सामाजिक व्यवस्थारमज़ानुल पर विशेष”पारस्परिक सम्बन्ध कुधारणा के हाथों ख़त्म होते नज़र आए तो लोगों को परिस्थिति के सुधार के लिए तत्काल दौड़ पड़ना चाहिए”-डॉ एम ए रशीद नागपुर

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नागपुर

घर की सीमा से लगा बाहरी विस्तृत समूह जो सीमित सामूहिकता से घिरा हुआ होता है उसे 'समाज' कहते हैं । इसके सम्बन्ध में इस्लाम की कुछ आधारभूत धारणाएं और सम्बन्धित आदेश भी हैं। यह समाज अनगिनत व्यक्तियों से मिलकर बना होता है । इस बारे में इस्लाम का कहना यह है कि सब के सब एक ही माता-पिता की सन्तान होते हैं । पवित्र क़ुरआन  4:1 में इसी ओर इशारा करते हुए कहता है कि  “जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया।"

इसलिए पैदाइशी तौर पर वे सब बराबर होते हैं। उनमें कोई छोटा-बड़ा नहीं होता। कोई पाक और कोई नापाक नहीं होता। काले और गोरे, हिन्दी और अरबी, आर्यन और सामी, एशियाई और यूरोपी, पूर्वीय या पश्चिमी सभी एक जैसे से, एक ही श्रेणी के और एक ही प्रकार के अधिकारों को रखने वाले इंसान होते हैं।
नस्ल या देश या रंग और भाषा के आधार पर उनमें कोई भेदभाव नहीं हो सकता। भेदभाव का केवल एक ही आधार यह हो सकता है कि उसके अपने पालनहार प्रभु के प्रति मनुष्य का उचित और अनुचित रवय्या। इसलिए पूरा मानव-समाज वास्तव में केवल दो वर्गों में बंटा हुआ है- एक वर्ग उन लोगों का है जो अपने वास्तविक स्वामी अल्लाह के धर्म (दीन) में आस्था (ईमान ) रखते है। दूसरा उन लोगों का है जो उसे अपना धर्म नहीं मानते। इन दोनों समाजों की आधारशिलाएं स्पष्टतः एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न होती है । जब आधारशिलाएं भिन्न होती हैं तो उनके ढाँचे भी नैसर्गिक रूप से परस्पर भिन्न होते हैं, और जीवन के कई महत्त्वपूर्ण मामलों में उनके बीच कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ ‘निकाह का रिश्ता’ जो पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था की पहली ईंट है, मुसलमानों और अन्य संप्रदायों में स्थापित नहीं हो सकता।
ऐसे घुले मिले समाज में आम मानवीय आधारभूत शिष्टाचार व्यवहार योग्य हैं । उदाहरणतः न्याय व इंसाफ़, सत्यनिष्ठा व ईमानदारी, सहृदयता व मुरव्वत, अनुकम्पा व समता, सच्चाई और वचनों का पालन आदि का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। रहा मुस्लिम समाज का मामला तो इसके लिए इस्लाम ने बड़े विस्तार से और सुस्पष्ट हिदायतें दी हैं और उन्हीं को इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है। इन हिदायतों का सार यह है कि व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध किसी प्रकार के सामुदायिक या वर्गीय या वंशीय संघर्ष के बजाय भाईचारगी, सहानुभूति, समानता, सहयोग और त्याग पर स्थापित किए जाएं। पवित्र कुरआन में 49:10 में अल्लाह का आदेश है कि “ईमानवाले तो आपस में भाई-भाई हैं।”
व्यावहारिक रूप में इस ‘भाईचारगी अल्लाह और उसके रसूल हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इन फ़रमानों से होता है कि “ये ईमान वाले अपने ऊपर दूसरों को प्राथमिकता दिया करते हैं, चाहे स्वयं भुखमरी की हालत में क्यों न हो।”( पवित्र कुरआन 59:9)
“लोग दूसरे लोगों का मज़ाक न उड़ाएं। और न औरतें दूसरी औरतों का मज़ाक़ उड़ाएं । एक-दूसरे पर दोषारोपण न करो, न एक-दूसरे का बुरा नाम रखो बुरा कहने से बचो…… ।
” बहुत ज्यादा गुमान करने से और किसी का भेद न टटोलो, न एक-दूसरे को पीठ पीछे बुरा कहो (पवित्र कुरआन, 49:11-12)
“मोमिन एक-दूसरे के लिए इमारत के सदृश होते हैं, जिसका हर अवयव (एक) दूसरे का सहायक होता है।”(मुस्लिम) :
“पारस्परिक प्यार, दयालुता और स्नेह में मुसलमानों की स्थिति एक जिस्म की तरह है। शरीर के एक अंग में यदि कष्ट होता है, तो पूरा शरीर बेचैनी, अनिद्रा और बुखार में ग्रस्त हो जाता है।” (मुस्लिम, भाग-2)
“आपस में ईर्ष्या न करो, न नीलाम में केवल दाम चढ़ा देने के लिए बोली बोलो न एक-दूसरे से द्वेष रखो, न सम्बन्ध समाप्त करो और न दूसरे के क्रय-विक्रय के मामले में हस्तक्षेप करके स्वयं क्रय-विक्रय का मामला कर लेने की कोशिश करो, बल्कि अल्लाह के बंदे और भाई-भाई बनकर रहो। एक मुसलमान दूसरे का भाई होता है। उस पर ज़ुल्म नहीं करता और न उसे निस्सहाय व बेबस छोड़ता है और न उसको तुच्छ समझता है……. मुसलमान के खून का सम्मान, उसकी सम्पत्ति का सम्मान और उसकी इज़्ज़त का सम्मान मुसलमान पर फ़र्ज़ (अनिवार्य कर्तव्य है।” (मुस्लिम, भाग-2)
“एक मुसलमान के दूसरे मुसलमान पर छः हक़ हैं कि (1) जब उससे मिलो तो सलाम करो, (2) जब मदद के लिए पुकारे तो ‘हाजिर हूं” कहो, (3) जब तुमसे ख़ैरख्वही की अपेक्षा करे तो उसके प्रति ख़ैरख्वही करो , (4) जब छीके और छींकने के बाद ‘अलहम्दुलिल्लाह’ कहे तो ‘यर्हमुकल्लाह’ कहो, (5) जब बीमार पड़े तो उसकी तबीअत पूछने को जाओ और (6) जब वफ़ात (मृत्यु) पा जाए तो उसके जनाजे में शामिल हो।”( मुस्लिम, भाग-2)
“किसी मुसलमान के लिए जाइज़ (वैध) नहीं कि अपने मुसलमान भाई को तीन दिन से ज़्यादा मुद्दत तक छोड़े रहे।” (मुस्लिम, भाग-2)
“कोई व्यक्ति अपने मुसलमान भाई के निकाह के पैग़ाम पर पैग़ाम न दे, यहाँ तक कि वह निकाह कर ले या बात खत्म कर दे।” ( बुख़ारी, भाग-2)
“पारस्परिक सम्बन्धों की ख़राबी से पूरी तरह बचते रहो; क्योंकि यह चीज़ दीन (धर्म) का सफ़ाया कर देने वाली है।” (अबू दाऊद, भाग-2)

यह है इस्लामी समाज में लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों की अपेक्षित स्थिति और कैफ़ियत। यह स्थिति किसी कुधारणा या स्वार्थपरता के हाथों जहां कहीं ख़त्म होती नज़र आए तो दूसरे लोगों का अनिवार्य कर्त्तव्य (फ़र्ज़) बनता है कि वे परिस्थिति के सुधार के लिए तत्काल दौड़ पड़ें । फिर न कोई लड़ाई झगड़े की बात आएगी और न ही बदला लेने की प्रवृत्ति जन्म ले सकेगी।
इसी लिए पवित्र कुरआन, 49:10 में कहा गया कि “मुसलमान तो (सारे-के-सारे) आपस में भाई-भाई हैं। अतः (अगर कहीं आपस में रंजिश पैदा हो जाए तो) अपने दोनों भाइयों में समझौता और सुलह-सफाई करा दो।”
एक हदीस में है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने सहाबा (रज़ि.) से फ़रमाया – ‘क्या तुम्हें एक ऐसा काम न बताऊं जो रोज़े और सदके (दान) और नमाज़ से भी श्रेष्ठ है?” सहाबा (रज़ि.) ने निवेदन किया, “हां (ज़रूर बताएं)।” फ़रमाया – “आपस के सम्बन्धों को ठीक कर देना।” (हदीस अबू दाऊद, भाग-2)