नागपूर
हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि (27-10- 573 ई. से 23- 8 – 634 ई. ) का जन्म मक्का में आमुल-फ़ील के ढाई साल बाद क़ुरैश जनजाति में हुआ था। वे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम से ढाई साल छोटे थे और उनकी वंशावली आठवीं पुश्त मर्राह पर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम से जा मिलती है।
पिता का नाम उस्मान था, जो अबू क़हाफ़ा के नाम से जाने जाते थे। मां का नाम सलमा , उम्मुल खैर था, जो अबू कहाफ़ा के चचा सख़र की बेटी थीं। इतिहास में हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि के किसी भाई का उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन उनके भाईयों मोतिक़ और मोतीक़ का उल्लेख किया गया है, जिनकी बहुत कम समय में मृत्यु हो गई थी। बच्चे जीवित नहीं रहते थे तो अबू बकर रज़ि के जन्म के बाद उनकी मां ने उन्हें ख़ाना ए काबा ले गईं । उन्होंने उनका नाम आरंभ में अब्दुल काबा रखा और काबा की सेवा में समर्पित कर दिया। फिर अल्लाह से दुआ की कि ऐ अल्लाह! यह बच्चा मौत के पंजे से बच गया है ।
अब तू इसे आज़ाद कर दे और मुझे दे दे। इसलिए उन्हें अतीक़ (आज़ाद ) कहा जाने लगा । बाद में अल्लाह के दूत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अ़लैहि वसल्लम ने उनका नाम बदलकर अब्दुल्लाह रख दिया। लेकिन अतीक़ की उपाधि जारी रही। इस शब्द के अलग-अलग अर्थ बताए गए हैं जैसे हसीन , सुंदर , युवा या बेदाग़ होना या अच्छे कार्यों में उत्कृष्ट होना। ऐसा भी ज्ञात होता है कि यह उपाधि हिजरत के बाद एक अवसर पर स्वयं पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सअ़व ने उन्हें दी थी। एक दिन आप सअ़व की ख़िदमत में बहुत से आदर्श साथी थे कि अबू बकर रज़ि आते दिखाई दिये। आप सअ़व ने फ़रमाया कि जिसने किसी अतीक़ ( दोज़ख़ की आग से आज़ाद) को देखना हो तो वह उस आने वाले (अबू बकर) को देख ले । तबसे लोग अबू बकर रज़ि को अतीक़ कहने लगे।
हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ,
हुज़ूर सअ़व के बचपन के दोस्त, यार और बहुत करीबी मित्र थे। दोनों एक दुसरे के काम आते। कोई भी काम करते तो एक दूसरे से सलाह ज़रूर लिया करते। दोनों एक दूसरे पर भरपूर विश्वास करते। जब हज़रत मुहम्मद सअ़व पहली बार अपने चचा अबू तालिब के साथ शाम के मुल्क गये तो अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने आप सअ़व की सेवा के लिये हज़रत बिलाल को साथ भेज दिया ताकि वह आप की सेवा कर सकें।
आप का शरीर दुबला पतला और रंग सफेद था। आप कमज़ोर शरीर के थे, गालों पर गोश्त कम था, माथा उभरा हुआ था, बाल सफेद हो गये थे, मेंहदी और नील का ख़िज़ाब लगाया करते थे, आंखें अन्दर की तरफ धंसी हुई थीं, निहायत नर्म दिल और सब काम करने वाले थे।
हजरत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि के बेटे मुहम्मद बिन अबू बकर की पीढ़ी से जो भारत-पाक उपमहाद्वीप में एक बुज़ुर्ग शेख़ुल शयूख़ शहाबुद्दीन उमर सुहरावर्दी रहमतुल्लाह (1145 – 1234 ईस्वी में ) गुज़रे हैं जो इस कुलीन परिवार से थे । सय्यदना अब्दुल क़ादिर जिलानी रह ने उनके बारे में कहा कि “ऐ उमर, तुम इराक के प्रसिद्ध लोगों में से अंतिम हो” । हज़रत महबूब-ए-सुब्हानी के जाने के बाद इराक़ की धरती पर आपके जैसा कोई बुज़ुर्ग नहीं हुआ।
जब अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि जवान हुए तो आपकी कुनियत , उपनाम अबू बकर पड़ गई। बकर को युवा ऊंट कहा जाता है। उन्हें ऊंटों को पालने और उनकी देखभाल करने में बहुत रुचि और विशेषज्ञता थी, इसलिए लोगों ने अबू बकर (ऊंटों का पिता या ऊंटों का मालिक या जो ऊंटों से बहुत प्यार करने वाला) कहने लगे । एक राय के अनुसार जो अधिक सत्य प्रतीत होती है कि अबू बकर शुद्ध गुणों में दीक्षित रहे , इसी कारण उन्हें अबू बकर कहा जाता था। यह उपनाम जाहिलियाह , अज्ञानता के दौरान लोकप्रिय था और मूल नाम पर प्रचलित हो गया था। मुसलमानों के अलावा बाकी दुनिया ने भी उन्हें अबू बकर के नाम से याद रखा है । हज़रत अबू बकर अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे। ऐसा माना जाता है कि उस समय देश के समाज की दृष्टि से उनके पालन-पोषण और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया होगा। वे मक्का के उन दर्जन भर लोगों में से एक थे जो इस्लाम के उद्भव के समय लिखना पढ़ना जानते थे। एक ओर आप गणित के विद्वान भी थे तो दूसरी ओर ऊंटों की चिकित्सा में आपको विशेषज्ञता भी प्राप्त थी। क़ुरैश के सभी परिवारों की वंशावली उन्हें याद थी । इसमें उनका कोई तुल्य नहीं था । ऐसा माना जाता है कि मक्का की सामान्य प्रथा के अनुसार उन्होंने बचपन में अपने ख़ानदान के ऊंट और बकरियां चराई होंगी। क्योंकि इस बंजर घाटी में ऊंट और बकरियां मुख्य संपत्ति थीं । मदीना में भी हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि के पास बकरियों का एक झुंड था। अरब समाज में शेर , शायरी , कविताओं का बहुत महत्व था। अबू बकर को शायरी की समझ के साथ उसमें महारत हासिल थी , लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया।
अठारह साल की उम्र में उन्होंने व्यवसाय का पेशा अपनाया। कपड़े के व्यापार के सिलसिले में यमन, इराक, सीरिया और अन्य देशों की यात्राएं कीं। अपने अच्छे संस्कारों, ईमानदारी, मित्रता, सिद्धांतों और व्यापारिक कौशल के कारण शीघ्र ही उनकी गिनती अमीर और सफल व्यापारियों में होने लगी। अपनी नैसर्गिक सत्यनिष्ठा के कारण वे सभी बुराईयों से सुरक्षित रहे , जो उस समय के अरब समाज में आम बात थी। उन्होंने मूर्तिपूजा, शराब, व्यभिचार, जुआ और अन्य अपराधों के साथ-साथ मक्का के लोगों की गलत मान्यताओं से भी परहेज़ किया। मक्कावासियों में आप की छवि प्रसन्नचित्त व्यवहार, नम्रता, अच्छे आचरण, ईमानदारी, सच्चाई, पवित्रता, दया, उदारता, गंभीरता और सत्यनिष्ठा के रूप में पहचानी जाती थी। उच्च मानवीय गुणों के कारण मक्कावासी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे, भले ही उनका क़बीला क़ुरैश के बड़े कुलों में से न था । लेकिन उपरोक्त बातों से उन्होंने मक्का के दस प्रसिद्ध लोगों में अपना नाम दर्ज करवा लिया । वे एक नेता के रूप में भी माने जाने लगे , मक्कावासियों के प्रिय और विश्वसनीय बन गये । अश्फ़ाक़ का पद आपको सौंपा गया। आप “दियत” (अर्थात वह धन जो किसी अन्य व्यक्ति को मार डालने या अंग-भंग करने के बदले में दिया जाए ; खून की क़ीमत, किसी से कोई आदमी मर जाय, तो मरनेवाले की औलाद अगर हत्यारे से उसके प्राणदंड के बदले में रुपया लेना चाहती थी तो उसको दिला दिया जाता था, और हत्यारे को मुक्त कर दिया जाता था, इस रुपये को ‘दियत’ कहते हैं) का फैसला करते थे और आपके पास दियत की राशि इकट्ठी होती थी।
अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि बचपन से ही पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सअ़व के दोस्त , यार थे। समय के साथ-साथ स्वभावों की समानता और समानता के कारण मित्रता और एकता बढ़ती चली गई। व्यापार, साहचर्य, ईमानदारी , पूर्वाभास और सिद्धांतवादी ने दोस्ती को और अधिक मज़बूत बना दिया। देखा जाए तो दोस्ती के यही तक़ाज़े इस्लामी दृष्टिकोण में मिलते हैं।
दोस्ती के मायने बहुत व्यापक हैं। हमारे समाज में लगभग सभी लोग किसी न किसी के दोस्त हैं। दैनिक अवलोकन और इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि अच्छे मित्रों के कारण ही बहुत से लोग इस लोक में अच्छे कार्यों में लगे रहे और उसमें वे सफल भी हुए। ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो बुरे दोस्तों के कारण इस लोक और परलोक में विनाश के मार्ग पर चल पड़े । इस्लामी समाज में दोस्ती की बड़ी अहमियत हैं । इस संबंध में स्वयं पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सअ़व ने फ़रमाया कि “आदमी अपने दोस्त के दीन धर्म पर होता है, इसलिए आप में से प्रत्येक को चाहिए कि वह देखे किससे दोस्ती कर रहा है।” दोस्ती और संगति हमेशा उन लोगों से करनी चाहिए जो अच्छे और नेक हों , क़ुरआन और सुन्नत के नियमों का पालन करते हों, क्योंकि संगति का असर होता है। हज़रत मुहम्मद सअ़व का कथन है कि “अच्छे और बुरे साथी का उदाहरण मुश्क (कस्तूरी) उठाने और भट्टी भड़काने वाली के समान है। कस्तूरी उठाने वाला या आपको ऐसे ही दे देगा या आप उससे कुछ ख़रीद लेंगे या उससे अच्छी गंध पाएंगे और भट्ठी झोंकने वाला या आपके कपड़े जला देगा या आप उस से दुर्गंध पाएंगे। (मुस्लिम, पृष्ठ 1084, हदीस 6692)
दोस्ती के शिष्टाचार में बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे दिल में अपने दोस्तों के लिए आदर और सम्मान उनके चरित्र के आधार पर हो, न कि उनकी परिस्थितियों के आधार पर। अन्यथा अच्छे लोगों में दुख और पीड़ा का ज्ञान पूरी तरह से खत्म हो जाता है। यही दशाएं थीं कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सअ़व और अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि से गहरा दोस्ताना रहा ।
मक्का में उच्च कुरेशी व्यापारियों और रईसों का मोहल्ला था। उसी मोहल्ले में हज़रत ख़दीजा रज़ि और अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि भी रहा करते थे। हज़रत ख़दीजा रज़ि से निकाह के सिलसिलें में हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ रज़ि ने बहुत कोशिशें कीं और आप सअ़व का निकाह हज़रत ख़दीजा रज़ि से हो गया। पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सअ़व , हज़रत ख़दीजा रज़ि से शादी के बाद इसी मोहल्ले में हज़रत ख़दीजा रज़ि के घर चले गए और वहां रहने लगे। इस प्रकार अबू बकर रज़ि को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सअ़व की दोस्ती पहले से ज़्यादा उपलब्ध होने लगी। आपके पवित्र जीवन चरित्र को अध्ययन करने और देखने का अच्छा अवसर मिलने लगा। लोक और परलोक की ज़िंदगी में सफलता के लिए मुस्लिम समुदाय को दोस्ती के इन पहलुओं को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए।