अतीक़ अहमद हत्या: चिंता राज्य के अपराधी बनने की है, जिसे हमारी हिफ़ाज़त करनी है

81

अतीक़ अहमद हत्या: चिंता राज्य के अपराधी बनने की है, जिसे हमारी हिफ़ाज़त करनी है

अपराधियों के समर्थक अपराधी ही हो सकते हैं और वे हैं. हमारी चिंता है उस राज्य द्वारा समाज के एक हिस्से को हत्या का साझेदार बना देने की साज़िश से. हमारी चिंता क़ानून के राज के मायने के लोगों के दिमाग़ से ग़ायब हो जाने की है.

यह क़ानून के राज की सरेआम हत्या है. और समाज इसका जश्न मना रहा है. बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि हिंदू समाज का एक हिस्सा इसका उल्लास मना रहा है. यह उस समाज के भीतर घर कर गई एक गहरी बीमारी का लक्षण है. या उसका नतीजा. इस बीमारी का इलाज क्या है? या बीमार को पता भी है कि वह बीमार है?

इलाहाबाद, नहीं, प्रयागराज में अपराधी-राजनेता अतीक अहमद और उनके भाई अशरफ़ को पुलिस के घेरे में गोली मार दी गई. हत्यारे इत्मीनान से अतीक अहमद और अशरफ़ के क़रीब पहुंचे और उन्होंने गोलियों की बौछार कर दी. अतीक और अशरफ़ के इर्दगिर्द जो पुलिसवाले थे, उन्होंने जैसे गोलियों को रास्ता दिया. हत्यारे तब तक पीछे हटते रहे जब तक गोलियां चलती रहीं. फिर गोली मारने वालों ने ‘जयश्री राम ‘ का नारा लगाते हुए आत्मसमर्पण कर दिया.

हत्या का पूरा दृश्य टेलीविज़न पर लोग देखते रहे. टीवी समाचार वाचक उत्तेजित स्वर में इस हत्या को बार-बार दिखलाते रहे और एक-एक फ्रेम का विश्लेषण करते रहे. हत्या का पूरा आनंद सारे दर्शक ले पाएं, अपने इस कर्तव्य को लेकर टीवी चैनल काफ़ी सावधान थे. ‘लाइव मर्डर’ दिखलाने का मज़ा कुछ और ही है!

टीवी को छोड़ दीजिए, ‘हिंदू’ जैसे अख़बार ने हत्या की रिपोर्टिंग करते हुए लिखा कि कैसे अतीक अहमद को धूल चटा दी गई. या उसे मिट्टी में मिला दिया गया, जैसा वादा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय बिष्ट ने किया था जिन्हें लोग योगी आदित्यनाथ के नाम से जानते हैं. ‘माफिया को मिट्टी में मिला दूंगा’, यह मुख्यमंत्री की ज़बान थी. यह अब सभ्य लोगों को भी स्वीकार्य है.

हमें बतलाया गया है कि मुख्यमंत्री ने पुलिस घेरे में हुई इन हत्याओं की जांच के आदेश दिए हैं. उनके मंत्री ने हत्या के बाद संतोष ज़ाहिर किया है कि पाप-पुण्य का हिसाब इसी जनम में हो जाता है. दूसरे मंत्री ने इसे ईश्वरीय न्याय बतलाया. इसके बाद भी अगर कोई माने कि बेचारी पुलिस को चकमा देकर हत्यारों ने दोनों भाइयों का क़त्ल कर डाला, तो उसकी बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है.

यह भी खबर मिली कि भारतीय जनता पार्टी के युवा मोर्चे ने इलाहाबाद में पटाखे फोड़कर इसका जश्न मनाया. यह धारावाहिक उल्लास की एक किस्त थी. अभी दो दिन पहले ही अतीक अहमद के बेटे को पुलिस ने ‘मुठभेड़’ में मार डाला था. उसका जश्न लेकिन अधूरा था जब तक अतीक अहमद का खून लोगों को न मिलता. और वे निराश नहीं हुए.

याद रखिए कि अतीक़ के बेटे के क़त्ल के बाद एक हिंदुत्ववादी साध्वी ने लिखा था कि वह हत्या तो बस झांकी है, अभी अतीक बाक़ी है. और अतीक की हत्या हो ही गई.

अतीक अहमद ने ख़ुद सर्वोच्च न्यायालय में अपनी हत्या की आशंका को लेकर गुहार लगाई थी. अदालत ने सुनने से इनकार कर दिया. कहा कि वह राज्य की हिफ़ाज़त में है. बावजूद इसके कि अदालत जानती थी कि राज्य में इस तरह की हत्याओं का सिलसिला रहा है, उसने अतीक अहमद की आशंका पर कान नहीं दिया. आशंका सच निकली? क्या अदालत अभी भी अपने विवेक को लेकर निश्चिंत दूसरे मामले सुनती रहेगी?

‘जय श्री राम’ का नारा हत्या के बाद हत्यारों ने लगाया, यह संयोग नहीं है. वह आजकल अपराधियों का रक्षा कवच बन गया है. ख़ासकर अगर क़त्ल मुसलमान का हो रहा हो.

क्या इसे पढ़कर यह कहा जाएगा कि लेखक अपराधी अतीक अहमद का समर्थक है? संभव है. जैसे अतीक अहमद के बेटे के ‘मुठभेड़’ में क़त्ल की आलोचना करने पर पूछा गया कि क्या आप अपराधियों का समर्थन करते हैं. जिस तरह भी हो, समाज को उनसे छुटकारा मिल जाए, इससे आप खुश क्यों नहीं?

अपराधियों के समर्थक अपराधी ही हो सकते हैं. और वे हैं. हमारी चिंता उस राज्य के अपराधी बन जाने की है जिसे हमारी हिफ़ाज़त करनी है. और चिंता है उस राज्य द्वारा समाज के एक हिस्से को हत्या का साझेदार बना देने की साज़िश से. हमारी चिंता क़ानून के राज के मायने के लोगों के दिमाग़ से ग़ायब हो जाने की है.

मामला लेकिन क़ानून के राज के खून के अलावा बड़ा भी है. आख़िर हत्यारे ‘जय श्री राम’ का नारा क्यों लगा रहे थे? ‘जय श्री राम’ के नारे के साथ तो मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की जाती है. फिर क्या एक अपराधी को ही मारा जा रहा था?

प्रश्न असुविधाजनक है लेकिन अनेक लोगों के मन में घुमड़ रहा है तो उसे प्रकाशित भी होना ही चाहिए. क्या हत्यारों ने इस नारे के साथ अपनी पहचान बतलाई थी? और यह बतलाया था कि इस नारे को अपना मानने वालों की तरफ़ से यह हत्या कर रहे हैं?

कुछ मित्र हत्या की तारीख़ को लेकर हत्या की ईमानदारी पर सवाल उठा रहे हैं. उनका कहना है कि अतीक़ अहमद की हत्या सत्यपाल मलिक के सरकार विरोधी इंटरव्यू से ध्यान भटकाने के लिए की गई है. ताकि हम इस हत्या पर ही बात करते रहें और मलिक के आरोपों पर चर्चा दब जाए?

ध्यान भटकाने वाला सिद्धांत पहले भी कई बार इस्तेमाल किया गया है. मुसलमानों पर हमलों को महंगाई, बेरोज़गारी के असली राष्ट्रीय मुद्दों से ध्यान हटाने की साज़िश बतलाया जाता रहा है. हमें कहा जाता है कि हम असली मुद्दों पर टिके रहें.

सवाल है किसके ध्यान के भटक जाने को लेकर हम फ़िक्रमंद हैं? किस जनता के? किसके लिए ये हत्याएं नींद उड़ा देने वाली हैं और किसके लिए मात्र असली मॉडल से ध्यान को विचलित करने की चाल?

क्या हम राष्ट्रहित में इन हत्याओं को बस जाने दें? आख़िर मारा तो एक अपराधी ही गया है न? लेकिन क्या सच ही हमें इस हत्या पर बात नहीं करनी चाहिए? क्या ये हत्याएं ही असली मुद्दा नहीं हैं?