महिलाएं (ख़्वातीन) हों कि मर्द और बाशऊर बच्चे सभी पर इस्लाम के अहकाम लागू होते हैं ( महिलाएं और बच्चे मस्जिदों में पढ़ते हैं नमाज़ — मुस्लिम समुदाय के लिए इबादत के आदाब और आचार)
——– डॉ एम ए रशीद नागपुर
आज समाज में इस्लाम के प्रति जिस प्रकार की गलतफहमियां और भ्रांतियां पाई जाती हैं उनमें अधिकतर वे जान-बूझकर पैदा की हुई होती हैं । उन में से एकयह कि ऐसा कहा जाता है कि इस्लाम ने महिलाओं (ख़्वातीन) को मर्द के बराबर हैसियत नहीं दी है । उनकी दौड़-धूप पर इतनी पाबन्दियां लगा दी हैं कि वे ज़िंदगी की दौड़ में पीछे रह जाती हैं। वे हमेशा मर्द के अधीन जीवन बिताने पर विवश होती हैं । हमारा दीन “दीने इस्लाम” ही है जिसने कि सबसे पहले मर्द और महिलाओं के लिए बराबरी की आवाज़ उठाई है। उसने कहा कि अल्लाह की नज़र में महिला और मर्द दोनों बराबर हैं , उनकी सफलता और विफलता के सिद्धांत भी एक ही हैं ।
इस्लाम की दृष्टि से महिलाओं (ख़्वातीन) को घर की ज़िम्मेदारियां और मर्द को बाहर की ज़िम्मेदारियां उठानी चाहिए इसलिए कि दोनों के कार्य क्षेत्र स्वभाविक रूप से अलग-अलग हैं। महिलाओं पर घर का दायित्व देने से उसके आर्थिक प्रयत्नों पर प्रभाव पड़ सकता था, इसलिए इस्लाम ने केवल यही नहीं कि उसे आर्थिक रूप से गारंटी दी बल्कि सामाजिक तथा सामूहिक दृष्टि से भी बहुत ही ऊंचा स्थान प्रदान किया है। फिर यह कि महिला पर घर की ज़िम्मेदारी डालने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि घर-गृहस्थी के अतिरिक्त दुनिया के सारे काम उसके लिए वर्जित हो गए हों । इस्लाम का उद्देश्य केवल यह है कि महिला मूलतः घर की मालकिन है, वही उसका प्रबंध चलाती है, उसे बाहर की दुनिया को आबाद करने की चिन्ता में घर को उजाड़ नहीं देना चाहिए। घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के बाद अपनी परिस्थितियों, रुचियों तथा रुझानों की दृष्टि से वह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में दिलचस्पी ले सकती है। इतिहास गवाह है कि मुस्लिम समुदाय में महिलाओं ने अपने स्वाभाविक कार्य-क्षेत्र में कार्य करते हुए बहुत-से मैदानों में रूचियां दिखाकर आश्चर्यजनक कार्य किए हैं।
इस्लाम ने महिलाएं (ख़्वातीन) हों कि मर्द , बा शऊर बच्चों के साथ सभी पर इबादतों के अहकाम लागू किए हैं। वह उन्हें अल्लाह के बंदे बताकर अल्लाह के रिश्ते को इबादत के ज़रिए ज़ाहिर कराता है। इबादत में ग़फ़लत और कोताही इस संबंध को कमज़ोर से कमज़ोर करती चली जाती है। अगर इस ग़फ़लत पर काबू न पाया जाए तो यह ताल्लुक़ टूट भी सकता है। इस्लाम के आरंभ से ही मर्दों की तरह औरतों में भी इबादत में बड़ी रुचि पाई जाती थी। तमाम उम्मुल मोमिनीन ने भी इबादतों में विशेष रुचि दिखाई हैं ।
सलाह अर्थात नमाज़ इस्लाम की मूल इबादतों में से प्रमुख इबादत है। इस ओर ख़्वातीन विशेष ध्यान देकर पांचों वक्त की नमाज़ों के अलावा नफ़िल नमाज़ों का भी अहतिमाम करती हैं। रमज़ानुल मुबारक के बाबरकत महिने में भी वे पाबंदी से तरावीह की नमाज़े अदा करती हैं । अधिकांश महिलाएं अपनी परिस्थितियों को देखते हुए घरों पर ही नमाज़ें अदा करते हुए अपने साथ बच्चों को भी नमाज़ों का पाबंद बनाती हैं। इसके लिए वे उन्हें साफ़ सफाई , स्वच्छता अर्थात तहारत जिसमें पेशाब, पाखाना, नहाने के सभी आचार और आदाब से प्रशिक्षित करती हैं, ताकि बच्चे मस्जिदों में जाकर अनुशासन और ज़ाब्ते में रहते हुए कोई भी गंदगी , शोर शराबा न कर सकें । वाज़ेह रहे कि बच्चों की हरकतें घरों की तहज़ीब बयां करती हैं। बच्चों की किसी भी प्रकार की गंदगी पर इंतेज़ामिया को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है ।
महिलाओं को मस्जिदों में जमाअ़त के साथ सलाह यानी कि नमाज़ बाजमाअ़त नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं है। उनके लिए बेहतर बात यही है कि वे घरों में ही नमाज़ अदा करें। इसलिए बहुत सी मस्जिदों में उन पर जमाअ़त के साथ नमाज़ अदा करने पर पाबंदियां हैं । इस्लामी दृष्टिकोण से जमाअ़त के बड़े फ़ायदे हैं। अगर हालात इजाज़त दें और किसी भी प्रकार के छोटे से छोटे नैतिक दोष की बिल्कुल भी आशंका न हो तो वे मस्जिद पहुंच कर नमाज़ अदा कर सकती हैं। स्पष्ट हो कि वे समाज की सिर्फ़ सीमित मस्जिदों में ही नमाज़ें अदा कर सकतीं है , उन्हें हर किसी मस्जिद में जाकर नमाज़ अदा करने से बचना चाहिए , क्योंकि वहां उनके नमाज़ अदा करने के लिए मनाही और पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती , उन्हें वहां हुज्जत भी नहीं करना चाहिए। फिर भी मस्जिद कमेटियों को मस्जिद में महिलाओं (ख़्वातीन) की नमाज़ों के लिए ग़ौरो फ़िक्र करना चाहिए। इस तरह की सुविओं में नमाज़ों को बाजमाअ़त अदा कर सकेंगी । दूसरी ओर जब जब परिवार , ख़ानदान सफ़र में होता है या वे ख़रीदी के चलते बाज़ार में होता है तो आस पास की मस्जिद में जाकर ख़्वातीन अपनी ज़रुरियात के साथ कोई नमाज़ भी अदा कर सकती हैं।
शरीअत ने एक ओर तो उनको घर में ही नमाज़ पढ़ने पर उभारा है । दूसरी ओर मर्दों से कहा कि महिलाएं यदि मस्जिद जाना चाहें तो उन्हें मना न करें। जिन मस्जिदों में उन्हें आने की इजाज़त हो उन्ही मस्जिदों में इस्लाम की सारी हिदायतों की पाबंदी करते हुए सिर्फ उसी मस्जिद में जाना चाहिए।
इस सिलसिले में महिलाओं को मस्जिदों में जमाअ़त के साथ नमाज़ की अदायगी पर कूछ हदीसों पर प्रकाश डाला जाता है जिनमें बुख़ारी (किताबुल अज़ान ), मुस्लिम (किताबुस्सलात) नामक हदीस ग्रंथों में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि०) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “तुममें से किसी से उसकी महिला मस्जिद जाने के लिए इजाज़त मागे तो उसे मना न करे।”
यही कथन मुस्लिम ( किताबुस्सलात) हदीस ग्रंथ में इन शब्दों के साथ भी आया है कि “मस्जिदों में महिलाओं का जो भाग है, उससे उन्हें मत रोको।”
अनूदाऊद (किताबुस्सलात) नामी हदीस ग्रंथ में एक और कथन के शब्द हैं कि “अपनी महिलाओं को मस्जिद जाने से मना न करो, लेकिन उनके घर ही उनके लिए बेहतर हैं। यह अनुमति अधिकतर इशा और फ़ज्र की नमाज़ों से सम्बन्धित है, इसलिए कि इस कथन का उल्लेख “बुख़ारी (किताबुल अज्ञान), मुस्लिम (किताबुस्सलात)” में इन शब्दों के साथ भी हुआ है कि “जब तुम्हारी औरतें रात में मस्जिद जाने की अनुमति मांगे तो उन्हें अनुमति दे दो।” इस से मालूम होता है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के समय में मुख्य रूप से इशा और फ्रज में महिलाओं को शरीक होने की इजाज़त थी ।उल्लिखित कथनों से भी इसका पता चलता है कि वास्तव में वे उन नमाज़ों में शरीक होती थीं।
निम्न पंक्तियों में कुछ कथन प्रस्तुत किए जा रहे हैं कि हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि “अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फज्र की नमाज़ इतने अंधेरे में पढ़ते थे कि औरतें चादरों में लिपटी हुई अपने घर वापस होती थीं और अंधेरे की वजह से पहचानी नहीं जाती थीं। ” बुखारी (किताबुल अज़ान), मुस्लिम (किताबुल मसाजिद)
हज़रत उम्मे सलमा (रज़ि०) बयान करती हैं कि”अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के समय में महिलाएं फ़र्ज नमाज़ से सलाम फेरते ही खड़ी हो जाती थीं और अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आपके साथ जो मर्द नमाज़ पढ़ते वे अपनी जगह जब तक अल्लाह चाहता बैठे रहते (ताकि औरतें पहले मस्जिद से निकल जाएं) और जब आप उठते तो वे भी उठते।” बुख़ारी (किताबुल अज़ान)
हज़रत अबू क़तादा अंसारी (रह०) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “मैं नमाज़ के लिए खड़ा होता हूं और चाहता हूं कि इसमें देर तक नमाज पढ़ाऊं। इतने में किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनता हूं तो नमाज़ छोटी कर देता हूं। यह बात अच्छी नहीं लगती कि मैं उसकी मां को परेशानी में डालूं।” बुख़ारी (किताबुल अज़ान)
नागपुर की कुछ मस्जिदों में महिलाओं के लिए नमाज़ों का अहतिमाम होता है। इस बारे में जमाअत ए इस्लामी हिंद नगपुर वेस्ट के स्थानीय अध्यक्ष डॉ नुरुल अमीन तथा दारुल उलूम सलफ़िया के व्यवस्थापक डॉ इफ़हामुल्लाह फ़ारुक़ी ने क्रमश: बताया कि जाफ़र नगर के टीचर्स कालोनी में जमाअत ए इस्लामी हिंद नगपुर वेस्ट के मरकज़े इस्लामी में स्थित ” मौलाना नईमुल्लाह कुरैशी लायब्रेरी” तथा एहबाब कालोनी में स्थित “दारुल उलूम सलफ़िया” के अलावा शहर में स्थित अहले हदीस की सभी मस्जिदों में महिलाओं के लिए नमाज़ों का अहतिमाम बहुत पहले से किया जा रहा है। ख़्वातीन पांचों वक्त की नमाज़ें , जुमा और रमज़ानु मुबारक की तरावीह की नमाज़ें बच्चों के साथ अदा करती हैं, महिलाओं के लिए पर्दे के साथ तहारतख़ाने और वुज़ूख़ाने की पर्याप्त व्यवस्थाएं अलग से हैं , इन मस्जिदों में एक निगरां , सुपरवाइज़र बच्चों को तहारत , नमाज़ों के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण दिया करता है। बच्चे अनुशासन के साथ नमाज़ें अदा करते हैं। पहली या किसी दूसरी सफ़ में से उन्हें हटाया नहीं जाता बल्कि प्यार और मुहब्बत का सुलूक करते हुए उन्हें बेहतर से बेहतर नमाज़ों की अदायगी के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि भविष्य में उनका रिश्ता मस्जिद और नमाज़ों से बना रहे।