इस्लाम की गृहस्थ जीवन व्यवस्थारमज़ानुल मुबारक पर विशेष “माता-पिता के साथ सद् व्यवहार करो”,डॉ एम ए रशीद नागपुर

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नागपुर
इंसान के जीवन का सबसे पहला क्षेत्र उसका गृहस्थ जीवन होता है। यहां वह अपनी पत्नी, बच्चों से हर वक़्त क़रीब रहता है। स्वाभाविक रूप से हर इंसान को अपने परिवारजन के साथ बड़ी गहरी मुहब्बत होती है और इसलिए वह आम तौर से उनके साथ त्याग और बलिदान का व्यवहार भी अपनाता है। इस्लाम कहता है कि यह व्यवहार मात्र एक फितरी मांग ही नहीं है, बल्कि यह इस्लाम धर्म का एक अनिवार्य कर्त्तव्य भी है। इसलिए इंसानों के बारे में अल्लाह का आदेश पवित्र क़ुरआन 4:19 में है कि “अपनी बीवियों के साथ भले तरीक़े से रहो-सहो।”
फिर वहीं पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद तिर्मीज़ी ग्रंथ के अनुसार
“तुम में से अच्छे लोग वे हैं जो अपनी बीवियों के प्रति अच्छे हों।”
मुस्लिम ग्रंथ के अनुसार हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया “औरतों के विषय में अच्छे आचारण की वसीयत कबूल करो। “
घरेलू जीवन के बाद ख़ानदानी जीवन का क्षेत्र आता है, जहां इन्सान का वास्ता माता-पिता और भाई-बहन आदि निकट संबंधियों से होता है। माता-पिता के साथ जिस व्यवहार को अपनाने का हुक्म दिया गया है उसका अनुमान सिर्फ़ इसी एक बात से लगाया जा सकता है कि अल्लाह तआला ने उनके साथ सद् व्यवहार करने का आदेश अपनी इबादत करने के आदेश के साथ ही पवित्र कुरआन 4:36 में दिया है –
“….. अल्लाह की इबादत करो और उसका किसी को सहभागी न बनाओ और माता-पिता के साथ सद् व्यवहार करो।”
और फिर सद् व्यवहार की व्याख्या करते हुए पवित्र कुरआन 17:24 में फ़रमाया कि “उनके समक्ष विनम्रता की बांहों को दयालुता ( एवं प्रेम की भावना) के साथ झुका दो, और प्रार्थना करो कि प्रभु! इन पर कृपा कर, जिस प्रकार इन्होंने (कृपा एवं स्नेह के साथ) मुझे बचपन में पाला था।”
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस सिलसिले में जो कुछ कहा है उसमें से केवल दो-एक कथनों का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा कि “तुम्हारे माँ-बाप तुम्हारी जन्नत और जहन्नम हैं।” (इब्ने माजा)
“जो नेक औलाद अपने माँ-बाप पर प्यार और स्नेह की दृष्टि डालती है, अल्लाह तआला उसकी ऐसी हर दृष्टि के बदले उसे एक क़बूल किए हुए हज का सवाब प्रदान करता है।”( बैहक़ी)
अल्लाह न करे कि माता-पिता कठोर हृदयी भी हैं तो भी उनके साथ नरमी का बरताव करना चाहिए , उनसे बिना कोई वाद विवाद के संबंधों में कड़वाहट नहीं लाना चाहिए , हमेशा उनके साथ सुलाह रहमी करते रहना चाहिए । इस संबंध में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि “जो कोई अल्लाह और आखिरत पर ईमान रखता हो, उसे चाहिए कि सुलाह रहमी करे।’ ( बुखारी)
“रहमी रिश्ते काटनेवाला जन्नत में दाखिल न हो सकेगा। (बुखारी)
इसके बाद पड़ोस और मुहल्ले का क्षेत्र आता है। पड़ोसियों से हम मुसलमानों को जिस प्रकार पेश आना चाहिए उसके स्पष्टीकरण के लिए दो हदीसें पर्याप्त समझी। जा सकती हैं।
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि “जिबरील (अलै.) मुझे पड़ोसी के प्रति बराबर सचेत करते रहे, यहाँ तक कि मेरे मन में यह धारणा उत्पन्न होने लगी कि कहीं उसे वारिस न बना दें।” (बुखारी)
“जिस व्यक्ति का पड़ोसी उसकी यातना से सुरक्षित न हो, वह जन्नत में न जाएगा।” ( मुस्लिम)
इंसान के गृहस्थ जीवन को सुखमय बनाने के यह इस्लाम के सकारात्मक पहलू हैं, जिन्हें नज़र अंदाज़ कर पूरा परिवार दुविधाओं की चपेट में आ जाता है ।