जब हम अ़रबी ज़ुबान की बात करते हैं तो यहां यह बताना ज़रूरी होता है कि
दुनिया के सभी मुसलमान अ़रबी ज़ुबान का सम्मान भी करते हैं और उसे पवित्र भाषा भी मानते हैं। दुनिया में इसे लगभग 135 करोड़ लोग अपनी मातृभाषा के अलावा इसे उसी तरह बोलते हैं जैसे कि वे मातृभाषा बोलते हैं । इस से आगे यह कि यह ज़ुबान दुनिया के लगभग एक अरब 70 करोड़ मुसलमानों की धार्मिक यानि कि मज़हबी ज़ुबान है। सलात / नमाज़ों में प्रतिदिन पढ़ी जाने वाली यही अ़रबी ज़ुबान है जिसमें पवित्र क़ुरआन की सूरह पढ़ी जाती हैं । क़ुरआन मजींद की तिलावत भी इसी भाषा में की जाती है, इसलिए तिलावते कुरआन के एक-एक शब्द की नेकियां तिलावत करने वाले को मिलती हैं । क़ुरआन मजीद का असल उसूल इसी यही अरबी ज़ुबान है। पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ‘तुम में से सबसे अच्छा वह है जो क़ुरआन सीखता और उसे सिखाता है” ।
सूरा इबराहीम की पंक्ति क्र 4 में अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि “हमने जो रसूल भी भेजा, उसकी अपनी क़ौम की भाषा के साथ ही भेजा, ताकि वह उनके लिए अच्छी तरह खोलकर बयान कर दे। फिर अल्लाह जिसे चाहता है पथभ्रष्ट रहने देता है और जिसे चाहता है सीधे मार्ग पर लगा देता है। वह है भी प्रभुत्वशाली, अत्यन्त तत्वदर्शी”।
सूरह फ़ुस्सेलत (हा मीम सिजदा) की पंक्ति क्र 3 में अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि “एक किताब, जिसकी आयतें खोल-खोलकर बयान हुई हैं; अ़रबी क़ुरआन के रूप में, उन लोगों के लिए जो जानना चाहें” । इसी तरह पवित्र क़ुरआन की सूरह यूसूफ़ की पंक्ति क्र 2 में अल्लाह तआ़ला फ़रमाते हैं कि “हमने इस क़ुरआन को अ़रबी में उतारा है, ताकि तुम समझो” अर्थात इसलिए कि क़ुरआन के प्रथम संबोधित अ़रब लोग थे, फिर उन के द्वारा दूसरे साधारण मनुष्यों को संबोधित किया गया है। तो यदि प्रथम संबोधित ही क़ुरआन नहीं समझ सकते तो दूसरों को कैसे समझा सकते थे?
इन संदर्भों के मद्देनज़र अ़रबी ज़ुबान की अहमियत के हमारे सामने है जो मज़हबी हैसियत रखते हुए ख़ुत्बाए जुमा और ईदैन के ख़ुत्बों की जुबान बनी हुई है । ख़ुत्बे में ब्यान होने वाले शब्दों का ज़िक्र भी पवित्र क़ुरआन मजीद की आयतों और हदीस मुबारक से लिया गया होता है । वाज़ेह रहे कि दो ख़ुत्बे जिनका समय कम से कम दस मिनिटों का होता है । ख़ुत्बों में क़ुरआन मजीद की जिन आयतो और हदीस मुबारक का ज़िक होता है, उन्हें मुस्लिम समुदाय कभी न कभी पढ़ता और सुनता रहता है। ख़ुत्बे का बाक़ी हिस्सा किसी हिदायत और किसी समस्या के समाधान पर निर्देशित रहता है। यदि ध्यानपूर्वक ख़ुत्बे को अ़रबी में सुना जाए तो उसका मतलब निकालना मुश्किल नहीं होता। फिर भी यह जानना मुश्किल हो जाए तो मज़हबी इस अ़रबी ज़ुबान को समझने का रूटिना बनाना चाहिए । जब मुस्लिम समुदाय प्यारे नबी पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से मुहब्बत करता हो तो उसे चाहिए कि उनकी ज़ुबान से भी मुहब्बत करे । फिर आश्चर्य नहीं कि कुरआन मजीद की ज़ुबान अ़रबी उसे अपने आप समझ में आने लगेगी। इस तरह मज़हब को समझना किसी तरह मुश्किल की बात नहीं होगी । जुमे में अ़रबी ज़ुबान के हर एक ख़ुत्बे मुस्लिम समुदाय को तंबीह करते हैं कि मुस्लिम समुदाय अपनी मज़हबी जुबान की ओर पलटें । इसलिए भी कि अ़रबी ज़ुबान क़ियामत तक ज़िंदा रहने वाली ज़ुबान है। जब तक क़ुरआन रहेगा तब तक अ़रबी ज़ुबान भी ज़िंदा रहेगी।
अ़रबी ज़ुबान को समझने का सकारात्मक पहलू इससे बढ़ कर क्या हो सकता है कि अपने बीच रखे जाने वालों के नामों पर ग़ौर किया जाए जबकि हम में से हर एक का नाम अ़रबी ज़ुबान में ही रखा होता है । इन रखे जाने वाले नाम अल्लाह तआ़ला और प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नामों में से होते हैं। इन नामों के मायने अर्थात अर्थ अलग-अलग होते हैं । मायनों को याद रखना ज़रूरी होता है। तब इन से बने क़ुरआन के अधिकयर शब्दों से परिचित होकर वाक्यों के मायनों को समझना आसान हो जाता है । जिन्हें अरबी नहीं आती उन्हें अ़रबी सीखने और समझने का प्रयास इस तरह से ज़रुर करना चाहिए। पूर्ण निष्ठा और नेक इरादों के साथ किसी भी तरह के अन्य प्रयासों में अ़रबी ज़ुबान सीखने पर अल्लाह किसी को निराश नहीं करेगा । दूसरी ओर अ़रबी ज़ुबान अपने आप में इतनी सैद्धांतिक भाषा है कि एक बार कुछ सिद्धांतों को समझ लिया जाए तो कई शब्द और वाक्य भी बड़ी आसानी से समझ में आने लगते हैं । अतः अ़रबी जानकारों को उन मुसलमानों के बीच इसे फैलाने का प्रयास किया जाना चाहिए जो इसे नहीं जानते हैं, जानने वालों के बीच इसे मज़बूत करने के प्रयास भी किये जाना चाहिए, क्योंकि यह सबसे अच्छी चीज़ों में से एक है , जो उन्हें क़ुरआन, सुन्नत और इस्लामी विज्ञान को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है।
जिस तरह से पवित्र क़ुरआन अ़रबी ज़ुबान में अवतरित हुआ और वह बहुत से आदेशों का संग्रह है उसी तरह दिए जाने वाले अरबी जुबान के ख़ुत्बे भी अपनी हैसियत आप रखते हैं। अ़रबी ज़ुबान में दिए जाने वाले ख़ुत्बे अगर समझ में न भी आएं या उनका समझ में आना मुश्किल हो तो उन्हें चुपचाप रह कर सुनना ज़रुरी है जो उनकी अहमियत को दर्शाता है। लेकिन यहां यह बात भी सोचने की है कि ऐसा करना क्या ख़ुत्बों के साथ न्याय होगा ! रही उनके हक़ अदा करने की बात तो उन्हें सुनने के साथ समझना भी जरूरी है, क्योंकि उनके संदेश हमारे जीवन में बहुत से बदलाव लाते हैं। हमारा जीवन चाहे एकांगी हो कि पारिवारिक, सामाजिक, व्यापारिक, शैक्षणिक, चिकिस्तीय, शासकीय आदि किसी से से संबंधित क्यों न हो ये ख़ुत्बे आख़िरत के जवाबदेही के साथ आदर्श जीवन जीने के मज़हबी उसूल बताते हैं। वे आदर्श जीवन के साथ हमारे समाज में भाईचारा, सौहार्द का स्त्रोत होते है, जब तक उन्हें समझेंगे नहीं ता उनके मार्गदर्शन पर पालन करना असंभव हो जाएगा ।
सांसारिक कार्यों और उसमें सफलता हेतु शिक्षा अर्जन में सब कुछ सहन किया जा सकता है लेकिन पारलौकिक सफलता के लिए अ़रबी न जान कर एक ओर क़ुरआन और हदीस पर पर अमल तो दूसरी ओर ख़ुत्बों की हिदायतों को न समझ पाना बड़ी भूल और ग़फ़लत की निशानी है ।