इस्लाम की पारिवारिक व्यवस्था रमज़ानुल मुबारक पर विशेष अल्लाह की सीमाओं पर कायम न रह पाने पर शरियत कानून रिश्ता तोड़ सकती है,डॉ एम ए रशीद नागपुर

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अल्लाह की सीमाओं पर कायम न रह पाने पर शरियत कानून रिश्ता तोड़ सकती है
——————- डॉ एम ए रशीद नागपुर

इस्लाम की पारिवारिक व्यवस्था

रमज़ानुल मुबारक पर विश नागपुर
मानवीय जीवन के इस सांस्कृतिक ढांचे में इस्लाम के बहुत से आदेश और उपदेश बताए गए हैं। इस मानव सभ्यता की बुनियाद एक मर्द और एक औरत के पारस्परिक समागम से अस्तित्व में आती है। इन्हीं दो इन्सानों से मिलकर बनने वाली छोटी-सी सामूहिक संस्था मानव की सांस्कृतिक जीवन की सबसे पहली कड़ी होती है। इस सामूहिक संस्था को मानव का ‘पारिवारिक जीवन’ और उसके लिए जो नियम होते हैं उन्हें ‘पारिवारिक व्यवस्था’ कहते हैं। इस्लाम की इस पारिवारिक व्यवस्था के कुछ अहम् पहलू इस प्रकार से हैं कि मर्द और औरत का यह स्थाई समागम एक स्पष्ट समझौते के अस्तित्व में आता है । इसे शरीअत की भाषा में ‘निकाह’ कहते हैं। यह निकाह एक पवित्र रिश्ता है, जो दोनों की मर्ज़ी से और पूरी उद्घोषणा के साथ जोड़ा जाता है। निकाह के बिना मर्द और औरत का सम्बन्ध घोर पाप और अत्यन्त दण्डनीय अपराध है। निकाह केवल एक प्राकृतिक ज़रूरत ही नहीं बल्कि एक शरई ज़रूरत भी है। हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि “मैं औरतों से निकाह भी करता हूं जो कोई मेरे इस तरीके (सुन्नत) से परहेज़ करेगा वह मेरा न रहेगा।” (बुख़ारी, भाग-2 )
इस ज़रूरत से अपने को अलग थलग रखना , संन्यास ले लेना इस्लामी तरीक़ा नहीं है। हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन (रज़ि.) ने पौरुष्यहीन (खस्सी) होने की अनुमति मांगी तो आप (सल्ल.) ने अनुमति नहीं दी (बुख़ारी, भाग-2) । निकाह के समझौते को पवित्र क़ुरआन (4:21) ने ‘पुख़्ता समझौता’ (मीसांकन ग़लीज़ा) ठहराया है। इस समझौते के द्वारा दोनों अपने पर भारी जिम्मेदारियां ले लेते हैं । इस रिश्ते से जो एक छोटा-सा सामुदायिक एकत्व बनता है, मर्द उसका निरीक्षक और महा प्रबन्धक होता है और औरत उसके आदेश के‌ अधीन घर की व्यवस्था एवं प्रबन्ध का संचालन करती है। इस बात को पवित्र क़ुरआन 4:34 में इस प्रकार बताता है कि “पुरुष स्त्रियों के व्यवस्थापक हैं, इस कारण कि अल्लाह ने उनमें से एक को दूसरे पर प्रधानता दी है तथा इस कारण कि उन्होंने अपने धनों में से (उनपर) ख़र्च किया है। अतः, सदाचारी स्त्रियाँ वो हैं, जो आज्ञाकारी तथा उनकी (अर्थात, पतियों की) अनुपस्थिति में अल्लाह की रक्षा में उनके अधिकारों की रक्षा करती हों”
पति को पत्नी और होने वाली सन्तान के लिए भोजन, कपड़े , निवास मतलब यह कि जीवन की हर एक ज़रूरत की पूर्ति करेगा । जीवन की आवश्यकताओं का यह प्रबन्ध उसे अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार ही करना होगा । इस ज़िंदगी में पति न तो क़र्ज़ के बोझ तले दबने के रास्ते निकालने की कोशिश करेगा और न ही फ़िज़ूल ख़र्ची में अपनी धन संपदा को लुटाएगा ।
इस सामुदायिक एकत्व में मर्द की ज़िम्मेदारी को पवित्र क़ुरआन 65:7 में
इस प्रकार बताया कि है कि “चाहिए कि सामर्थ्य वाला अपनी सामर्थ्य के अनुसार ख़र्च करे और जिसे उसकी रोज़ी नपी-तुली मिली हो तो उसे चाहिए कि अल्लाह ने उसे जो कुछ भी दिया उसी में से वह खर्च करे। “
यह ज़िम्मेदारी केवल नैतिक ही नहीं है, बल्कि क़ानूनी हैसियत भी रखती है। अर्थात यदि कोई व्यक्ति इसमें कोताही करता है तो शरियत उसे अपने इस अनिवार्य कर्त्तव्य को पूरा करने के लिए विवश करेगी।
पति बीवी-बच्चों की धार्मिक और आधुनिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण का ध्यान रखे और उसकी व्यवस्था करने का ज़िम्मेदार है । अल्लाह ने पवित्र कुरआन 66:6 में ताकीद के साथ फ़रमाया है कि “ईमान वालो! अपने आपको और अपने परिवारजन को दोज़ख (नरक) की आग से बचाओ।”
अर्थात् मर्द के ऊपर यह दोहरी ज़िम्मेदारी डाली गई है कि वह अपने परिवारजन की सांसारिक ज़रूरतों और पारलौकिक सफलता, दोनों बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखे। इस सम्बन्ध में वह इहलोक और परलोक दोनों जगह उत्तरदायी होगा । इस संबंध में हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “सुन रखो! तुममें से हर व्यक्ति उत्तरदायी शासक है। और हर एक से उसकी प्रजा के बारे में पूछ परख होगी। मर्द अपने घर वालों के प्रति उत्तरदायी है और उसे उनके बारे में जवाबदेही करनी होगी।”( मुस्लिम)
मर्द को ज़िम्मेदार बनाने के बाद पत्नी की जिम्मेदारी यह है कि वह घर के अन्दर की व्यवस्था संभाले। इसके प्रति हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ” पत्नी अपने शौहर (पति) के घर और उसकी सन्तान के प्रति उत्तरवादी और निगरां है और उसे उनके बारे में जवाब देना होगा।” ( मुस्लिम, भाग-2)
शौहर का आज्ञानुपालन करे और अपनी इस्मत (सतीत्व) को पूरी तरह सुरक्षित रखने के संबंध में पवित्र क़ुरआन 4:34 में फ़रमाया गया है कि “अत: नेक (सच्चरित्र) औरतें आज्ञा-पालन करने वाली और गुप्तांगों की रक्षा करनेवाली होती हैं। “
इसी प्रकार संतान का भी यह अनिवार्य कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने माता-पिता की आज्ञा पालन और उनकी सेवा करे। उनकी आज्ञा का उल्लंघन करता अक्षम्य अपराध है जिसे बैहकी ग्रंथ में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फ़रमान है कि “गुनाहों में से जिसको चाहेगा अल्लाह माफ़ कर देगा। मगर मां – बाप की नाफ़रमानी को माफ़ न करेगा।”
निकाह को शरई (संवैधानिक) ज़रूरत कहते हुए उसके परिणामस्वरूप आ पड़ने वाली उन समस्त जिम्मेदारियों को ‘अल्लाह की नियत की गई सीमाएं कहा गया है। पवित्र क़ुरआन 2:229 के अनुसार “और मर्द व औरत दोनों को सचेत किया गया कि वे उन सीमाओं का पूरा-पूरा सम्मान करें”।
हर शरीफ़ और अपने कर्त्तव्यों को पहचानने , अमल करने वाले व्यक्ति से यही नेक आशाएं की जा सकती हैं कि उसका पारिवारिक जीवन, बेहतरीन शरई व्यवस्था के साथ अंजाम पाए। इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए शरियत ने संतुलित पैमाने दिए हैं , जिसमें वाद विवाद को कोई स्थान नहीं मिल सकता। फिर भी अल्लाह न करे अगर यह वस्तुस्थिति शेष न रह जाए बल्कि पति-पत्नी में मतभेद पैदा हो आएं और गुज़र बसर की कोई उम्मीद नज़र न आए तो मजबूरन इस बात की भी अनुमति है कि पति तलाक़ के ज़रिए और औरत खुलअ के ज़रिए इस निकाह के रिश्ते को समाप्त कर सकती है ‌। इस संबंध में पवित्र क़ुरआन 2:229 में आदेशित है कि “फिर यदि तुम को यह डर हो कि वे अल्लाह की सीमाओं पर कायम न रहेंगे तो स्त्री जो कुछ देकर छुटकारा प्राप्त करना चाहे उसमें उन दोनों के लिए कोई गुनाह नहीं।”
यहां तक कि शरियत कानून को यह अधिकार प्राप्त है कि इस स्थिति में वह आगे बढ़ कर इस रिश्ते को अपने तौर पर तोड़ दे, क्योंकि इसकी मर्यादा अपनी जगह बड़ी महत्त्वपूर्ण ही सही, लेकिन ‘अल्लाह की सीमाओं की मर्यादा इससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिए उसके लिए उन्हें पामाल करने की छूट नहीं हो सकती ।