाव, वहदत से गहरा नाता है। उदाहरण स्वरूप वह इस प्रकार से है जैसे कि किसी कमरे में चारों कोनों में चार कंदिल , दीपक जला दिए जाएं तो वे चारों अलग-अलग दिखाई तो देंगे, लेकिन चारों की रोशनी आपस में ऐसी गुत्थी हुई होगी कि उसको निर्धारित करना संभव नहीं होगा‌ कि यह रोशनी किस कंदिल या दीपक की है और कहां तक है , फिर किस स्थान से दूसरे की रोशनी आरंभ होती है। ये चारों रोशनी मिलकर एक वहदत एकत्व, बन जाएंगी। यही बात उन चारों धर्म घटकों के साथ भी है कि देखने में वे अलग-अलग हिस्से हैं, लेकिन परिणाम की दृष्टि से ये सभी एक साथ मिलकर व्यक्ति के चरित्र को प्रभावित करते हैं और व्यक्ति का चरित्र इन चारों के साथ-साथ चलता है। ऐसा हो नहीं सकता कि आस्था , अक़ीदे तो बहुत अच्छे हों और मामले और व्यवहारिकताएं बहुत अधिक भ्रष्ट हों अथवा इबादतें सही हों लेकिन आचार-विचार ठीक न हों। अगर अक़ीदे और व्यवहारिक स्वरूप में बिगाड़ दिखाई दे तो समझ लेना चाहिए कि हमारे किसी भाग में अधूरापन है । किसी भी इंसान के कर्म में कमज़ोरी दिखाई दे तो निश्चय ही वह आस्था , अक़ीदे की कमज़ोरी का परिणाम होगी। आस्था किसी मौखिक स्वीकारोक्ति का नाम नहीं है, बल्कि यह ईमान और विश्वास का नाम है जो किसी कार्य की प्रेरणा से होता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छे आचरण एक ऐसा धर्म का हिस्सा हैं जिसे दीन धर्म के किसी हिस्सों से अलग नहीं किया जा सकता ‌। ऐसा नही हो सक‌ता कि कोई इंसान आस्था, अकीदे में ख़ुश हो या इबादतों और उपासनाओं आदि में ख़ुश हो किन्तु आचरण में अच्छा न हो । इन परस्पर विरोधी आचरणों से समझा जा सकता है कि उसके आस्था , अक़ीदे में कहीं न कहीं बिगाड़ है।
पवित्र कुरआन की आज्ञाओं में आस्था अर्थात अक़ीदा , मामले और नैतिकताओं से संबंधित सभी निर्देश एक ही श्रृंखलाबद्ध तरीके से जुड़े मिलते हैं जैसे कि वे सूरह निसा की पंक्ति क्रमांक 36, 37 में इस प्रकार से दिखाई देते हैं कि “तथा अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ तथा माता-पिता, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, समीप और दूर के पड़ोसी, यात्रा के साथी, यात्रि और अपने दास दासियों के साथ उपकार करो। निःसंदेह अल्लाह उससे प्रेम नहीं करता, जो अभिमानी अहंकारी हो। (अर्थात डींगें मारता तथा इतराता हो) तथा, जो लोग अपना धन, लोगों को दिखाने के लिए दान करते हैं और अल्लाह तथा अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान नहीं रखते तथा शैतान जिसका साथी हो, तो वह बहुत बुरा साथी है।”
इन पंक्तियों में साधारण सहानुभूति और उपकार का आदेश दिया गया है कि अल्लाह ने जो धन-धान्य तुम को दिया, उस से मानव की सहायता और सेवा करना चाहिए। जो व्यक्ति अल्लाह पर ईमान रखता हो उस का हाथ अल्लाह की राह में दान करने से कभी नहीं रुक सकता। किसी भी इंसान ने दान करना है तो अल्लाह के लिये ही करना चाहिए। दिखावे और नाम के लिये न करना चाहिए। जो नाम के लिये दान करता है, वह अल्लाह तथा आख़िरत पर सच्चा ईमान , अक़ीदा (विश्वास) नहीं रखता।
इनमें कर्म, चरित्र के बाहरी और आन्तरिक पहलुओं के बीच किसी प्रकार का अंतर दिखाई नहीं देता । पवित्र कुरआन इंसान को बाहयरी और आंतरिक इंसान के दृष्टिकोण से नहीं पुकारता बल्कि एक समग्र, मुकम्मिल इंसान की हैसियत से संबोधित करता है। जिस का मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक जीवन एक प्रकार से वहदत व कुल्लियत यानी एकीकृत एकता से है। इसीलिए सुरह बक़र की पंक्ति क्र. 208 में कहा गया कि “हे ईमान वालो! तुम सर्वथा इस्लाम में प्रवेश (अर्थात इस्लाम के पूरे संविधान का अनुपालन करो) कर जाओ और शैतान की राहों पर मत चलो, निश्चय वह तुम्हारा खुला शत्रु है।” अर्थात अपनी पूरी ज़िंदगी पूरा जीवन किसी अपवाद के बिना इस्लाम के तहत ले आओ। विचार, ज्ञान , दृष्टिकोण, चाल चलन , मामले ( कर्म)‌ सभी कुछ इस्लाम के अधीन हों। ऐसा न हो कि अपने जीवन को दो चार अलग-अलग भागों में बांट दो और कुछ भाग पर इस्लाम का अनुकरण हो और कुछ भाग उस से पूरी तरह से मुक्ति हों ।