रमज़ानुल मुबारक पर विशेष
“परिपूर्ण व्यवस्था में इस्लाम की
आध्यात्मिक व्यवस्था – मज़ाक उड़ाने व्यंग्य कसने पर लगाती है रोक”
————- डॉ एम ए रशीद नागपुर
आध्यात्मिक व्यवस्था इस्लामी व्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण और केंद्रीय पहलू है । इसका सीधा सम्बन्ध इंसान की अन्तरात्मा से है । इस व्यवस्था का ख़ास लक्ष्य यह है कि इंसानी आत्मा इच्छाओं की दासता से आज़ाद और संसारवाद के प्रदूषण से शुद्ध हो जाए और आज़ाद व शुद्ध होकर अल्लाह की पैरवी, उसकी मुहब्बत और उसकी प्रसन्नता की चाहत की भावनाओं से भर जाए । इंसान वही कुछ पसन्द करने लगे जो उसके अल्लाह को पसन्द है । हर उस चीज़ को घृणा की दृष्टि से देखने लगे जो उसके अल्लाह को अप्रिय है। अपने वास्तविक स्वामी के आदेशों पर इस प्रकार अमल करने लगे मानो वह उसे अपने सिर की आँखों से देख रहा है। उसकी नाराज़ी से इस प्रकार डरता रहे मानो उसके तेजस्वी सिंहासन के सामने खड़ा है। उसकी प्रसन्नता के लिए इस प्रकार लपकता रहे जैसे प्यासा ठण्डे पानी की ओर लपकता है।उसके इशारों पर अपनी जान व माल कुरबान कर देने के लिए इस तरह तैयार रहे जैसे कि इन चीज़ों की उसकी निगाह में कोई क़ीमत ही नहीं। आध्यात्म के इस सबसे ऊंचे और सर्वोच्च स्थान का नाम इस्लाम की भाषा में ‘एहसान’ का नाम आता है ।
अन्तरात्मा में पवित्रता और ख़ुदा-तलबी की यह कैफ़ियत पैदा करने के लिए इस्लाम ने जो मौलिक और सहज उपाय निश्चित किए हैं वे वही हैं जिनको ‘इस्लाम का आधार-स्तम्भ’ कहा जाता है। इनमें रोज़ा का पवित्र महीना भी शामिल है । नमाज़ , ज़कात और हज ये सभी मानवीय अन्तरात्मा में आध्यात्मिक कैफ़ियत उत्पन्न करते हैं ।
रोज़े एक ओर अनुशासन का प्रशिक्षण तो देते ही हैं साथ वे पवित्र क़ुरआन के आदेशों के अनुसार आध्यात्मिक व्यवस्था की जीवनशैली पर चलने के लिए रोज़ेदारों को कटिबद्ध भी कर देते हैं। रोज़ेदारों में इंसानों के प्रति अनुचित भाव समाप्त हो जाते हैं । इंसान किसी दूसरे इंसान की मान-मर्यादाओं को बहुत हल्के में लेता है। कभी कोई मज़ाक़ का बहाना बनाकर किसी को अपमानित करने का मौका नहीं छोड़ता तो कोई किसी पर व्यंग्य आदि कसने से नहीं चूकता । इन्हें नहीं मालूम कि उस इंसान की भी कोई क़द्र , मान-मर्यादा है। जब उस पर मज़ाक़ , व्यंग्य किया जाता है तो चित परिचितों के बीच भी वह बदनाम होने लगता है। गोया उसकी ज़िन्दगी बेशर्मी की सी ज़िंदगी बन कर रह जाती है। अल्लाह तआला ने उन सभी चीज़ों को हराम किया है जो भाईचारे और इंसान की पवित्रता को प्रभावित करती हैं । इस सिलसिले की पहली बात लोगों का मज़ाक उड़ाना है।
किसी मोमिन के लिए जो अल्लाह और आख़िरत का उम्मीदवार हो यह जायज़ नहीं है कि वह किसी व्यक्ति का मज़ाक उड़ाए या उपहास करे या उसे निशाना बनाए। इसमें लोगों के लिए अहंकार, गर्व और अवमानना शामिल होती है और यह कार्य अल्लाह के गुणों की गुणवत्ता से अनजान होने के समान है। इसीलिए किसी भी तरह के हंसी मज़ाक , तानों पर प्रतिबंध लगाते हुए पवित्र क़ुरआन में सुरा हुजरात की पंक्ति क्र . 11 में कहा कि “ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! न पुरुषों का कोई गरोह दूसरे पुरुषों की हंसी उड़ाए, सम्भव है वे उनसे अच्छे हों और न स्त्रियां स्त्रियों की हंसी उड़ाएं, सम्भव है वे उनसे अच्छी हों, और न अपनों पर ताने कसो और न आपस में एक-दूसरे को बुरी उपाधियों से पुकारो। ईमान के पश्चात अवज्ञाकारी का नाम जुड़ना बहुत ही बुरा है। और जो व्यक्ति बाज़ न आए तो ऐसे ही व्यक्ति ज़ालिम हैं।”
अल्लाह सर्वशक्तिमान के अनुसार इंसान की ख़ूबी – गुणवत्ता ईमान ईमानदारी और अल्लाह के साथ संबंध में है, न कि दिखावे, धन और संपत्ति में। हदीस में कहा गया है कि “अल्लाह तुम्हारे चेहरे को नहीं देखता है और न ही तुम्हारे चेहरे और तुम्हारे धन को देखता है, बल्कि वह आपके दिल और आपके कर्मों को देखता है।” (मुस्लिम)
लिहाज़ा किसी पुरुष या महिला का मज़ाक उड़ाना कैसे जायज़ हो सकता है कि वह शरीर के किसी विकार या वित्तीय दिवालियापन से पीड़ित हैं?
बताया जाता है कि एक बार हजरत अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ि की पिंडली खुल गई थी। उनकी पिंडलियां बहुत पतली थीं। कुछ लोग देखकर हंस पड़े, लेकिन नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया् कि क्या आप लोग इन की पिंडलियां दुबला होने पर हंसते हो ? क़सम है उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है वे उहद पहाड़ से भी ज़्यादा भारी होंगी ।
कुरआन ने वर्णन किया है कि इस प्रकार के दोषी बहुदेववादी , सदाचारी आस्तिकों और विशेष रूप से बिलाल, अम्मार आदि का उपहास उड़ाते थे और कुरआन ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि क़यामत के दिन मानक बदल जाएंगे और जो लोग का मज़ाक़ उड़ाते हैं उनका ही मज़ाक़ उड़ाया जाएगा।