मुसलमान , आस्तिक के संबंध से जब भी कोई बात की जाती है तो काफ़िर यानी नास्तिक शब्द अवश्य ही चर्चा में आता है। इस अन्तर को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। मुसलमान अपने समीप यह समझता है कि मुसलमान की श्रेणी काफ़िर यानी नास्तिक से उच्चतम है! मुसलमान को ईश्वर , अल्लाह पसन्द करता है और काफ़िर को पसन्द नहीं करता । मुसलमान ईश्वर अल्लाह के यहां दयापूर्वक छोड़ दिया जाएगा। काफ़िर पर दया नहीं होगी। मुसलमान स्वर्ग/जन्नत में जाएगा और नास्तिक/ काफ़िर , नरक यानी जहन्नुम में जाएगा। हमें इस बात पर ज़रुर चिंतन मंथन करना चाहिए कि मुसलमान और काफ़िर में इतना बड़ा अंतर अन्ततः होता क्यों है ? हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि नास्तिक हो कि आस्तिक सभी आदम की संतान हैं । मुसलमान जैसा ही काफ़िर भी एक इंसान है । मुसलमान ही जैसे उसके हाथ, पांव, आंख और कान हैं। वह भी इसी हवा में सांस लेता है, यही पानी पीता है, इसी धरती पर बसता है, यही उपज खाता है, उसी तरह पैदा होता और इसी तरह मरता है। उसी ईश्वर , अल्लाह ने उसको भी पैदा किया है जिसने मुसलमान को पैदा किया है। फिर अंततः उसकी श्रेणी निम्न और मुस्लमान की श्रेणी उच्च क्यों तथा आस्तिक यानी मुसलमान को जन्नत और नास्तिक को नरक में क्यों डाला जाएगा इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
यह सोचने की बात है कि इन दोनों इंसानों में इतना बड़ा अंतर मात्र नामों जैसी छोटी-सी बात से नहीं हो सकता कि किसी का नाम अब्दुल्लाह, अब्दुर्रहमान है और कोई अन्य किसी जाति वर्ग के नामों से पुकारा जाता है । या मुसलमान मछली , मांस खाते हैं और वह नहीं खाता । अल्लाह तआ़ला जिस ने कि संपूर्ण मानव जाति को पैदा किया है और जो सब का पालनहार है, वह ऐसा अन्याय और अत्याचार तो कभी कर ही नहीं सकता कि इन छोटी-छोटी बातों पर अपने सेवकों में अंतर करे और एक उपासक को जन्नत में भेजे और दूसरे को नरक में पहुंचा दे।
इन दोनों में वास्तविक अंतर को समझने की आवश्यकता है। वह यह कि इन दोनों में वास्तविक अंतर ‘इस्लाम’ और ‘नास्तिक (कुफ्र’) होता है। इस्लाम का अर्थ ईश्वर अल्लाह की आज्ञापालन करने से है और नास्तिक अर्थात काफ़िर का तात्पर्य ईश्वर अल्लाह के आदेशों की अवहेलना , अवज्ञा करने से है। मुसलमान और नास्तिक (काफ़िर) दोनों इंसान हैं, दोनों ईश्वर अल्लाह के उपासक हैं, लेकिन एक इंसान इसलिए सर्वश्रेष्ठ और बड़ाई वाला हो जाता है कि वह अपने ईश्वर अल्लाह को पहचानता है, उसके आदर्शों का अनुकरण करता है और उसकी अवहेलना के परिणामों से डरता है । जबकि दूसरा इंसान इसलिए सर्वश्रेष्ठ श्रेणी से गिर जाता है कि वह अपने ईश्वर अल्लाह को नहीं पहचानता और उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं करता । यही कारण है कि मुसलमान से ईश्वर अल्लाह प्रसन्न होता है और काफ़िर यानी नास्तिक से क्रोधित । मुसलमान को जन्नत देने का वादा करता है और नास्तिक को कहता है कि उसे नरक में डालूंगा।
इस मुस्लमान और नास्तिक में अंतर का कारण ज्ञान और व्यवहार से है । मुसलमान को काफ़िर से भेद करने वाली सिर्फ दो चीजे हैं, एक ‘इल्म – ज्ञान’ और दूसरा ‘व्यवहार यानी अमल’ । पहले तो उसे यह जानना चाहिए कि उसका मालिक , सृष्टिकर्ता कौन है ? उसके आदेश क्या हैं ? उसकी इच्छा पर चलने का मार्ग क्या है ? किन कामों से वह प्रसन्न होता है और किन कामों से नाराज़ होता है ? फिर जब ये बातें मालूम हो जाएं तो उसे दूसरी बात को अपनाना चाहिए कि इंसान अपने आपको सृष्टिकर्ता , मालिक का गुलाम बना दे । जो मालिक की इच्छा हो उस पर चले और अपनी इच्छा को छोड़ दे। अगर उस का दिल एक कार्य को चाहे और मालिक का आदेश उसके विरुद्ध हो तो उसे अपने दिल की बात नहीं माननी चाहिए बल्कि मालिक की बात माननी चाहिए । अगर एक काम उसे अच्छा मालूम होता हो और मालिक कहे कि वह बुरा है, तो उसे बुरा ही समझना चाहिए और अगर दूसरा काम उसे अच्छा नहीं मालूम होता हो और मालिक कहे कि वह अच्छा काम है तो उसे अच्छा ही समझना चाहिए। इसी तरह अगर एक काम में उसे नुक़सान नज़र आता हो और मालिक का हुक्म हो कि उसे किया जाए तो चाहे उसमें जान और माल का कितना ही नुकसान हो वह उसको अवश्य करके ही छोड़ना चाहिए।
मुसलमान जो अस्तिक कहलाता है, उस में और नास्तिक (काफिर) में अंतर ज्ञान और व्यवहार से होता है। यही दोनों बाते मुसलमान के आस्तिक होने और किसी के नास्तिक होने में प्रमुख रूप से अंतर कराती हैं। इसके लिए पहले उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि उसका मालिक कौन है, उसके जीवन पर्यन्त क्या आदेश हैं, उसकी इच्छा अनुसार वह किन कायों से प्रसन्न होता है और किन कार्यों, व्यवहारों से क्रोधित। जब इन जानकारियों का ज्ञान इंसान को हो जाएगा तो वह अपने आप को मालिक अर्थात सृष्टि रचयिता के अधीन कर देगा । अपने दिल की इच्छाओं की बजाए वह मालिक के आदेशों को स्वीकारेगा , वह अपनी इच्छाओं को छोड़ कर उस सर्व शक्तिशाली मालिक के मार्ग निर्देशन पर चलने लगेगा । यदि इस उपासक को एक कार्य अच्छा लगता हो लेकिन दूसरा कार्य अस्वीकार्य हो तो भी उसे मालिक के कार्यों का पालन करना ही होगा। अर्थात मालिक/सृष्टिकर्ता जिन कार्यों को अच्छा कहे वही स्वीकारेगा जो बुरा है उसे त्याग देगा। किसी कार्य में उपासक को क्षति समझने में आती हो तब भी वह मालिक की ही आज्ञा को स्वीकारेगा , चाहे उस में आत्मा और धन की क्षति क्यों न होती हो । इसलिए उपासक को मालिक के आदेशों का पालन आवश्य करना चाहिए तभी वह आस्तिक कहलाएगा वरना नास्तिक का कलंक उसके माथे पर लग जाएगा। इस कलंक से आस्तिक को बचना चाहिए।