लोगों को बुराईयों से रोको और अच्छाईयां फैलाओ,सुधार में हो सहानुभूति का तरीका (अहबाब मस्जिद में मुफ़्ती मोहम्मद साबिर का जुमा बयान) मुस्लिम समुदाय के लिए आदाब और आचार डॉ एम ए रशीद,नागपुर

163
  हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुस्लिम समुदाय को विभिन्न प्रकार की कभी बहुत बड़ी कभी बहुत ही छोटी सदुपदेश दिए हैं ,  इन में उन का अर्थ पूरी तरह समाया हुआ होता था। उनका उद्देश्य मात्र यही था कि मुस्लिम समुदाय के अंदर सोच-विचार पैदा हो और वह सही रास्ते पर आ जाए ।

अच्छाईयां अपनाने और बुराईयों से रोकने के लिए एक इंसान को सहानुभूति के साथ दूसरे को अच्छाईयों का आदेश करना चाहिए और ऐसे ही सहानुभूति के साथ किसी बुरे इंसान को बुराईयों से रोकना चाहिए। जिस इंसान में कोई बुराई है वह उसी को ही बताई जाना चाहिए। यहां हमें ऐसा रवैया अपनाना चाहिए जो प्रभावी हो। सुनने वाला उसे अपना उपकार ، भलाई करने वाला और हितेषी समझे और फिर वह उन बुराईयों को अपने अंदर से निकाल दे।
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने जीवन में विभिन्न पहलुओं से अपनी उम्मत (मुस्लिम समुदाय) को समझाया है। आप सअ़व की तमाम बातें क़ुरआन की व्याख्या होती थीं। उन्हीं बातों को स्पष्ट करने के लिए आप सअ़व को दुनिया में भेजा गया था । “कि हमने आप पर एक हिदायतनामा अर्थात मार्ग दर्शक ग्रंथ उतारा है ताकि आप लोगों को समझा सकें”।


मार्ग दर्शन के संबंध से कुछ बातें मुफ़्ती मोहम्मद साबिर ने “मस्जिद अहबाब” में जुमे के बयान में कहीं। बता दें कि आप जाफ़र नगर , अहबाब कालोनी की “मस्जिद अहबाब” के इमाम और धर्मोपदेशक (ख़तीब) हैं। बुराईयों के विश्लेषण करते हुए उन्होनें आगे कहा कि हदीस का अस्वीकृत करने वाला कुरआन का नास्तिक रूपी (मुंकिर) होता है। इसलिए हमें क़ुरआन और हदीस मुबारक की मार्गदर्शन (हिदायतों ) पर अमल करते रहना चाहिए।
क़ुरआन करीम में इरशाद है कि
“ईमान वाले मर्द और ईमान वाली औरते एक दूसरे के जिगरी दोस्त हैं”।
यानी दोस्ती दिल से होती है और ऐसे इंसानों में सहानुभूति अर्थात हमदर्दियां होती हैं । यह समझने की बात है कि एक दोस्ती लाभ उठाने के लिए होती है फिर मफ़ाद यानी फायदा ख़त्म तो दोस्ती भी ख़त्म! यह दोस्ती की गुणवत्ता और पैमाना नहीं है । इसमें किसी दोस्त के पास धन दौलत ख़त्म हो जाए तो दोस्ती भी ख़त्म हो जाती है और उस से संबंध भी तोड़ लिये जाते हैं । लेकिन वास्तविक दोस्ती में फ़र्क होता है, किसी दोस्त के स्थिति कितनी ही ख़राब क्यों न हो जाएं उसमें स्वार्थ और खुद‌गर्ज़ी नहीं होती। एक मोमिन का मामला इसी तरह का होता है , उससे दिली दोस्ती होती है, वह मंगल-कामनाओं और ख़ैर ख़्वाही पर आधारित होती है , इसीलिए बिगड़े हालात में एक मोमिन दूसरे मोमिन को फ़ायदा पहुंचाने की पूरी कोशिशें करता रहता है वह भी ऐसा फ़ायदा जो दीर्घकालिक अर्थात दाइमी होता है। ऐसे काम जो शरियत में मुंकर , गुनाह और बुराईयों की हैसियत रखते हैं और जो जहन्नुम यानी नरक की तरफ़ ले जाने और अल्लाह के ग़ुस्से का माध्यम बनते हैं , उन्हें समाज से दूर कर मोमिन शरियत के अनुसार अच्छाईयां लाने की मेहनत किया करते हैं । इसलिए ऐसे दोस्त और ईमान वाले एक दूसरे को अच्छाई और भलाईयों का हुक्म किया करते हैं।
हदीस के अनुसार “एक मोमिन दूसरे मोमिन के हक़ में आईना होता है”, जब इंसान आईने के सामने खड़ा होता है तो कोई दोष होने पर आईना उसका दोष बताता है , उसी तरह जिस तरह एक हकीम या डॉक्टर किसी रोग के बारे में बता देता है कि तुम्हें यह रोग है और उस का इलाज आवश्यकहै । इस्लामी विद्वान (उल्माए रब्बानी ) लोगों को गुनाहगार नहीं बनाते बल्कि किसी गुनाहगार इंसान का गुनाह या उसके व्यवहार में जो बिगाड़ और बुराई है या उसके आस्था (अक़ीदे) में कोई ऐसी ख़राबी है जिससे कि वह कुफ्र यानी नास्तिक बन सकता है उसकी तरफ़ उसको ध्यान दिलाकर उसका सुधार (इस्लाह) करते हैं। एक मोमिन अगर किसी दूसरे मोमिन में जितनी भी बुराईयां देखे उसे उतनी ही बताना चाहिए , बढ़ा चढ़ाकर न बताना चाहिए। बुराई भी जिसमें हो उसी को बताना चाहिए। जैसे कि आईना दोष उसी इंसान के सामने दिखाता है जो उसके सामने होता है, वह उस का दोष किसी दूसरे इंसान को नहीं दिखाता । कारोबार, घर वग़ैरह में जो भी ख़राबियां और बिगाड़ हैं उसे उसी इंसान को ही बताना चाहिए । यही इस्लाम का तरीका है।
कभी कभी इस्लाह और सुधार में ग़लत और बेढ़ंगे तरीके से सुधार न होकर नुक़्सान खड़ा हो जाता है, उसमें शैली अगर हमद‌र्दी वाली होगी तो सुनने वाला इंसान उससे ज़रुर प्रभावित होगा। अगर छोटा इंसान किसी बड़े इंसान की ग़लती सुधारना चाहता है तो उसे चाहिए कि वह बेहतर से बेहतर तरीक़ा अपनाए । सुधार में भले ही कितने भी दिन लग जाएं उसका प्रयास जारी रखना चाहिए। मायूस हो जाना या तुरंत नाराज़ हो जाना इंसान के कमज़ोरी की निशानी है।
इस बाबत एक शिक्षक के सामने यदि किसी बच्चे की शिकायत आती है कि यह बच्चा पढ़ नहीं रहा है तो यह शिक्षक की कमज़ोरी मानी जानी चाहिए । शिक्षक का काम है कि वह सोचे, किस ढंग से बच्चे को पढ़ाया जा सकता है और इसके लिए कितने विभिन्न प्रकार अपनाए जा सकते हैं कि वह पढ़ने में रुचि लेने लगे। संभव है बच्चा पढ़ाई में ज़रुर ध्यान देने लगेगा। तुरंत क्रोधित या नाराज़ होकर बच्चे से पीछा छुड़ा लेना, उसे अलग कर देना यह कोई उपचार नहीं है। परिणाम पर कोई उपकृत और मुकल्लफ़़ नहीं है, वह तो ईश्वर, अल्लाह रब्बुल आलमीन के हाथ में होता है।
हमारा काम रास्ता बताने से है कि यह रास्ता कुरआन व हदीस का रास्ता है। इसमें यह बताया जाना ज़रूरी है कि यह रास्ता ही जन्नत , स्वर्ग की तरफ़ जा रहा है इसलिए अल्लाह तआला ने पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सअ़व से कहा कि “ऐ मोहम्मद आप जिसको चाहें, मंज़िल तक पहुंचा दे (इसकी ज़िम्मेदारी नही है) आप के अधिकार में नहीं है।”
अल्लाह की तरफ़ बुलाने का ढंग भी उच्च से उच्चतम होना चाहिए। एक जगह अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि “आप जिसको चाहे हिदायत , मार्ग निर्देश नहीं दे सकते” । मतलब यह कि आप सअ़व लोगों को रास्ता दिखाते हैं जिसमें से वह रास्ता जन्नत की तरफ़ जा रहा है और किसी को मंज़िल तक पहुंचा देना नबी का काम नहीं होता। उसका काम रास्ता बताना है।
समाज में बुराईयों का बोल बाला हैं , इस पर हमारा काम भलाईयों की बातें करना है, बार बार कहते रहना ही हमारी ज़िम्मेदारी बनती है । उसे दूर करने के लिए अल्लाह का पैग़ाम और नबी सअ़व की शिक्षाएं पहुंचाना हमारी बड़ी ज़िम्मेदारी है। यह काम प्यार मुहब्बत के साथ होना चाहिए। उन बुराईयों से बच्चों को बार-बार उपदेश देते रहना चाहिए ताकि उन में किसी भी तरह का बिगाड़ पैदा न हो सके ।
दूसरा हमारा ख़ास काम नमाज़ों की शिक्षा देने से है। आज जितनी तैदाद यहां नमाजियों की मौजूद है वह फ़जर ,ज़ोहर , असर और ईशा यानी पांचों वक्त की नमाज़ों में भी हमेशा रहना चाहिए।
लोगों को सच्चाई की तरफ चलने की शिक्षा देना भी हमारा उत्तरदायित्व बनता है । लोगों को बताना चाहिए कि वे सामाजिक आदेशों पर अमल करें । शादियों के अंदर से बुराईमा समाप्त करें , लोगों को निकाह के मामलों में बिल्कुल आसान तरीका अपनाना चाहिए । शादियों में जो ग़ैर इस्लामी रिवाज कायम हो चुके हैं उन्हें निकालने की कोशिशें की जाना चाहिए। शादियों में खाने का प्रबंध करना बहुत बिगाड़ का रूप ले चुका है उसमें सुधार करने की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है । शादियों के बहुत ज़्यादा व्यय , फ़िज़ूलख़र्ची से अपने आप को बचाने की भी ज़रूरत है । इस तरह के व्यय बचाकर उसे मिल्लत के कल्याणकारी योजनाएं में लगाना चाहिए ।
बुराईयों को दूर करने के लिए हर इंसान दूसरे इंसान को समझाए। इस से मायूस न हों। वरना मायूस हो कर बैठ जाने पर आज जितनी गंदगी और बुराईयां हैं वे कल को ओर बढ़ जाएंगी!
यह भी एक बात है कि लोंगों के अंदर जब तक गंदगी और बुराईयों का अहसास बाकी रहेगा तो वह ज़रूर बुराई से छुटकारा पा लेगा। इसी तरह बेनमाज़ी को नमाज़ छोड़ने का अहमास होता रहेगा तो वह आज नहीं तो कल नमाज़ी बन ही जाएगा। ऐसा ती हाल झूठे इंसान का है तो वह ज़रूर सच्चाई की तरफ़ आ जाएगा ।
घर में अगर बीवी पर अत्याचार और ज्यादती हो रही हो जिसमें लड़का कहता है कि मेरी मां मेरी बीवी पर अत्याचार कर रही है , लड़के को इसका ज्ञान है कि यह अत्याचार मेरी मां की तरफ़ से मेरी बीवी पर ज़्यादती है इसका अहसास अगर लड़के के अंदर है तो वह अच्छे तरीके से अपनी मां को समझाने की कोशिश करेगा कि मां यह अत्याचार है इस से अपने आप को बचाईए है वरना इस तरह से आपकी अख़िरत , पारलौकिक जीवन ख़राब हो रही है। हुजुर सअ़व ने अपने आख़री खुत्बे में कहा था “तुम्हें जितना मालूम है लोगों तक पहुंचा दो”।