प्यारे नबी हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का कहना कि तुम में से प्रत्येक निगरां है अपने मातहतों का (मुस्लिम समुदाय के लिए आदाब और आचार)-डॉ एम ए रशीद , नागपुर

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आज के व्यस्ततम माहौल में हर एक व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारियों से या तो मुंह मोड़ रहा है या फिर उसे अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति कोई जानकारी और अहसास ही नहीं रहा। इस्लामी नुक़्ता ए नज़र से हर एक व्यक्ति को अपनी और अपने अधीनस्थ लोगों की ज़िम्मेदारियों का इल्म होना अति आवश्यक है। इस नाते कभी ज़िम्मेदार व्यक्ति अपनी ओर से तो ज़िम्मेदारी निभा देता है लेकिन उसके अधीन लोग ज़िम्मेदार व्यक्ति के निर्देशों का बराबर पालन नहीं करते जिस कारण उसका अंजाम दिखाई नहीं देता। ऐसी कश्मकश में बिगाड़ जन्म लेता है, अनुशासनहीनता से सारा परिवार बिखर कर रह जाता है। इसलिए किसी भी परिवार में उचित मार्गदर्शन, प्रबंधन हो और उसमें पारस्परिक तालमेल हो तो वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर लेता है।


जब कोई व्यक्ति इस संसार के जीवन में कदम रखता है, तो वह अपने साथ हजारों जिम्मेदारियों का बोझ लेकर आता है, मानो जीवन की परिभाषा ही जिम्मेदारियां हैं और वे इतनी भिन्न और विरोधाभासी हैं कि उन्हें कवर नहीं किया जा सकता है। मनुष्य एक जिम्मेदार इकाई की हैसियत रखता है। पवित्र क़ुरआन सूरह मोमिनुन , सूरह क़ियामा , सूरह बलद में विभिन्न आयतों में मनुष्य को उसकी ज़िम्मेदारी और अमानतदारी के बारे में बहुत स्पष्ट तरीके से उल्लेख है। अमानत का तात्पर्य अल्लाह तआ़ला द्वारा मनुष्य पर सौंपी गई जिम्मेदारियों और कर्तव्यों से है।
इस ब्रह्माण्ड में अल्लाह तआ़ला की कोई दूसरी रचना नहीं है जो जिम्मेदारियों का बोझ उठाने और उन्हें शालीनता से पूरा करने में इंसान की बराबरी कर सके, क्योंकि अल्लाह तआ़ला ने इंसान में ऐसी क्षमता पैदा की जिसे इंसान पूरा कर सकता है। इंसान उन जिम्मेदारियों को न सिर्फ़ उठा सकते हैं, बल्कि अच्छे तरीके से निभा भी सकते हैं।
हर इंसान की अलग-अलग और परस्पर विरोधी ज़िम्मेदारियां होती हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय । इनमें से कुछ को बिना बताए जाना जाता है और कुछ को बताकर जाना जाता है। फिर मंजिल तक पहुंचने और सार प्राप्त करने के लिए उन्हें व्यावहारिक रूप से सही दिशा में लागू करना आवश्यक होता है।
सहीह बुख़ारी नामक प्रसिद्ध हदीस ग्रंथ में उल्लिखित है कि नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
का कथन है कि “तुममें से प्रत्येक पर्यवेक्षक – निगरां है और हर एक अपने मातहतों , अधीनस्थों के बारे में जवाबदह है इसलिए लोगों पर नियुक्त शासक उनका पर्यवेक्षक अर्थात निगरां है ,वह अपनी प्रजा के लिए जिम्मेदार है और पुरुष अपने घर वालों पर पर्यवेक्षक अर्थात निगरां है और रक्षक है, वह अपने अधीनस्थ के बारे में जिम्मेदार है, और महिला अपने पति के घर की जिम्मेदार और संरक्षक है, उससे उनके बारे में पूछा जाएगा और आदमी का नौकर अपने मालिक की संपत्ति का संरक्षक है, उससे उसकी संरक्षकता अर्थात निगरानी के बारे में पूछा जाएगा। तुम में से हर कोई ज़िम्मेदार है और हर एक अपने अधीनस्थ पर (निगरानी और जिम्मेदारी) के बारे में जिम्मेदार है “।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इस कथन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्रत्येक मुस्लिम पुरुष और महिला ज़िम्मेदार है। अब हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी को पहचाने, अपने अंदर इसकी पूर्ति का भाव विकसित करे।
और यह यह जानने का प्रयास और कोशिश करे कि मेरी ज़िम्मेदारियां क्या हैं? मेरे व्यक्तित्व और हैसियत से किन किन लोगों के अधिकार जुड़े हैं ताकि हर ज़िम्मेदार व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी निभा सके और योग्य लोगों को उनका अधिकार मिल सके। जब अन्याय और अधर्म का सवाल ही नहीं रहेगा तो परिवार और समाज में फ़ित्ना, फ़िसाद , उपद्रव , बेपरवाही और उपेक्षा पैदा ही नहीं हो सकेगी । इससे वास्तविक शांति और सुकून उपलब्ध होगा जो मानव स्वभाव की पहली आवश्यकता और इस्लामी शरीयत का सटीक उद्देश्य है।
हर मुसलमान को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि अगर वह अफ़सर है तो उसके मातहतों , अधीनस्थ के उस पर क्या अधिकार हैं? यदि वह शासक और मुखिया है तो उसके लिए अपने अधीनस्थ लोगों के अधिकारों को जानना और उनका अदा करना उसका कर्तव्य है । फिर यदि कोई सरकार के उत्तरदायित्वों में नहीं आ रहा है तो कम से कम परिवार, ख़ानदान के मुखिया में जो दर्जा बदर्जा ज़िम्मेदार होते हैं उन में से ऐसे हर हर एक फ़र्द , व्यक्ति किसी भी स्थिति में जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते । इन दशाओं में आप उनके लिए जिम्मेदार हैं । उन अधीनस्थों के बारे में आप से ज़िम्मेदारी के प्रति सवाल ज़रूर होगा कि उन्होंने अपनी प्रजा या अधीनस्थ लोगों का हक चुकाया था या नहीं । इसलिए कि यह प्रजा अथवा अमुक लोग तुम्हारे संरक्षण और हिफ़ाज़त में थे। बावजूद इसके तुममें से किसी सुपरवाइज़र ने उसकी रक्षा की या उसे बर्बादी, विनाश की जलती हुई आग में धकेल दिया या छोड़ दिया? ये परिवार और बच्चे तुम जैसे मुखिया के पास एक अमानत थे, तुमने इस अमानत की सुरक्षा , हिफ़ाज़त की या उसे नष्ट कर दिया?
रहमतुललिल आलमीन हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक कथन वर्णित किया गया है जिसमें किसी जिम्मेदार को केवल
एक हदीस में समझाया गया है कि “मज़दूर की मज़दूरी का भुगतान उसका पसीना सूखने से पहले किया जाना चाहिए” । इस हदीस में वेतन और श्रम में मज़दूर के अधिकार और सुविधा शामिल है जो दोनों के बीच तय होती है, अब इसका मतलब यह होगा कि श्रमिक, नौकर और कर्मचारी के सभी अधिकारों का भुगतान समय पर करना मालिक की जिम्मेदारी है।
घर के मुखिया के लिए परिवार के सदस्यों का पहला अधिकार यह है कि वह उन्हें अच्छे साधन और अवसर प्रदान करे। संरक्षक के ज़िम्मे पत्नी, बच्चों के अधिकार क्या हैं और मुखिया की जिम्मेदारियां क्या हैं? जिन के लिए सवाल होगा। इस संबंध में हम सभी को सोचना चाहिए ।
पत्नी, बच्चों और पोते-पोतियों पर मुखिया का पहला अधिकार यह है कि वह उन्हें ऐसे अवसर और साधन उपलब्ध कराये जिनसे उनकी लौकिक और पारलौकिक सफलताएं जुड़ी हुई हों । सर्वशक्तिमान अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन की सूरह तहरीम की पंक्ति क्र 6 में कहा है कि — “ऐ लोगो जो ईमान लाये हो! बचाओ अपने आपको तथा अपने परिजनों “अहल” को उस अग्नि से, जिसका ईंधन मनुष्य तथा पत्थर होंगे। जिसपर फ़रिश्ते नियुक्त हैं कड़े दिल, कड़े स्वभाव वाले। वे अवज्ञा नहीं करते अल्लाह के आदेश की तथा वही करते हैं, जिसका आदेश उन्हें दिया जाये”।
इसके तात्पर्य में यह है कि तुम्हारा कर्तव्य है कि अपने परिजनों को इस्लाम की शिक्षा दो ताकि वह इस्लामी जीवन व्यतीत करें। और नरक का ईंधन बनने से बच जायें।
पवित्र क़ुरआन की इस पंक्ति पर हज़रत अली रज़ि. विश्लेषण करते हैं कि यानी अपने आप को और अपने परिवार वालों को भलाई और अच्छाई की बात सिखाओ और उन्हें अदब , तहज़ीब सिखाओ। टिप्पणीकार का कहना है कि “अहल” के शब्दों में पत्नी, बच्चे, नौकर-चाकर सब सम्मिलित हैं।
उपरोक्त आयत , पंक्ति के मद्देनजर इस्लामी विद्वानों का कहना है कि मुखिया पर वाजिब और ज़रुरी है कि वह अपने परिवार को धर्मिक ज्ञान, अदब , सभ्यता , संस्कृति का ज्ञान सिखाए। उन्हें धार्मिक और नैतिक रूप से प्रशिक्षित करे , उन्हें ऐसे अवसर प्रदान कराए जहां उन्हें इस्लामी ज्ञान, संस्कृति, सम्मान , अदब और इस्लामी व्यक्तित्व से अवगत कराया जा सके।
इस शिक्षा और प्रशिक्षण का प्रारंभिक रूप नमाज़, सलाह है। अपने बच्चों को नमाज़, सलाह सिखाए , बच्चों को मस्जिद के आदाब बता सिखा कर अपने साथ मस्जिदों में ले जाया जाए । जब वे वयस्क होने वाले हों तो उन्हें पाबंदी के साथ नमाज़ , सलाह की अदायगी की आदत डलवाए ।
अबू दाऊद हदीस शरीफ़ में कहा गया है कि “अपने बच्चों को नमाज़ पढ़ने की आज्ञा दो जब वे सात साल के हों और नमाज (न पढ़ने) पर उन्हें मारो (दंड दो ) , जब वे दस साल के हों जाएं तो उनके बिस्तर अलग अलग कर दो”।
यह इस्लाम की पूर्णता है कि वह अच्छाई की प्राप्ति के लिए बल की भी इजाज़त देता है, इससे बुराई की भावनाओं के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं। वह आदेश देता है कि जब बच्चे युवावस्था के चरणों की ओर बढ़ने लगें तो उन्हें बुरे विचारों से बचाने के लिए उनके बिस्तर को अलग कर देना चाहिए, ताकि बुरे विचार उन बच्चों के करीब भी न आ सकें और वे बच्चे पवित्र रह सकें । शिक्षा और प्रशिक्षण का एक रूप यह भी है कि मुखिया अपने घरों में वाज़ , उपदेश और सलाह व नमाज़ का आयोजन करे । इस तरह के आयोजन में अपने परिवार के अलावा आस-पड़ोस के बच्चे भी भाग लें सकें। उनकी शिक्षा के लिए बेहतरीन पुस्तकें भी उपलब्ध हों। उनके अध्ययन के लिए दिलचस्पी के साथ समय का निर्धारण किया जाए । अच्छे प्रशिक्षण के लिए इस पर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि बच्चों के दोस्त कैसे हैं? क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने आप में कितना भी धार्मिक क्यों न हो, वह नेक, नेकदिल और सदाचारी क्यों न हो यदि समाज में उसके साथी अच्छी नैतिकताओं, संस्कृति, सभ्यता वाले नहीं हैं, तो वह अधर्मी, लज्जाहीन , अनैतिक , असभ्य हो कर रह जाएगा ।
सहीह मुस्लिम नामक प्रसिद्ध हदीस ग्रंथ में आता है कि “पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने एक उदाहरण के साथ समझाया कि एक अच्छे साथी और पड़ोसी की मिसाल एक इत्र विक्रेता की है। यदि आप उसके बगल में बैठ जाएं , इत्र न भी खरीदें, फिर भी आपको ख़ुश्बू आती रहेगी , जबकि बुरे साथी की मिसाल और भट्टियार की भट्ठी की तरह है, जिसमें बैठने से किसी न किसी दर्जे में आप ज़रूर नुकसान उठाएंगे या तो भट्ठी की चिंगारियां आपके शरीर और कपड़ों को जलाएगी या यदि ऐसा न हुआ तो उसकी दुर्गंध से बचाव तो संभव नहीं है”।