नागपुर हज वास्तव में अल्लाह से प्रेम और स्नेह की इबादत है और यह ईमान की बुनियादी आवश्यकता है कि ईमान वाले सर्वशक्तिमान अल्लाह ही से सबसे अधिक प्यार करते हैं।
पवित्र क़ुरआन की सूरा अल-बकराः 165 में बताया गया है कि “और जो ईमानवाले हैं उन्हें सबसे बढ़कर अल्लाह से प्रेम होता है”।
अल्लाह से प्रेम की ऐसी स्थिति मुस्लिम समुदाय में हर कहीं दिखाई देती है । ईमान वालो में अल्लाह से इस प्यार की हक़ीक़त जब उजागर होती है तो वह उसके लिए पागलपन की सी हरकतें करने लगता है और यहां तक कि उसके लिए वह अपनी पसंदीदा चीज़ों को भी त्याग देता है। ईमान का तकाज़ा भी यही है कि इंसान को अल्लाह से सबसे ज़्यादा प्यार करना चाहिए। गौरवशाली क़ुरआन में यह निर्देश दिया गया है कि जो लोग ईमान लाते हैं वे सबसे अधिक अल्लाह से प्यार करते हैं। अल्लाह से प्यार और मोहब्बत को और भी खुल कर समझाया गया है कि अगर तुम्हारे पिता, तुम्हारे बेटे, तुम्हारी पत्नियाँ, तुम्हारे रिश्तेदार और तुम्हारा धन जो तुमने समय के साथ इकट्ठा किया है, और तुम्हारे व्यवसाय और नौकरियाँ जिनसे तुम कमाते हो और जिन घरों से तुम प्रेम करते हो, यदि कोई चीज़ अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अधिक प्रिय है तो अल्लाह का आदेश आने तक प्रतीक्षा करो। लेकिन अल्लाह से प्यार और मोहब्बत करने वाले यह धन संपत्ति को कोई मायने में नहीं रखते। इसका नज़ारा और जलवा हज के अवसर पर दिखाई देता है। पूरी दुनिया से ईमान वाले हज की अदाएगी के लिए ख़ाना ए काबा चले आते हैं।
” हज” इस्लाम का पांचवां और अंतिम स्तम्भ है। हज का शाब्दिक अर्थ दर्शन का इरादा करना है। शरीअत की भाषा में हज की इबादत को ‘हज’ झालिए कहा गया है कि इसमें आदमी ख़ाना ए काबा के दर्शन का इरादा करता है।
‘हज’ प्रत्येक उस बालिग़ मुसलमान पर जीवन में एक बार अनिवार्य है, जिसको मक्का तक आने-जाने का सामर्थ्य प्राप्त हो। यदि कोई व्यक्ति सामर्थ्य प्राप्त होने के बाद हज नहीं करता तो वह अपने मुसलमान होने को झुठलाता है। पवित्र कुरआन में आदेश देता कि “लोगों पर यह अल्लाह का हक़ है कि जो उसके घर तक पहुंच सकता हो बह उस घर का हज करे और जिसने इन्कार का आचरण अपनाया, तो वह जान ले कि अल्लाह सारे संसार से निस्पृह है।” ( पवित्र कुरआन, 3:97)
” हज” इस्लाम का पांचवां और अंतिम स्तम्भ है। हज का शाब्दिक अर्थ दर्शन का इरादा करना है। शरीअत की भाषा में हज की इबादत को ‘हज’ झालिए कहा गया है कि इसमें आदमी ख़ाना ए काबा के दर्शन का इरादा करता है।
‘हज’ प्रत्येक उस बालिग़ मुसलमान पर जीवन में एक बार अनिवार्य है, जिसको मक्का तक आने-जाने का सामर्थ्य प्राप्त हो। यदि कोई व्यक्ति सामर्थ्य प्राप्त होने के बाद हज नहीं करता तो वह अपने मुसलमान होने को झुठलाता है। पवित्र कुरआन में आदेश देता कि “लोगों पर यह अल्लाह का हक़ है कि जो उसके घर तक पहुंच सकता हो बह उस घर का हज करे और जिसने इन्कार का आचरण अपनाया, तो वह जान ले कि अल्लाह सारे संसार से निस्पृह है।” ( पवित्र कुरआन, 3:97)
” हज” इस्लाम का पांचवां और अंतिम स्तम्भ है। हज का शाब्दिक अर्थ दर्शन का इरादा करना है। शरीअत की भाषा में हज की इबादत को ‘हज’ इसलिए कहा गया है कि इसमें आदमी ख़ाना ए काबा के दर्शन का इरादा करता है।
‘हज’ प्रत्येक उस बालिग़ मुसलमान पर जीवन में एक बार अनिवार्य है, जिसको मक्का तक आने-जाने का सामर्थ्य प्राप्त हो। यदि कोई व्यक्ति सामर्थ्य प्राप्त होने के बाद हज नहीं करता तो वह अपने मुसलमान होने को झुठलाता है। पवित्र कुरआन में आदेश देता कि “लोगों पर यह अल्लाह का हक़ है कि जो उसके घर तक पहुंच सकता हो बह उस घर का हज करे और जिसने इन्कार का आचरण अपनाया, तो वह जान ले कि अल्लाह सारे संसार से निस्पृह है।” ( पवित्र कुरआन, 3:97)
इसके विपरीत उस व्यक्ति के बारे में जिसने इस अनिवार्य कर्त्तव्य को सही तरीक़े से पूरा कर लिया इतना अधिक कहा गया कि जिससे अधिक की आशा भी नहीं की जा सकती ।
“मक़बूल हज का प्रतिफल जन्नत के अतिरिक्त और कुछ नहीं।” (हदीस : मुस्लिम, खण्ड-1)
“जिसने उस घर (अर्थात् काबा) का हज किया और उस बीच उसने में तो कोई वासनात्मक ग़लती की, न कोई गुनाह किया , वह जब हज करके लौटता है तो ऐसा पवित्र होता है, जैसा उस दिन था, जब उसकी मां ने उसे जन्म दिया था।” (हदीस : बुखारी, खण्ड-1)
फिर इस पवित्र इंसान को सभी इंसानों के साथ अधिकारों के साथ जीवन व्यतीत करना होता है जिसे
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज के इस भव्य आयोजन में “मानव अधिकारों” को लेकर उपदेश दिए थे। इस संबंध में यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि “मानवाधिकार” की शुरुआत , उसके विकास और उसके व्यावहारिक कार्यान्वयन की बात की जाए तो इसका ताज और श्रेय मानवता के महान परोपकारी की हैसियत रखने वाले अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सिर को जाता है। उन्होंने संपूर्ण मानव जाति के लिए “मानवाधिकार” का ऐतिहासिक उपदेश निहायत ही शानदार शब्दों में इस भव्य धार्मिक समारोह मे दिया था । यह उपदेश 10 हिजरी को शुक्रवार दिनांक 9 ज़िलहिज्जा , अराफ़ात के मैदान में दिया गया था। उस समय आप सअ़व अपने ऊँट (क़सवा) पर सवार थे और उपस्थित जन सैलाब में उनके आदर्श साथियों की संख्या लगभग 1 लाख 20 हज़ार बताई जाती है।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के द्वारा प्रस्तुत किया गया यह चार्टर जो सही बुख़ारी हदीस ग्रंथ क्रमांक 1623, 1626, 6361 में वर्णित है वह देश, नस्ल, जनजातियों, रंग, भाषाओं और समय की सीमाओं को पार करके मानवता के सभी कालखंडों को अपनी सीमाओं में समाहित करता है। इसमें बुनियादी मानवाधिकारों और कर्तव्यों को पूरी तरह से संरक्षित किया गया है।
विदाई हज के अवसर पर पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इंसानियत को बनाने वाला बेमिसाल उपदेश दिया था जो न केवल इस्लामी शिक्षाओं का सार है बल्कि वह एक मील का पत्थर भी है। इस अनूठे उपदेश में मानव अधिकारों से युक्त कमोबेश चालीस खंड हैं, जो शांति और सद्भाव, न्याय और समानता और मानवता के सम्मान और सुरक्षा की गारंटी देते हैं।
इस समय पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने घोषणा की कि अज्ञानता के युग के नियम मेरे पैरों के नीचे कुचल दिये गये हैं। उन्होंने भेदभाव, अभिमान, दिखावा और अहंकार को ख़त्म कर मानवता के असमान स्तर को समतल कर दिया ।
आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि प्यारे भाइयो! मैं जो कुछ कहूं ध्यान से सुनो।
ऐ इंसानो! तुम्हारा रब एक है।अल्लाह की किताब और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत को मज़बूती से पकड़े रहना।
लोगों की जान-माल और इज़्ज़त का ख़याल रखना, ना तुम लोगो पर ज़ुल्म करो, ना क़यामत में तुम्हारे साथ ज़ुल्म किया जायगा. कोई अमानत रखे तो उसमें ख़यानत न करना।
ब्याज के क़रीब भी न फटकना।
किसी अरबी किसी अजमी (ग़ैर अरबी) पर कोई बड़ाई नहीं, न किसी अजमी को किसी अरबी पर, न गोरे को काले पर, न काले को गोरे पर, प्रमुखता अगर किसी को है तो सिर्फ़ तक़वा (धर्मपरायणता) व परहेज़गारी से है। अर्थात् रंग, जाति, नस्ल, देश, क्षेत्र किसी की श्रेष्ठता का आधार नहीं है।
बड़ाई का आधार अगर कोई है तो ईमान और चरित्र है।
तुम्हारे ग़ुलाम, जो कुछ ख़ुद खाओ, वही उनको खिलाओ और जो ख़ुद पहनो वही उनको पहनाओ।
अज्ञानता के तमाम विधान और नियम मेरे पांव के नीचे हैं।
इस्लाम आने से पहले के तमाम ख़ून खत्म कर दिए गए।
(अब किसी को किसी से पुराने ख़ून का बदला लेने का हक़ नहीं) और सबसे पहले मैं अपने
ख़ानदान का ख़ून–रबीआ इब्न हारिस का ख़ून– ख़त्म करता हूँ (यानि उनके कातिलों को क्षमा करता हूँ)|
अज्ञानकाल के सभी ब्याज ख़त्म किए जाते हैं और सबसे पहले मैं अपने ख़ानदान में से अब्बास इब्न मुत्तलिब का ब्याज ख़त्म करता हूं।
औरतों के मामले में अल्लाह से डरो।तुम्हारा औरतों पर और औरतों का तुम पर अधिकार है। औरतों के मामले में मैं तुम्हें वसीयत करता हूँ कि उनके साथ भलाई का रवैया अपनाओ।
ऐ लोगों ! याद रखो मेरे बाद कोई
नबी (ईश्वर का सन्देश वाहक) नहीं और तुम्हारे बाद कोई उम्मत (समुदाय) नहीं।
अत: अपने रब की इबादत करना, प्रतिदिन पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ना। रमज़ान के रोज़े रखना, खुशी-खुशी अपने माल की ज़कात देना, अपने पालनहार के घर का हज करना और अपने हाकिमों का आज्ञापालन करना।
ऐसा करोगे तो अपने रब की जन्नत में दाख़िल होगे।
सुनों! जो लोग यहां हैं उपस्थित हैं उन्हें चाहिए कि ये आज्ञाएं और ये बातें उन लोगों को बता दें जो यहां नहीं हैं। हो सकता है कि कोई अनुपस्थित तुम से अधिक समझने और सुरक्षित रखने वाला हो।”
और लोगों आप से मेरे बारे में (अल्लाह के यहां) पूछा जाएगा। बताओ आप क्या जवाब दोगे ? लोगों ने जवाब दिया – हम इस बात की गवाही देगें कि तू आपने अमानत( दीन) पहुंच दी और आपने सन्देश का हक़ (हक़े रिसालत) अदा कर दिया और हमारी मंगल-कामना की।
यह सुनकर पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी तर्जनी साक्ष्य (अंगुली) आकाश की ओर उठाई और लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन बार दुआ़ फ़रमाई – “ख़ुदाया गवाह रहना, ख़ुदाया गवाह रहना , ख़ुदाया गवाह रहना”।
उसके बाद पवित्र क़ुरआन की आखिरी पंक्ति 5:3 अवतरित हुई कि
” आज मैंने तुम्हारे लिए दीन (सत्य धर्म) को पूरा कर दिया और तुम पर अपनी नेमत (कृपा) पूरी कर दी”।