8 मार्च “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” ​​( “इस्लाम ने महिलाओं को वे अधिकार दिए जो इस्लाम से पहले उनके पास नहीं थे”)- डॉ एम ए रशीद , नागपुर

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8 मार्च “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” ​​( “इस्लाम ने महिलाओं को वे अधिकार दिए जो इस्लाम से पहले उनके पास नहीं थे”)- डॉ एम ए रशीद , नागपुर

8 मार्च को पूरे विश्व में “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” ​​के रूप में मनाया जाता है। हम भलीभांति जानते हैं कि आधुनिकता की इस बाढ़ ने महिलाओं के नैतिक मूल्यों को इस हद तक रौंद दिया गया कि एक महिला अपनी अस्मिता और सम्मान से ही अपरिचित होकर रह गई है। नारीवाद के नाम पर खोखले विकास के नारे परिवार और पूरे देश के लिए विनाश का कारण बन रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भौतिकवाद, वस्तुवाद, अश्लीलता, नग्नता, उच्च शिक्षा से उपेक्षा , विवाह में देरी, कन्या भ्रूण हत्याएं, बच्चों के प्रशिक्षण में लापरवाहियां, घरेलू उत्पीड़न, दहेज की मांग, फैशनवाद, लिव-इन रिलेशनशिप की निर्लज्जता, यौन उत्पीड़न की घटनाऐं, मानव तस्करी में विशेषकर लड़कियों की ख़रीद-फ़रोख़्त, महिलाओं की स्वतंत्रता और सशक्तिकरण के बारे में गलत धारणा , विरासत से वंचित करना , कॉल सेंटरों पर नौकरी की आपदाएं, अंतरधार्मिक विवाह, शादियों में अनाप-शनाप खर्च और अत्यधिक रस्म व रिवाज, खंडित होते परिवार , मान-सम्मान पर आधारित पारिवारिक कानूनों पर अनावश्यक आपत्तियां जैसी समाज की ज्वलंत समस्याओं की एक लंबी सूची है। इन समस्याओं का निराकरण कर महिलाओं के हित और समाज में आवश्यक सुधार आ सकता है।


एक अच्छे राष्ट्र के रूप में हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि उपरोक्त अनेक समस्याओं में महिलाओं की समस्याओं से मुक्ति तार्किक तर्कों के साथ की जाना चाहिए। सामान्य और सार्वभौमिक मूल्यों के रूप में
इस्लाम ने इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है ।
इस्लामी शिक्षाओं के अंतर्गत महिलाओं की गरिमा और वास्तविक स्वतंत्रता की अवधारणा से महिलाओं को परिचित कराना से महिलाओं को एक वस्तु, बिक्री की वस्तु मानने वाली उपनिवेशवाद (पूंजीवाद) की अवधारणा को समाप्त किया जा सकता है। महिलाओं में उद्देश्यपूर्ण जीवन के प्रति उन्हें शिक्षा, विरासत, अर्थव्यवस्था, बच्चों का पालन-पोषण, वफादारी , परलोक में सफलता के अंतर्गत जागरूक किया जा सकता है और महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को बढ़ावा भी मिल सकता है। नारीवाद की स्वतंत्रता की अवधारणा के विपरीत नारीवाद की वास्तविक स्थिति के बारे में क्रमशः इन उद्देश्यों के प्रति जागरूकता बढ़ाने से महिलाओं को ” मेरा सम्मान मेरा गौरव” प्राप्त भी हो सकता है। “मेरा सम्मान मेरा गौरव” को नारीवाद का शील सार , भौतिकवाद की चपेट में नारी , मेरा सम्मान, मेरा अभिमान , नारी और व्यवहार का क्षेत्र , नारी सशक्तिकरण की वास्तविक अवधारणा , नारी चेतना से है पीढ़ियों का अस्तित्व, नारीवादी स्वतंत्रता कितनी स्वतंत्रता कितनी माया के तहत प्रभावी योजना द्वारा सफलता मिल सकती है ।


विदित हो कि इस्लाम महिलाओं का पूरी तरह से सम्मान करता है और उनकी रक्षा और उन्हें पूर्ण अधिकार भी देता है। इस्लाम ने महिलाओं को वे अधिकार दिए जो इस्लाम से पहले उनके पास नहीं थे। उसने उन्हें वे अधिकार भी दिए जो उन्हें अन्य धर्मों द्वारा नहीं दिए गए थे। इन सबके अलावा, इस्लाम ने महिलाओं को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार दिया। पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने समय का एक हिस्सा महिला साथियों को पढ़ाने के लिए आवंटित करते थे।
इस्लाम ने महिलाओं को काम करने का अधिकार भी दिया और महिलाओं को विरासत का अधिकार दिया। जबकि इस्लाम से पूर्व काल और प्राचीन सभ्यताओं में उन्हें इससे वंचित रखा गया था। पहला और सबसे महत्वपूर्ण अधिकार महिला के जीवन का अधिकार है, इसलिए इसने उन्हें मारने से मना किया , चाहे जीवित गाड़ने से हो , दहेज हत्या (वैसे इस्लाम में दहेज नाम का कोई शब्द नहीं है , दहेज के लेन देन की कठोर मनाही है), सती प्रथा , कन्या भ्रूण हत्या से संबंधित हो।
इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा मुस्लिम दुनिया और पश्चिम में चर्चा और गहन बहस का एक विवादास्पद क्षेत्र रहा है। इसके अलावा इस्लामोफोबिक नव-प्राच्यवादी इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ अपने ज़ेनोफोबिक दावों का समर्थन करने के लिए अज्ञानता के साथ मनगढ़ंत स्त्रीद्वेषी पाठ का राग अलापते हैं।
उस समय जब दुनिया पर छाए अंधकार के बीच अरब के विशाल रेगिस्तान में मानवता के लिए एक ताजा, महान और सार्वभौमिक संदेश के साथ ईश्वरीय रहस्योद्घाटन गूंज उठा था कि “हे मानव जाति, अपने प्रभु के प्रति अपना कर्तव्य निभाओ जिसने तुम्हें एक आत्मा से बनाया है।” और उसी से उसने अपना जोड़ा (एक ही प्रकार का) पैदा किया और उन दोनों से बहुत से पुरूष और स्त्रियां फैल गईं” (क़ुरआन 4:1) तब इस दिव्य आदेश में अद्भुत संक्षिप्तता, वाक्पटुता, गहराई और मौलिकता के साथ सभी पहलुओं से महिला की मानवता उजागर होती है।
इस्लाम ने महिलाओं को समानता का अधिकार देकर उसने इस क्षेत्र में उसे पुरुषों के बराबर का अधिकार दिया। सर्वशक्तिमान ईश्वर ने कहा कि “और उनका पुरुषों पर वही अधिकार है जो पुरुषों का उन पर है और ईश्वर शक्तिशाली, सर्वज्ञ है।”
दैनिक बंदगी में नमाज़, रोज़ा, ग़रीब और तीर्थयात्रा जैसे धार्मिक दायित्वों के संदर्भ में महिला पुरुष से अलग नहीं है। वास्तव में कुछ मामलों में महिला को पुरुष की तुलना में कुछ लाभ हैं। उदाहरण के लिए महिला को मासिक धर्म के दौरान और बच्चे के जन्म के चालीस दिन बाद तक दैनिक बंदगी नमाज़ और रोज़े में छूट दी गई है। यदि उसके या उसके बच्चे के स्वास्थ्य को कोई खतरा हो तो उसे गर्भावस्था के दौरान और अपने बच्चे को दूध पिलाते समय भी रोज़ों से छूट दी गई है। यह रोज़ा अनिवार्य है (रमज़ान के महीने के दौरान) तो वह जब भी संभव हो तो वह छूटे हुए रोज़ों की भरपाई कर सकती है। उपरोक्त किसी भी कारण से छूटी हुई नमाज़ों के लिए उसे क्षतिपूर्ति करने की आवश्यकता नहीं है।
पैग़ंबर के दिनों में महिलाएं मस्जिद में जा सकती थीं और जाती थीं । इसके बाद शुक्रवार की सामूहिक नमाज़ में भाग लेना उनके लिए वैकल्पिक है, जबकि पुरुषों के लिए (शुक्रवार को) यह अनिवार्य है। यह स्पष्ट रूप से इस्लामी शिक्षाओं का एक कोमल स्पर्श है क्योंकि यहां इस तथ्य पर विचार किया गया है कि एक महिला अपने बच्चे को दूध पिला रही हो या उसकी देखभाल कर रही हो और इस प्रकार वह नमाज़ के समय मस्जिद जाने में असमर्थ हो सकती है। इस्लाम महिला के प्राकृति ककार्यों से जुड़े शारीरिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को भी ध्यान में रखता है।
इस्लाम ऐसे माता-पिता के रवैये की कटु आलोचना करते हुए “जो अपनी बेटियों को अस्वीकार करते हैं” , उस संबंध में पवित्र क़ुरआन कहता है कि “जब उनमें से एक को, एक मादा (बच्चे के जन्म) की खबर दी जाती है, तो उसका चेहरा काला पड़ जाता है और वह आंतरिक दुःख से भर जाता है! अपने बुरे समाचार के कारण वह लज्जा के मारे अपने आप को अपने लोगों से छिपाता है! क्या वह उसे (प्रताड़ना पर) रोके रखेगा और उसका तिरस्कार करेगा, या उसे मिट्टी में मिला देगा? आह! वे किस बुराई (विकल्प) पर निर्णय लेते हैं?” (क़ुरआन 16:58-59)
कन्या की जान बचाने के साथ उस किसी प्रकार का अन्याय और असमानता का सामना न करना पड़े, इस्लाम उसके लिए दयालु और न्यायपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता पर ज़ोर देता है। इस संबंध में पैगंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कथन है कि “जिस किसी की बेटी हो और वह उसे जीवित दफ़न न करे, उसका अपमान न करे और उसके स्थान पर अपने बेटे को महत्व न दे, तो ईश्वर उसे स्वर्ग में प्रवेश देगा। (इब्न हंबल, संख्या 1957)।
एक पत्नी के रूप में पवित्र क़ुरआन स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि विवाह समाज के दो हिस्सों के बीच साझाकरण है और इसका उद्देश्य, मानव जीवन को कायम रखने के अलावा भावनात्मक कल्याण और आध्यात्मिक सद्भाव है। इसका आधार प्रेम और दया है।
राजनीति पहलू के परिदृश्य में उमर इब्न ख़त्ताब रज़ि के खिलाफत के दौरान एक महिला ने मस्जिद में उनके साथ बहस की और अपनी बात साबित की । लोगों की उपस्थिति में उन्हें यह घोषणा करने के लिए मजबूर किया कि “एक महिला सही है और उमर गलत है।”