रमज़ानुल मुबारक के राज़े : आईना है इस्लामी धारणाओं का ” ‘दीन’ उस समय तक प्रभावी रहेगा, जब तक लोग इफ़्तार करने में जल्दी करते रहेंगे।” डॉ एम ए रशीद नागपुर

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रोज़े का दूसरा विशेष महत्त्व यह है कि वे कुछ पहलुओं से इस्लाम के मूल स्वभाव के सबसे बड़े प्रतीक हैं । 'दीन' की जो धारणा कुरआन ने प्रस्तुत की है उसकी विशिष्ट रूपरेखा रोज़े के आईने में सबसे पहले और अधिक स्पष्ट रूप में दिखाई देती है। इसका अर्थ यह हुआ कि रोज़ा इंसान को केवल कर्म ही की दृष्टि से संयमी और ईशभय रखने वाला ही नहीं बनाता, बल्कि विचार और धारणा की दृष्टि से भी उसमें तक़्वा पैदा करता है। फिर वह इंसान को केवल तक़्वा ही नहीं देता, बल्कि तक़्वे का व्यापक और अर्थपूर्ण भाव भी देता है। इस संक्षेप का विवरण या इसकी वास्तविकताओं का पता हमें हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कथनों से मिलता है - बुखारी ग्रंथ के खण्ड-1 में फ़रमाया गया कि "जिसने जीवन भर निरन्तर रोज़े रखे, उसका रोज़ा, रोज़ा नहीं।"

बुखारी ग्रंथ के खण्ड-1 में फ़रमाने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है कि “तुम्हें दो या दो से अधिक दिनों को मिलाकर (बिना सहरी व इफ्तार किए) रोज़ा रखने से पूरी तरह बचना चाहिए।”
हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अन्य कथनों में यह बात भी मिलती है कि “एक सफ़र में हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने देखा कि लोगों की एक भीड़ इकट्ठी है और एक इंसान के ऊपर छाया की हुई है। आप (सल्ल.) ने उनसे पूछा “क्या मामला है ?” बताया गया “एक रोज़ेदार है।” यह सुनकर आप (सल्ल.) ने फ़रमाया “यह कोई नेकी का काम नहीं है कि सफ़र में (इस प्रकार का) रोज़ा रखा जाए (जिसकी तकलीफें सामान्य सहनशक्ति से बाहर हों । “
मदीना से बाहर के रहनेवाले एक सहाबी रज़ि. ( हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि के आदर्श साथी) आप (सल्ल.) की सेवा में उपस्थित हुए, भेंट की और वापस चले गए। एक साल बाद दोबारा आए और अब जो आए तो इस हाल में थे कि उनका रूप-रंग बिलकुल बदला हुआ था। उन्होंने आप (सल्ल.) से पूछा कि – “ऐ अल्लाह के रसूल ! क्या आप मुझे पहचान नहीं रहे हैं ?” आप (सल्ल.) ने पूछा “तुम कौन हो ?” उत्तर दिया, “मैं वही शख़्स हूं जो पिछले साल आपकी सेवा में हाज़िर हुआ था।” फ़रमाया “किस चीज़ ने तुम्हारा रूप-रंग बदलकर रख दिया है? तुम तो बड़ी अच्छी शक्ल व सूरत के थे।” उन्होंने बताया कि यहाँ से वापस जाने के बाद आज तक मैंने रात के सिवा कभी खाना नहीं खाया (अर्थात् निरन्तर रोज़े रखता रहा )” यह सुनकर आप (सल्ल.) ने फ़रमाया “तुमने अपने को क्यों अज़ाब दिया ?”
इन कथनों पर ध्यान से विचार करने पर मालूम होता है कि रोज़ा पैग़म्बर की ज़बान से धार्मिकता की एक क्रांतिकारी धारणा को व्यक्त कर रहा है। वह ज़ोर देकर कह रहा है कि जो तक़्वा मेरे द्वारा प्राप्त करना इच्छित है।उसका आशय मन का दमन नहीं, बल्कि उसके नियंत्रण मात्र से है। रोज़ा केवल तक़्वा ही पैदा नहीं करता, बल्कि वह उसके एक ऐसे तथ्य को भी समझाता है जो साधारणतया बहुत कम समझा और जाना जाता है। क्योंकि ‘तक़्वा’ का शब्द सुनते ही दिल दिमाग़ के अन्दर साधारणतया कुछ ऐसी अवधारणा आने लगती है कि इंसान अपनी इच्छा की मांगों को ठुकरा देने में जितना अधिक से अधिक आगे बढ़ता जाएगा और अपनी इच्छाओं को जितना अधिक मारेगा ‘तक़्वा’ का उतना ही ऊंचा स्थान वह प्राप्त कर लेगा ।
रोज़े का अमल बताता है कि इस्लाम में तक़्वा का जो अर्थ है वह बिलकुल भिन्न चीज़ है। वह जिस प्रकार के कर्म की इन्सान से आशा करता है और जिस चीज़ को नेकी और तक़्वा (ईशभय) ठहराता है, वह केवल यह है कि इन्सान अपने मन को मर्यादाहीन न होने दे और उन्हें मनमानी करने से रोककर शरीअ़त के आदेशों का अनुपालक बनाए रखे । यह नहीं है कि वह शरीर को कष्ट दे देकर निर्बल बना दे और उसकी स्वाभाविक आशाओं और आवश्यकताओं को पूरी तरह ख़त्म करके रख दे। दूसरों के निकट यह दीनदारी की चाहे कितनी ही ऊंची और पवित्र अवधारणा क्यों न हो, इस्लाम के निकट बिल्कुल एक अप्रिय चीज़ है। वह इसे वास्तविक धार्मिकता और सही बंदगी का तरीक़ा नहीं कहता। उसकी धार्मिक अवधारणा के अनुसार यह तक़्वा नहीं है, बल्कि अपने आपको अज़ाब देना व उत्पीड़ित करना है। रोज़े की प्रक्रिया इस बात को निरन्तर याद दिलाती रहती है।
इन्हीं के पेशे नज़र हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि “सहरी खा लिया करो, क्योंकि सहरी खाने में बरकत है।”
“जब तक लोग इफ़्तार करने में जल्दी करते रहेंगे, भलाई में रहेंगे।”
” ‘दीन’ उस समय तक प्रभावी रहेगा, जब तक लोग इफ़्तार करने में जल्दी करते रहेंगे।” (अबू दाऊद)
अल्लाह तआला फ़रमाता है कि मेरा सबसे प्रिय बन्दा वह है, जो इफ़्तार करने में सबसे अधिक जल्दी करता है। (तिरमिज़ी)
इन पिछली हदीसों से जो महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी वास्तविकताएं सामने आई थीं, ये हदीसें उसको और अधिक स्पष्ट कर रही हैं, बल्कि कहना चाहिए कि इसके पूरे अर्थ को उजागर कर रही हैं। उन हदीसों के द्वारा यदि यह बात मालूम हुई थी कि तक़्वा का आशय मनेच्छा का दमन नहीं बल्कि उसका नियंत्रण मात्र है तो इन हदीसों के द्वारा मन के नियंत्रण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इसमें मन और रुचियों का नियंत्रण भी सम्मिलित है। अर्थात् जिस प्रकार अपने मन को अल्लाह के आदेशों के अधीन रखा जाए , उसी तरह अल्लाह के आदेशों की पैरवी करने में रुचि और अपनी राय को भी किसी प्रकार दखल देने वाला न बनाया जाए। वास्तविक ‘तक़्वा’ का असल स्थान केवल इतनी बात से हासिल नहीं हो सकता कि मन को अल्लाह तथा हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आदेशों के विरोध से रोका जाए, बल्कि इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि उन आदेशों के अनुपालन और अल्लाह की प्रसन्नता की चाह में अपनी राय , प्रवृत्ति और अपनी रुचि को उस समय कुछ बोलने का अधिकार न दिया जाए जबकि वह देखने में ख़ुदापरस्ती के पक्ष में जाती प्रतीत होती हों। इंसान को अल्लाह की बंदगी, नकारात्मक और स्वीकारात्मक हर हैसियत से ठीक उसी रूप में करनी चाहिए जिसका उसे ऊपर से आदेश मिला हो। वह जिस प्रकार अपने मन की उन इच्छाओं को दीवार पर दे मारता है जो उसे ‘दीन’ के आदेशों के पालन से रोक रही हों । उसी प्रकार चाहिए कि उन आदेशों के अनुपालन में अपने जी की कोई बात न सुने। वह अल्लाह की बंदगी और तक़्वा की ज़िन्दगी केवल उस चीज़ को समझे कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल.) ने जिस काम को जिस प्रकार और जिस रूप में करने को कहा है, उसे ठीक-ठीक उसी प्रकार और उसी रूप में पूरा किया जाए और जिस बात से जिस सीमा तक और जिस रूप में रोका है, उससे बस उसी सीमा तक, उसी रूप में रुका जाए। उसका दिल इस सत्यता पर सन्तुष्ट हो कि जिस प्रकार अमुक काम दीन का हुक्म है और उसका करना नेकी और बंदगी की अपेक्षा है, उसी प्रकार यह भी नेकी और बंदगी की अपेक्षा ही है कि आज्ञानुपालन की भावना के तहत भी उसकी सीमा और मात्रा में अपनी ओर से कोई अभिवृद्धि न की जाए।